[ अश्विनी कुमार ]: यह एक मुश्किल भरा दौर है। ऐसा इसलिए, क्योंकि केंद्र सरकार हर मोर्चे पर कुछ ज्यादा ही हावी हो रही है। हमारी राजनीति अतिवादी होने पर आमादा है और संवैधानिक प्रावधानों का मखौल उड़ाया जा रहा है। इसके साथ ही एक बहुलतावादी समाज की वास्तविकता को भी अनदेखा किया जा रहा है। जहां समाज राष्ट्रीय महत्व के मसलों में आधुनिकीकरण, समावेशन एवं संयोजन की मांग करता है वहीं निर्णायक और तानाशाही शासन के बीच अंतर धुंधला पड़ता जा रहा है। राजनीतिक नैतिकता का अभाव इसकी प्रमुख वजह है। सत्ता की चाल संवैधानिक दायरे के अनुरूप ही होनी चाहिए। इस पूरे परिदृश्य में हमारे स्वतंत्र लोकतांत्रिक संस्थान दबाव में हैं। उनकी स्वायत्तता में हस्तक्षेप किया जा रहा है। उनकी आजादी से समझौता हो रहा है। इसी कड़ी में न्यायिक हस्तक्षेप की धारणा भी तेजी से जोर पकड़ रही है।

संविधान ने लोकतंत्र के हमारे तीनों स्तंभों के बीच शक्ति का यथोचित रूप से पृथक्करण किया है, लेकिन इनके बीच बिगड़ता संतुलन लोकतांत्रिक तस्वीर को विरुपित कर रहा है। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। ऐसे में देश के भविष्य का दारोमदार न्यायपालिका के कुछ बुद्धिमान लोगों के भरोसे ही लग रहा है। हालांकि सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के घटनाक्रम ने उस राष्ट्रीय बहस को नए सिरे से छेड़ दिया है कि एक संसदीय लोकतंत्र में न्यायिक शक्ति की क्या सीमा होनी चाहिए? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। फैसले के बाद उसकी समीक्षा को लेकर सुप्रीम कोर्ट का अधिकार अक्षुण्ण है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक शक्तियों के उन्मुक्त, विस्तृत एवं मौलिक इस्तेमाल को राष्ट्र की स्वीकृति इसी दृष्टिकोण से मिली है। उसने मानवाधिकारों के संरक्षण एवं उन्हें नए आयाम देने में अतुलनीय योगदान दिया है। संविधान की गरिमा को ध्यान में रखते हुए शीर्ष अदालत ने अधिकारों के प्रगतिशील सिद्धांतों को ही आगे बढ़ाने का काम किया है। अनुच्छेद 21 में गरिमा के अधिकारों को मूल अधिकारों के अनुक्रम में शिखर पर स्थापित करने के साथ ही कोर्ट ने संवैधानिक नैतिकता के विवेचक की अपनी भूमिका को ही पुष्ट किया है। मानवीय गरिमा से संबंधित शीर्ष अदालत के कुछ ऐतिहासिक फैसले उसकी विद्वता को ही प्रदर्शित करते हैं। इस सूची में नवतेज जौहर (2018), नंबी नारायण (2018), पुट्टास्वामी (2017) और एम नागराज (2007) जैसे मामलों को गिना जा सकता है। इन फैसलों ने पूरे देश को गौरवान्वित किया है।

हालांकि कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट की राय, सलाह और टिप्पणियों को देखते हुए हमारे संवैधानिक न्यायतंत्र में निरंतरता एवं निरपेक्षता को लेकर कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं। इसमें सबसे ताजा मिसाल रोहिंग्या शरणार्थियों से जुड़े मामले की है। अपने देश यानी म्यांमार में जुल्म, अत्याचार और नस्लीय नरसंहार का दंश झेलकर भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हुए र्रोंहग्या शरणार्थियों को केंद्र सरकार वापस उनके देश म्यांमार भेजना चाहती है। सरकार के इस फैसले को कानूनी कसौटी पर कसने का सुप्रीम कोर्ट का रवैया निराशाजनक रहा जबकि स्थापित मानवाधिकारों के आधार पर यह बहुत ठोस मामला है।

