प्राय: हम कहते हैं कि हमें ईश्वर प्राप्ति के लिए ईश्वर का चिंतन करना चाहिए। इस संदर्भ में सवाल यह उठता है कि हम उसका चिंतन कर भी कैसे सकते हैं, जिसके बारे में हमारा कोई अनुभव नहीं। वहीं जो लोग ईश्वर को जानने का दावा करते हैं, वे सब सुनी-सुनाई बातें हैं, जिसे हम अपना ईश्वरीय ज्ञान मान लेते हैं, जो सरासर मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मन ही सर्वाधिक तीव्रगामी है। विचार ही मन की शक्ति है, किंतु जहां मन की सीमा समाप्त होती है, वहां से परमात्मा की सीमा शुरू होती है, किंतु इसका आशय यह नहीं कि यहां क्षेत्र बंटे हुए हैं। इसका आशय मात्र इतना है कि जब मन यानी विचार थककर गिर जाते हैं, तब उस परमात्मा की अनुभूति होती है। विचार रूपी धूल झड़ गई, मन रूपी आईना स्वच्छ हो गया, तब हम उसे देख सकते हैं, जो सब में निहित है।

विचारों की शक्ति कुल मिलाकर उस अंधे की लाठी के समान है, जिसके द्वारा हम सागर की थाह पाने की चेष्टा करते हैं, जो अंतत: हमें तनावग्रस्त बना देते हैं। उपनिषदों में कहा गया है कि ईश्वर ने संपूर्ण सृष्टि की रचना की, सारी कर्मेंद्रियों का रुख बाहर की ओर रखा और स्वयं हमारे भीतर हमारी हृदय गुहा में छिप गया। अब चूंकि हमारी समस्त कर्मेंद्रियों के द्वार बाहर की ओर खुलते हैं और हमारी सारी उपलब्धियां बाहर प्राप्त होती हैं। इसलिए हम ईश्वर को भी बाहर पाना चाहते हैं। इस प्रकार ईश्वर की ओर हमारी पीठ हो जाया करती है और हम अपने भीतर दौड़कर उसे बाहर सब जगह तलाश करते हैं। इसी खोज में उससे दूर होते चले जाते हैं।

शायद हमें यह ख्याल नहीं कि जो चीज हमारे जितना निकट होती है, उसके होने का आभास उतना ही क्षीण होता है। और उसका पता हमें तब चलता है, जब वह चीज हमसे दूर हो जाती है। हमने परमात्मा को स्वयं के भीतर होने का बोध खो दिया है। काश! हमने कभी परमात्मा को खोया होता तो कोई भी उसे खोज कर हमें दे देता, किंतु जब हमने उसे खोया ही नहीं तो उसे हमें कोई दे भी कैसे सकता है। उसकी खोज अंतस चेतना में ही करनी होगी। इस संदर्भ में यह बात भी याद रखें कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक प्रबल रचनात्मक शक्ति है, जो अदृश्य है। इस अदृश्य शक्ति को ध्यान के जरिये निर्विचार होकर हम अपनी अंतस चेतना में अनुभव कर सकते हैं।

[ अजय गोंडवी ]