संजय गुप्त। बंगाल विधानसभा चुनावों में लगातार तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद ममता बनर्जी में यह जो आत्मविश्वास आया कि वह राष्ट्रीय पटल पर राजनीति कर सकती हैं, उसका वह इन दिनों खुलकर परिचय देने में लगी हुई हैं। इसी सिलसिले में पिछले दिनों उन्होंने मुंबई का दौरा किया और वहां राकांपा के शीर्ष नेता शरद पवार और शिवसेना के नेताओं से भेंट की। इस दौरान उन्होंने राहुल गांधी की विदेश यात्रओं पर कटाक्ष करते हुए यह भी कह दिया कि अब कहीं कोई संप्रग नहीं बचा है। उनकी इस टिप्पणी का सीधा मतलब है कि अब वह विपक्ष की अगुआई खुद करना चाह रही हैं। इसके लिए वह दूसरे राज्यों के अन्य दलों के नेताओं को तृणमूल कांग्रेस में शामिल करने में जुटी हैं।

अभी पिछले दिनों मेघालय में कांग्रेस के 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए। इसके पहले गोवा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार के कई नेता तृणमूल कांग्रेस में जा चुके हैं। ममता बनर्जी एक जुझारू नेता हैं। उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपना दल बनाया और फिर कांग्रेस के साथ-साथ वाम दलों को भी चुनौती दी। वह बंगाल की तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के पहले केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं। उनके पास अच्छा-खासा अनुभव है।

इस समय राकांपा के शरद पवार को छोड़ दें तो वह क्षेत्रीय दलों में से सबसे कद्दावर नेता हैं। यह सहज ही समझा जा सकता है कि वह संप्रग को इसलिए खारिज कर रही हैं, क्योंकि इस समय कांग्रेस का बुरा हाल है। वास्तव में कांग्रेस बीते छह-सात वर्षो से अपनी धार खो रही है। कांग्रेस की बदहाली का मुख्य कारण यह है कि पार्टी गांधी परिवार की चापलूसी करने को मजबूर है। भले ही इस समय राहुल गांधी कांग्रेस की कमान न संभाले हुए हों, लेकिन वह पर्दे के पीछे से उसी तरह उसका संचालन कर रहे हैं, जैसे अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में करते थे।

राहुल गांधी की अक्षमता के कारण ही कांग्रेस रसातल में जा रही है, लेकिन पार्टी के नेता ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। राहुल गांधी के समर्थक भले ही उन्हें विपक्ष की बड़ी ताकत बताएं, लेकिन ममता बनर्जी समेत कई नेता ऐसा मानने को तैयार नहीं। ममता के बाद उनके करीबी एवं चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी राहुल गांधी पर तंज कसते हुए कहा कि किसी को विपक्ष का नेतृत्व करने का दैवीय अधिकार नहीं हासिल। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस लगातार चुनाव हार रही है।

कांग्रेस 2014 के बाद 2019 के आम चुनाव तो हारी ही, कई राज्यों में भी उसे पराजय का सामना करना पड़ा। कांग्रेस की राजनीतिक जमीन पर या तो भाजपा या फिर क्षेत्रीय दल काबिज होते जा रहे हैं। राहुल गांधी के फैसले कांग्रेस को किस तरह कमजोर करने का काम कर रहे हैं, इसका ताजा प्रमाण है पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को किनारे कर नवजोत सिंह सिद्धू पर दांव लगाना, जो भाजपा से कांग्रेस में आए थे। पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन किए जाने के बाद से कांग्रेस बिखराव से ग्रस्त है।