इसी तरह पुणे पुलिस की ओर से कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की पीठ के बहुमत वाले निर्णय के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। इसमें स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच के लिए विशेष जांच दल यानी एसआइटी के गठन को मंजूरी नहीं दी गई और अतीत की तमाम मिसालों की अनदेखी के साथ ही विपरीत मत रखने वाले न्यायाधीश के पक्ष को भी नजरअंदाज किया गया।

मानवाधिकारों के उल्लंघन वाले बड़े मामलों में कार्रवाई को लेकर परोक्ष रूप से गेंद सरकार के पाले में डालने के क्रम में उसके दृष्टिकोण में अंतर और उससे भी बढ़कर हाल में सीबीआइ के मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी के अधिकार के संदर्भ में गोपनीयता के उल्लंघन पर फटकार ने भी कुछ चिंता उत्पन्न की है। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस पर कटाक्ष भी किए हैं। वास्तव में जनहित से जुड़े कुछ मामलों की सुनवाई में अदालत की टिप्पणियां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उसके हालिया फैसले की भावना से ही मेल नहीं खातीं। भारतीय संघ बनाम कोंडुगल्लूर फिल्म सोसायटी (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘विभिन्न स्वरूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य सभी अधिकारों की निरंतरता के लिए बेहद महत्वपूर्ण अवयव है और यही वह अंकुर है जो लोकतांत्रिक वट वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित करता है।’

एक ऐसे समय में जब मानवीय गरिमा पर प्रहार हो रहा हो और उदारवाद, समावेशन एवं समानता जैसे उसके मूल्यों पर मंडराते संकट के साथ ही भारतीयता के उस मूल विचार के समक्ष चुनौती उत्पन्न हो रही हो जो बहुलतावाद और लोकतंत्र को राष्ट्र के अपरिहार्य तत्वों के रूप में रेखांकित करता है तो ऐसे में शीर्ष अदालत की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारे गणतंत्र के आधारभूत मूल्यों के संरक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट से यही अपेक्षा है कि वह समता, समानता, लोकतंत्र और मानवीय नैतिकता के प्रोत्साहन को लेकर अपने फैसलों में निरंतरता-एकरूपता का प्रदर्शन करेगा।

सुप्रीम कोर्ट के इकबाल को इसी आधार पर न्यायसंगत माना जाता है कि वह मूल अधिकारों का निष्पक्ष विवेचक होने के साथ ही समतावादी लोकतंत्र के सिद्धांत का परिरक्षक है। यह दायित्व उसे संविधान द्वारा ही प्रदत्त है जिसकी व्याख्या स्वयं मुख्य न्यायाधीश रहे पतंजलि शास्त्री ने 1952 के वीटी रो मामले में की थी। विधि निर्माण में कुछ खाइयों को पाटने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक विधि निर्माण को सही ठहराया है। न्यायिक व्याख्या की यह ऐसी कवायद है जो विशेष रूप से उसके अधिकार क्षेत्र में ही आती है।

बहरहाल उसके प्राधिकार की शक्ति और उसकी न्यायिक मुहर की व्यापक पहुंच की स्वीकार्यता उसकी बौद्धिक ईमानदारी और उन फैसलों में ही निहित होगी जो संविधान की चेतना को सर्वोत्तम रूप में प्रतिध्वनित करते हों। हालांकि एक ऐसे दौर में जब मर्यादा की लक्ष्मण रेखा धुंधली पड़ती जा रही हो तब राष्ट्र की अवचेतना के संरक्षक की अद्वितीय भूमिका में सुप्रीम कोर्ट को बार-बार नैतिकता और बुद्धिमता के भाव को पुष्ट करना होगा। इसके लिए आत्मविश्लेषण का मार्ग ही सबसे उपयुक्त होगा। यही मार्ग उसकी शक्ति को बरकरार रखेगा। न्यायिक अचूकता का कोई दावा न करने के बावजूद स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट देश को एक दिशा दिखा सकता है। इसी के साथ इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपने नैतिक आग्रहों के साथ हमारे लोकतंत्र में उसका अतुलनीय योगदान रहा है।

( लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )