[ डॉ. वर्तिका नंदा ]: जेलों में कैद बंदियों के लिए न्यूनतम मानक निर्धारित करने वाले संयुक्त राष्ट्र नियम, 2017 और भारत में मॉडल प्रिजन मैनुअल, 2017, कैदी महिलाओं की स्थिति पर संसदीय समिति की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में 1382 जेलों में अमानवीय स्थिति पर सुनवाई से जुड़े मुद्दों से यह मसला चर्चा के केंद्र में आया है। इससे तमाम सवाल उठे हैं जिनमें जेलों को सुधार गृह में तब्दील करने का भी एक प्रमुख मसला है। इसे मूर्त रूप देने के लिए तमाम बड़े बदलाव करने होंगे जिनमें खुली जेलों का होना सबसे अहम है।

खुली जेलें तीन तरह की होती हैं। सेमी ओपन जेल, ओपन जेल और ओपन कालोनी। सेमी ओपन जेल में कैदी जेल के ही एक हिस्से में रहते हुए कुछ बंदिशों से मुक्त हो जाता है। ओपन जेल में वह जेल के बाहरी परिसर में रहते हुए जेल के खुले परिवेश में अपनी आजीविका कमा सकता है। इसमें परिवार से मुलाकात का भी प्रावधान होता है। वह रोज जेल से एक नियत समय के लिए बाहर जाकर वापस लौट सकता है। वहीं खुली कालोनी में बंदी कहीं भी बाहर जाकर किसी भी तरह के काम को करने के लिए आजाद रहता है। यानी खुली जेल ऐसी जेल होती है जिसमें जेल के सुरक्षा नियमों को काफी लचीला रखा जाता है। ऐसी जेलें बड़ी जेलों का ही एक बाहरी हिस्सा होती है जो सलाखों से काफी हद तक आजाद होती है। वहां कैदियों को आत्मअनुशासन एवं स्वरोजगार पर जोर दिया जाता है।

बाहरी लोगों से मुलाकात से बंदी भी धीरे-धीरे स्वयं को समाज में लौटने के लिए तैयारी का अवसर पा लेता है। ऐसे में खुली जेलों का मकसद जेलों में बढ़ती भीड़ पर काबू पाना और कैदियों को बेहतर इंसान बनाकर समाज में वापस लौटकर सामान्य जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार करना है।

ब्रिटेन में 70 के दशक में ही ओपन जेल शुरू कर दी गई थी। कुल 10 प्रतिशत बंदियों को इनमें भेजे जाने का प्रावधान था। भारत में भी राजस्थान और महाराष्ट्र में इस परिपाटी को अपनाया जा रहा है, लेकिन बाकी राज्य इसमें अभी पीछे हैं। इन्हीं खुली जेलों को लेकर लेकर सितंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया कि पूरे देश में इसे लागू किया जाए। फिर मार्च 2018 में एक और आदेश के जरिये न्यायमूर्ति एमबी लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने तमाम राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के पुलिस महानिदेशकों (जेल) को चेतावनी दी कि जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों के मुद्दे से निपटने में कार्ययोजना जमा करने में नाकाम रहने की वजह से उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला चलाया जा सकता है।

खुली जेलों पर जोर देने का यह फैसला संजय दत्त द्वारा दायर की गई जनहित याचिका के आधार पर लिया गया है। अदालत ने 11 और निर्देश दिए हैं। हालांकि यह बात अलग है कि दत्त के जीवन पर बनी फिल्म संजू के प्रोमो में जेल की हकीकत से उलट दृश्य दिखाया गया है।

