डॉ. अश्विनी महाजन। देश में लघु उद्योगों की परिभाषा को लेकर लंबे समय से विवाद कायम है। वर्ष 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता का सूत्र संभाला था, उससे पहले कांग्रेस की सरकार ने लघु उद्योगों की परिभाषा में आमूलचूल परिवर्तन किया था। उससे पूर्व वे उद्योग जिनमें प्लांट और मशीनरी की लागत 60 लाख रुपये या उससे कम थी, लघु उद्योग कहलाते थे। लेकिन तत्कालीन सरकार ने इस सीमा को 60 लाख से बढ़ाकर अचानक तीन करोड़ कर दिया था।

दरअसल उस समय चुनाव से पूर्व वाजपेयी ने इसे अनुचित बताया था और उनकी सरकार आने पर उसे बदलकर एक करोड़ करने का वादा किया था। इस वादे को निभाते हुए वाजपेयी सरकार ने लघु उद्योगों की परिभाषा को पुन: बदलते हुए, उसमें प्लांट और मशीनरी की लागत की सीमा को घटाकर एक करोड़ कर दिया। लंबे समय तक यह विवाद थमा रहा। इस बीच वर्ष 2006 में एमएसएमई अधिनियम लागू किया गया, जिसके अनुसार एसएसआइ (लघु पैमाने के उद्योगों) के स्थान पर एक नई परिभाषा एमएसएमई (माइक्रो, स्मॉल, मीडियम एंटरप्राइज) लागू हो गई। इसमें दो प्रमुख बदलाव आए। एक, उद्योग के स्थान पर उद्यम शब्द का उपयोग प्रारंभ किया गया और दूसरा लघु के साथ-साथ मध्यम श्रेणी के उद्यम नाम का एक और वर्ग इसमें शामिल किया गया। नई परिभाषा के अनुसार सूक्ष्म (माइक्रो) उद्यम में प्लांट एवं मशीनरी में निवेश की सीमा 25 लाख, लघु उद्यम में यह सीमा पांच करोड़ और मध्यम श्रेणी के उद्यम में प्लांट एवं मशीनरी में निवेश की सीमा 10 करोड़ रखी गई।

यह परिभाषा अभी तक लागू रही है। लेकिन इस परिभाषा में बदलाव की कवायद चल रही थी। इस बीच एक नए एमएसएमई एक्ट हेतु तैयारी शुरू हुई। इस हेतु विधेयक अभी संसद में प्रस्तावित है। सरकार ने एमएसएमई की परिभाषा को प्लांट एवं मशीनरी से बदल कर टर्न ओवर के आधार पर करने का प्रस्ताव दिया, जो काफी दिनों से आधिकारिक हलकों में चल रहा था। लेकिन इसके विरोध के चलते, सरकार ने परिभाषा प्लांट एवं मशीनरी में निवेश और टर्न ओवर दोनों के आधार पर करना तय किया और इस हेतु एक जून 2020 को एक अध्यादेश जारी कर सूक्ष्म, लघु और माध्यम उद्यमों के लिए इसकी एक परिभाषा निश्चित की है। इस अधिसूचना को एक जुलाई से लागू कर दिया गया है।

चूंकि कई उद्यम ऐसे होते हैं, जहां संयंत्र, मशीनरी एवं उपस्कर तो कम होते हैं, लेकिन उनकी टर्नओवर काफी ज्यादा होती है। ऐसे में इस प्रकार के भारी कारोबार करने वाले उद्यम भी एमएसएमई की श्रेणी में आ जाते थे। इसलिए निवेश और कारोबार दोनों के सम्मिश्रण से उस समस्या का समाधान तो हो गया है। लेकिन वर्तमान अध्यादेश के अन्य प्रावधानों के चलते यह विवादों के घेरे में है। लघु उद्योगों के कई संगठन इस अध्यादेश का पुरजोर विरोध भी कर रहे हैं। इन संगठनों की पहली आपत्ति इस बात को लेकर है कि एमएसएमई की इस परिभाषा में विदेशी पूंजी प्राप्त उद्योगों को अलग नहीं किया गया है। देसी लघु उद्यमों का मानना है कि ऐसे में बड़े विदेशी निवेशक लघु उद्यमों का स्थान हस्तगत कर लेंगे। उदाहरण के लिए कोई विदेशी उद्यमी 50 करोड़ रुपये तक के निवेश और 250 करोड़ रुपये तक कारोबार के साथ मध्यम श्रेणी के उद्यम के लाभ हस्तगत कर सकेंगे और भारतीय उद्यमों को नुकसान होगा।

नए अध्यादेश पर दूसरी आपत्ति यह है कि इस अध्यादेश में पूर्व के एमएसएमई अधिनियम (2006) के अनुरूप मैन्युफैक्चरिंग और सेवा उद्यमों में भेद नहीं किया गया है। गौरतलब है कि एमएसएमई अधिनियम, 2006 के अनुसार सूक्ष्म उद्यमों में सेवा क्षेत्र में संलग्न उद्यमों की निवेश की सीमा मात्र 10 लाख रुपये थी, जबकि मैन्युफैक्चरिंग में यह 25 लाख रुपये थी। लघु सेवा उद्यमों में निवेश की सीमा दो करोड़ रुपये, मध्यम सेवा उद्यमों में यह पांच करोड़ रुपये ही थी।

समझना होगा कि लघु मैन्युफैक्चरिंग उद्यम उनमें रोजगार सृजन के अवसरों के नाते जाने जाते हैं। समझना होगा कि सेवा क्षेत्र में रोजगार सृजन की संभावनाएं मैन्युफैक्चरिंग से बहुत कम होती है। नए अध्यादेश के संदर्भ में तीसरी आपत्ति यह है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की परिभाषा को बदलने के संदर्भ में जहां लघु उद्यमों में निवेश (संयंत्र और मशीनरी या उपस्कर में निवेश) की सीमा को पांच करोड़ से दोगुना कर 10 करोड़ रुपये की गई है, लेकिन मध्यम श्रेणी के उद्यमों के लिए यह 10 करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ कर दी गई है। यह कुछ अटपटा और अजीब तो लगता ही है, वास्तविक रूप से बड़ों को लाभ देने वाला है, क्योंकि वित्त, सरकारी खरीद आदि में अब बड़े उद्यमों की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी।

एक अन्य आपत्ति यह है कि जब टर्न ओवर यानी कारोबार का प्रश्न आता है तो उसमें से निर्यात के कारोबार को हटाकर देखा जाएगा। इस बात का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि यदि कोई बड़ा उद्यमी (या निर्यातक) जिसका संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में तो निवेश कम है, लेकिन बड़ी मात्र में निर्यात करता है तो वह देश के एमएसएमई के समकक्ष आ सकता है। उदाहरण के लिए यदि कोई फर्म एक हजार करोड़ रुपये का निर्यात करती है और 250 करोड़ रुपये का कारोबार देश में करती है, लेकिन संयंत्र और मशीनरी में निवेश 50 करोड़ रुपये या कम है, तो भी वह एमएसएमई की परिभाषा में आ जाएगी। यह अत्यंत अटपटा है।

[एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]