[बिंदू डालमिया]। कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में सरकार गठन के बाद विपक्षी खेमे में उत्साह बढ़ा है। विपक्षी राजनीतिक दल भाजपा के खिलाफ किसी मोर्चे को आकार देने की कोशिश में हैं। मोदी सरकार के चार साल पूरे होने के बाद विपक्ष की सक्रियता बढ़ना स्वाभाविक है। देश न सही, देश की राजनीति एक तरह से चुनावी वर्ष में प्रवेश कर गई है। फिलहाल जनता के सामने यही विकल्प है कि वह या तो विपक्षी मोर्चे की ओर जाए या फिर मोदी सरकार पर फिर से भरोसा करे।

इतिहास बताता है कि हर बार जब भी ऐसे प्रयोग हुए हैं यानी वैकल्पिक मोर्चे का निर्माण हुआ है तो वह विफल ही रहा है। हर बार हर गठजोड़ बिखराव का ही शिकार हुआ है। आपातकाल के बाद 1977 में जब जनता पार्टी बनी तो ऐसा लगा था कि विपक्ष ने एकजुट होना सीख लिया है, लेकिन चुनाव जीतने और सरकार गठन के साथ ही जनता पार्टी में बिखराब शुरू हो गया। विपक्षी एकता का प्रयोग कुछ ही महीनों में नाकाम हो गया। इसके बाद 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा बना। यह भी ज्यादा नहीं चला। इस एक और विफल प्रयोग के बाद 1996 में संयुक्त मोर्चे ने आकार लिया। इसका भी वही हश्र हुआ जैसा जनता पार्टी और राष्ट्रीय मोर्चे का हुआ था।

कम से कम इतिहास हमें यह बताने के लिए काफी है कि जब भी देश में ऐसे गठजोड़ हुए तब देश ने राजनीतिक अनिश्चितता और अस्थिरता का दौर झेला। विपक्षी एकता के ऐसे अतीत के बाद यह फैसला जनता को ही करना है कि वह विपक्षी दलों को एक और मौका देने के लिए तैयार है या नहीं? मोदी सरकार चार साल के अपने शासन को उपलब्धियों भरा मान रही है। उसका दावा है कि उसने बीचे चार सालों में साफ नीयत से सही विकास किया है, लेकिन जनता में इसे लेकर मतभेद दिखता है कि अच्छे दिन आ गए या नहीं? यह स्वाभाविक है, क्योंकि अच्छे दिन के बारे में हर किसी की अपनी अलग धारणा है। कर्नाटक में जैसा अवसरवादी गठजोड़ आनन-फानन बना उसके बाद क्षेत्रीयता का उभार नए सिरे से शुरू हो सकता है। क्षेत्रीय दलों के मेल-मिलाप में तब कोई हर्ज नहीं जब उनकी नीतियां संघीय चरित्र से मेल खाएं। देश में जैसे हालात हैं उन्हें देखते हुए केंद्र में एक मजबूत सरकार होनी आवश्यक है। मजबूत केंद्रीय सत्ता का अभाव राष्ट्रीय हितों के लिए ठीक नहीं। मोदी सरकार ने यह साबित किया है कि एक मजबूत सरकार कठोर फैसले लेने का जोखिम उठा सकती है। ध्यान रहे कि एक समय मनमोहन सिंह ने घपलों-घोटालों पर गठबंधन सरकार की मजबूरियों का रोना रोया था।

अगर किसी गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार हों तो ऐसी सरकार अपने विरोधाभासों से ही जूझती रहेगी। कर्नाटक में जिस तरह तीसरे नंबर वाली पार्टी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ली उसी तरह यदि अगले आम चुनाव के बाद केंद्र में भी कुछ हुआ तो यह ठीक नहीं होगा। कर्नाटक में कुमारस्वामी सरकार इस एकमात्र मकसद से बनी कि भाजपा को सत्ता से दूर रखना है। यदि ऐसे ही किसी मकसद से केंद्र में भी कोई कमजोर दल सरकार बना लेता है तो उसकी क्षमता के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। कर्नाटक जैसी सरकार केंद्र में बनी तो वह या तो कठपुतली सरकार होगी या फिर वह रिमोट कंट्रोल से चलेगी। ध्यान रहे कि झारखंड में निर्दलीय मधु कोड़ा सरकार बना चुके हैं। इसी तरह 40 सांसदों वाले चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जो नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं उनमें से कुछ परिवारवाद की राजनीति के लिए जाने जाते हैं तो कुछ येन-केन प्रकारेण अकूत संपत्ति बटोरने के लिए।

हाल के एक सर्वे से देश के मूड के बारे में बताया गया है कि अब भी जनता का झुकाव काफी हद तक सत्ताधारी पार्टी की ओर है। इससे मोदी सरकार राहत महसूस कर सकती है, लेकिन सर्वे में यह भी कहा गया है कि जनता मजबूत विपक्ष चाहती है। चूंकि आम चुनाव अभी दूर हैं इसलिए इस सर्वे को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता, लेकिन इतना तो है ही कि मोदी सरकार को अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को प्रभावी ढंग से अमल करने पर और ध्यान देना चाहिए। अगले छह महीने योजनाओं की डिलिवरी के लिहाज से काफी अहम होंगे। मोदी सरकार को घरेलू निवेश बढ़ाने और रोजगार सृजित करने पर भी विशेष ध्यान देना होगा।