इस समय भारत में कुल 63 खुली जेलें हैं। इनमें से केवल चार ही महिलाओं के लिए हैं। यरवदा, तिरुअनंतपुरम और राजस्थान में दुर्गापुर एवं सांगानेर में महिलाओं के लिए खुली जेल का प्रावधान है। 2010 में यरवदा में देश की पहली महिला खुली जेल को शुरू कर दिया गया। बाकी 59 खुली जेलों में महिला कैदियों को रखने की सुविधा नहीं। कई राज्य इसे लेकर हिचक दिखा रहे हैं। व्यापक परिदृश्य में देखें तो पूरे देश में इस समय 1382 जेलें हैं जिनमें से महिलाओं के लिए सिर्फ 18 ही हैं। यानी चाहे महिला जेल हो या खुली जेल, वे जिन जेलों में हैं वहां पहले ही क्षमताओं से अधिक कैदियों की चुनौती और ज्यादा बढ़ गई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जेलों में क्षमता के मुकाबले 114.4 फीसदी ज्यादा कैदी बंद हैं और कुछ मामलों में तो यह तादाद छह सौ फीसदी तक है। इस वजह से भी खुली जेलों को बनाए जाने की हिमायत होती रही है। दुनिया में पहली खुली जेल स्विट्जरलैंड में 1891 में बनी थी। फिर अमेरिका में 1916 में और ब्रिटेन में 1930 में बनाई गई। भारत में पहली खुली जेल 1905 में मुंबई में बनी और इसमें थाणे केंद्रीय जेल, बंबई के खास बंदियों को रखा गया, लेकिन इस खुली जेल को 1910 में बंद करना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में अनधिकृत तौर पर खुली जेल का पहला कैंप 1953 में बनाया गया। इसका मकसद वाराणसी के पास चंद्रप्रभा नदी पर एक बांध बनाना था। इसकी सफलता को देखते हुए 1956 में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में भी ऐसा ही प्रयोग किया गया। मौजूदा समय में खुली जेलों में करीब 100 से 1,000 तक बंदी रखे जाते हैं। डकैती और गंभीर अपराधों में लिप्त रहे बंदियों को इन जेलों में नहीं रखा जाता।

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि समय आ गया है कि सभी राज्य खुली जेलों पर विचार करें। अदालत ने इसमें शिमला और दिल्ली की तिहाड़ जेल का खासतौर से उल्लेख किया है। भारत में तेलंगाना और मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इस साल मई में खुली सतना की खुली जेलों ने आधुनिक तरीके से कायाकल्प किया है। इसी तरह राजस्थान की जेलों में सामने आया कि कई कैदियों का आचरण अच्छा है, लेकिन खुली जेलों की संख्या और उनकी क्षमता कम होने की वजह से कैदियों को बंद जेलों में ही रहना पड़ रहा है।

खुली जेलों पर काम कर रहीं स्मिता चक्रवर्ती ने भी पाया कि जेलों में 90 फीसदी कैदी ऐसे हैं जो आदतन अपराधी नहीं है, लेकिन दुर्घटनावश किए अपराध की सजा भुगत रहे हैं। उन्होंने भी यह मांग की थी कि ऐसे कैदियों को खुली जेलों में शिफ्ट किया जाना चाहिए।

वहीं सुप्रीम कोर्ट के 11 सूत्रीय निर्देश में स्वतंत्रता के अधिकार, जेलों में मानवीय व्यवहार, जेलों में अप्राकृतिक मृत्यु वाले बंदियों के परिवारों को मुआवजा देने और एकाकीपन एवं कैद से निपटने के लिए काउंसलिंग पर विचार करने को भी कहा गया है। कोर्ट ने कैदियों के साथ व्यवहार के न्यूनतम स्तर के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासभा की ओर से अपनाए गए मंडेला नियमों का भी जिक्र किया है।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से भी कहा गया है कि वह जेलों में बच्चों और महिलाओं की देखभाल से जुड़े अपने अभियान को गति दे। देश भर में करीब 1800 बच्चे अपनी माता या पिता के साथ जेल में रहते हैं और उन्हें सिर्फ 6 साल तक ही उनके साथ जेलों में रहने की इजाजत होती है। ऐसे में खुली जेलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश मील का पत्थर साबित होगा, लेकिन इसे लागू करना इतना आसान नहीं लगता। खुली जेलों से आशाएं तो जगती हैं, लेकिन कुछ आशंकाएं भी बाकी रह जाती हैं।

[ लेखिका जेल सुधारक एवं जेलों पर एक अनूठी शृंखला तिनका-तिनका की संस्थापक हैं ]