नई दिल्ली, [फैजान मुस्तफा]। अल्पसंख्यकों का संरक्षण किसी भी सभ्यता का खास पहलू माना जाता है। इसे लोकतांत्रिक एवं बहुलतावादी राजनीति का आवश्यक अंग भी माना गया है। वहीं एक हालिया घटनाक्रम में देश के मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने जम्मू-कश्मीर राज्य में हिंदुओं को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इन्कार कर दिया। शीर्ष अदालत ने मुस्लिम बहुल राज्य में अल्पसंख्यक आयोग के गठन को लेकर भी अपनी अक्षमता जाहिर की। जम्मू-कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को देखते हुए पीठ ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के दायरे का राज्य में विस्तार करने को लेकर भी अपनी असमर्थता व्यक्त की। इससे महबूबा मुफ्ती सरकार भले ही कुछ राहत की सांस ले रही हो, लेकिन मुझे यही लगता है कि अव्वल तो इस याचिका की कोई जरूरत ही नहीं थी और दूसरे तमाम ऐसी मिसालें हैं, जिनसे अदालत दूसरे नतीजे पर भी पहुंच सकती थी।

अल्पसंख्यक दर्जा कानून या अदालत से तय नहीं होता है
यह एक गलत धारणा है कि किसी समुदाय का अल्पसंख्यक दर्जा कानून या अदालत से तय होता है। इस मसले को अंतरराष्ट्रीय और भारतीय कानूनों द्वारा पूरी तरह पुष्ट किया गया है। 1930 की शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने ग्रेसो-बुल्गारिन समुदाय के मामले में स्पष्ट किया था कि अल्पसंख्यक दर्जा महज आबादी की संख्या से तय नहीं होता। इसके लिए साझा धार्मिक, नस्लीय भाषाई चलन मायने रखते हैं जिन्हें कोई समूह परंपराओं, शिक्षा और युवाओं के सामाजीकरण के जरिये सहेजकर रखना चाहता है। इस अदालत ने आदेश दिया था कि किसी समुदाय की पहचान किसी कानून पर निर्भर नहीं है। अगर कोई समुदाय तमाम सांस्कृतिक पहलुओं पर ऐसा समूह बनाता है जो उन्हें दूसरों से अलग दर्शाता हो और यदि वह समूह उन सांस्कृतिक प्रतीकों को सहेजना चाहता हो तो यही पहलू उन्हें अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने के लिए काफी है।

कई राज्यों में हिंदू भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करने की पात्रता रखते हैं
एन एम्माद (1998) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी यही माना था कि अल्पसंख्यक दर्जे के लिए राज्य की मान्यता की कोई जरूरत नहीं। भारतीय संविधान में भी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का केवल चार जगह ही उल्लेख है। हालांकि संविधान इसे उचित रूप से परिभाषित नहीं करता। सुप्रीम कोर्ट का इस पर यही रुख रहा है कि अल्पसंख्यकों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर होगा और वह भी राज्य विशेष पर निर्भर करेगा। केरल शिक्षा विधेयक मामले (1957) के बाद से ही इस नीति में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। इसके बाद शीर्ष अदालत की 11 सदस्यीय पीठ ने टीएमए पई फाउंडेशन (2002) मामले में स्पष्ट किया कि ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की किसी उचित परिभाषा के अभाव में किसी भी राज्य का ऐसा समूह जो कुल आबादी में पचास फीसद से कम हो, अपनी सामुदायिक, धार्मिक या भाषाई परंपराओं के आधार पर अल्पसंख्यक अधिकारों का हकदार हो सकता है। इस तरह से नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में संख्या में कम होने के लिहाज से हिंदू भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करने की पात्रता रखते हैं।

 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी में मुसलमानों को अल्पसंख्यक नहीं माना
डीएवी कॉलेज (1971) के मशहूर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खुद पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस एसएन श्रीवास्तव ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को आश्चर्यजनक रूप से अल्पसंख्यक नहीं माना। बाल पाटिल (2005) मामले में धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर किसी समुदाय की पहचान को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हैरतअंगेज रूप से बड़ा प्रतिगामी रुख अपनाया। उसके कुछ विचार हमारे संवैधानिक दर्शन के उलट दक्षिणपंथी विचारधारा से कहीं अधिक मेल खाते हैं।

बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे खांचे समाप्त होने चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने असामान्य रूप से कहा कि संविधान निर्माताओं ने धार्मिक अल्पसंख्यकों की सूची तैयार करने के बारे में सोचा ही नहीं। पीठ ने यहां तक कहा कि आदर्श लोकतांत्रिक समाज में समानता के अधिकार को मूल अधिकार के तौर पर स्वीकार किया गया है, लिहाजा बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के साथ ही तथाकथित अगड़े और पिछड़े जैसे खांचों को भी समाप्त कर देना चाहिए। कालांतर में सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यक आयोग को इस दिशा में कदम उठाने का निर्देश भी दिया कि वह इस भेदभाव को खत्म करके भारत की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के उपाय करे।

जैन एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं
इस तरह के फैसलों से हमारी अदालतों ने उन लोगों को एक तरह से वैधता प्रदान की जो एक देश-एक धर्म-एक कानून और एक भाषा जैसे नारे लगाते हैं। जहां तक जैन समुदाय का संबंध है तो जब संविधान के अनुच्छेद 25 में उन्हें हिंदू के तौर पर परिभाषित किया गया तो इस पर जैनों के विरोध के बाद पंडित नेहरू को लिखित रूप में स्पष्टीकरण देना पड़ा कि वे एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। एकीकरण में विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के संरक्षण की आवश्यकता होती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदुओं सहित सभी समुदाय धार्मिक के साथ-साथ भाषाई आधार पर अल्पसंख्यक अधिकार के हकदार हैं। भाषाई अल्पसंख्यक होने के नाते तमिल हिंदू तमिलनाडु के बाहर देश के किसी भी राज्य में तमिल माध्यम वाले अपने संस्थान स्थापित कर सकते हैं। इसी कारण कुछ राज्यों में हिंदू धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं।

भाषा के आधार पर देश विभाजित हुआ
भारत कई भाषाई राज्यों में विभाजित है। इन राज्यों का गठन उस क्षेत्र में प्रचलित भाषा बोलने वाले अधिसंख्य लोगों के आधार पर हुआ है। जैसे तमिलनाडु तमिल भाषा के आधार पर बना। यदि भाषाई अल्पसंख्यकवाद के मामले में पूरे भारत को एक पैमाना मानें तो तमिलनाडु के भीतर तमिल भाषी ही भाषाई अल्पसंख्यक माने जाएंगे। यह बहुत बड़ी विसंगति होगी। धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे के निर्धारण में सुप्रीम कोर्ट को असल में अपने पुराने फैसलों की ही समीक्षा करनी चाहिए। यह सच है कि अनुच्छेद 30 धार्मिक एवं भाषाई अधिकारों को सुनिश्चित करता है, लेकिन वह यह नहीं कहता कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक दर्जे को राज्य के स्तर पर तय किया जाए जैसा कि शीर्ष अदालत ने अपने फैसलों में निर्णय दिया है। इन्हें राज्य के स्तर पर निर्धारित करने की जरूरत नहीं।

अल्पसंख्यक अधिकार सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ा मसला है
अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम के तहत भारत सरकार पहले ही समूचे देश के लिए धार्मिक अल्पसंख्यकों को अधिसूचित कर चुकी है। बेहतर होगा कि हम टीएमए पई मामले में न्यायमूर्ति रूमा पाल के नजरिये पर गौर करें। उन्होंने दलील दी थी कि अल्पसंख्यक पैमाने का निर्धारण ऐसे कानून के दायरे पर किया जाए, जिसके संरक्षण में यह दर्जा मांगा जा रहा हो। अल्पसंख्यक अधिकार सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ा मसला है। यह कोई सांप्रदायिक समस्या नहीं है। वास्तव में एकरूपता नहीं, बल्कि विविधता ही भारत को बेहतर रूप से परिभाषित करती है।

[लेखक नलसार विधि विश्वविद्यालय, हैदराबाद के कुलपति हैं]