नवजोत सिंह सिद्धू अपनी ही सरकार पर हमलावर हैं।

कांग्रेस के केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से ही गांधी परिवार ऐसे व्यवहार कर रहा है, जैसे किसी राजा-महाराजा से उसका राजपाट छीन लिया गया हो। राहुल गांधी की तरह प्रियंका गांधी की भी समस्त राजनीति मोदी विरोध पर केंद्रित है। उनके तौर-तरीके वैसे ही हैं, जैसे राहुल गांधी के। राहुल गांधी राजनीति में लंबा समय गुजार चुके हैं, लेकिन वह अभी भी अनुभवहीन नजर आते हैं। विडंबना यह रही कि संप्रग सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में उन्होंने सरकार में शामिल होकर अनुभव हासिल करने का अवसर जानबूझकर गंवा दिया। उनकी राजनीति का मकसद गरीबों को उनकी गरीबी का अहसास कराना या फिर उन्हें सरकारी मदद पर आश्रित रखना भर दिखता है। वह यह समझने को तैयार नहीं कि अब गरीब तबका अपने पैरों पर खड़ा होने को तैयार है। राहुल गांधी देश के उस मध्यवर्ग की भी अनदेखी कर रहे हैं, जो पहले से बहुत बड़ा हो चुका है और जिसकी अपेक्षाएं भी बढ़ती जा रही हैं। गरीब तबका हो या मध्यवर्ग, वह कांग्रेस की ओर आकर्षित नहीं हो पा रहा है तो उसकी घिसी-पिटी नीतियों के कारण। राहुल गांधी अपनी ही बनाई नीतियों से किस तरह पलट जाते हैं, इसका उदाहरण है कृषि कानूनों का विरोध। 2019 के लोकसभा चुनावों के अवसर पर जारी घोषणा पत्र में कांग्रेस ने ऐसे ही कानून बनाने का वादा किया था, लेकिन जब ऐसे कानून बन गए तो राहुल गांधी उनके खिलाफ खड़े हो गए। प्रधानमंत्री मोदी ने इन कानूनों को वापस लेकर उनके हाथ से यह मुद्दा भी छीन लिया।

कृषि कानूनों की वापसी को कांग्रेस भले ही अपनी जीत मान रही हो, लेकिन वह यह भूल रही है कि इन कानूनों का विरोध केवल ढाई राज्यों में ही था और वह भी केवल बड़े किसानों के बीच। शेष देश का किसान इन कानूनों के समर्थन में था। कांग्रेस को इसका नुकसान उठाना पड़े तो हैरत नहीं। बेहतर होगा कि कांग्रेस के जी-23 समूह के नेता आगे आएं और कांग्रेस को दिशा देने का काम करें।

जी-23 के नेताओं को हर कीमत पर यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी क्षेत्रीय दल का राष्ट्रीय स्तर पर उभार कांग्रेस की कीमत पर न होने पाए। कांग्रेस का कमजोर होते जाना लोकतंत्र के हित में नहीं। यह समय बताएगा कि ममता बनर्जी अपने नेतृत्व में विपक्ष को एकजुट करने में समर्थ होंगी या नहीं, लेकिन यह सामान्य बात नहीं कि क्षेत्रीय दल के रूप में तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय दल कांग्रेस को चुनौती दे रही है।

तमाम आत्मविश्वास के बाद भी ममता को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में भाजपा के बाद कांग्रेस का ही जनाधार है। जहां उसे देश के हर हिस्से में वोट मिलते हैं, वहीं तृणमूल कांग्रेस का बंगाल के बाहर कोई जनाधार नहीं। इसके अलावा ममता भी राहुल की तरह मोदी विरोध की राजनीति कर रही हैं। अभी यह भी नहीं पता कि देश के ज्वलंत मसलों पर उनकी क्या राय है? इन मुद्दों पर संसद के भीतर और बाहर तृणमूल कांग्रेस नेताओं के भाषण खोखले ही अधिक दिखते हैं। यदि ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ना चाहती हैं तो फिर उन्हें न केवल राष्ट्रीय मसलों पर अपनी दृष्टि विकसित करनी होगी, बल्कि उससे जनता को सहमत भी करना होगा।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)