दिव्य कुमार सोती। अमेरिकी संसद के निचले सदन की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्र को लेकर चीन ने पूर्वी एशिया में जिस तरह सैन्य तनाव को जन्म दे दिया है, वह यही दर्शाता है कि उसे ऐसा करने के लिए किसी बहाने की तलाश थी। वैसे तो चीन का सरकारी मीडिया पहले से ही धमकी दे रहा था कि अगर नैंसी ने ताइवान आने का प्रयास किया, तो वह उनके विमान को निशाना बनाएगा। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अमेरिकी राष्ट्रपति को फोन पर आग से न खेलने की चेतावनी भी दी थी, पर नैंसी अमेरिकी और ताइवानी वायुसेना के सुरक्षा घेरे में ताइपे पहुंचीं। इस दौरान चीनी सेना ने न तो कोई मिसाइल दागी और न नैंसी के हवाई काफिले के पास फटकने की कोशिश की।

नैंसी के ताइपे जाने के पहले चीनी सेना ने ताइवान के चारों ओर सैन्य अभ्यास की घोषणा भी की, पर उसके आरंभ होने से पहले ही नैंसी अपना दौरा पूरा कर चुकी थीं। इसके बाद चीनी सेना ने कई मिसाइलें इस प्रकार दागीं कि वे ताइवान की वायु सीमा से होकर जापान के इकोनामिक जोन में जाकर गिरीं। ध्यान रहे कि ताइवान पर दावा करने के साथ ही चीन जापान के भी कई द्वीपों को अपना बताता है।

नैंसी पेलोसी ने चीन की धमकियों के बावजूद ताइवान जाकर चीनी दादागीरी की सीमाएं स्पष्ट करने के साथ यह भी सिद्ध किया कि शी चिनफिंग की ओर से खुद को दूसरे माओ त्से तुंग के रूप में स्थापित करने का प्रयास इतना आसान नहीं। यदि अमेरिका चीनी धमकियों के चलते नैंसी का दौरा रद करता तो चीन कल को ऐसी ही धमकियां भारतीय नेताओं के अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों के दौरे को लेकर दे सकता था। नैंसी के दौरे के बाद चीन जिस प्रकार ताइवान स्ट्रेट और दक्षिण चीन सागर में तनाव बढ़ा रहा है, उसमें कुछ भी नया नहीं है।

चीन का फिर वहीं ड्रामा

चीन की दादागीरी के चलते ताइवान इसी तरह के संकट का सामना 1954-55, 1958, 1995-96 में भी कर चुका है। 1954-55 और 1958 में तो चीनी सेना ने ताइवान के कई द्वीपों पर कब्जा करने की असफल कोशिश भी की थी। दूसरे संकट के समय जब अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने ताइपे का दौरा किया था तो चीनी सेना ने ताइवान के किनमेन द्वीप पर एक लाख से अधिक गोले बरसाए थे। तब ताइवान के साथ हवाई झड़पों में चीनी वायुसेना को 51 लड़ाकू विमान गंवाने पड़े थे। पहले के दोनों ही संकटों के दौरान अमेरिकी सेना ने चीन के विरुद्ध परमाणु हथियारों के प्रयोग की सिफारिश तक कर दी थी। इसके चलते माओ को अपने कदम वापस खींचने पड़े थे। 1995-96 के दौरान ताइवान को लेकर चीन ने इसी तरह का हंगामा इसलिए खड़ा किया था, क्योंकि ताइवान के राष्ट्रपति को एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए वीजा दे दिया गया था। तब भी चीन ने मिसाइलें दाग कर खूब सैन्य तनाव बढ़ाया था, जिसके जवाब में अमेरिका ने अपने सातवें नौसैनिक बेड़े को ताइवान स्ट्रेट में भेज दिया था। बाद में पता चला कि चीन द्वारा दागी गईं मिसाइलें बिना किसी विस्फोटक के थीं। इस बार भी इसी सबकी पुनरावृत्ति होती दिखाई दे रही है।

ताइवान, चीन के भौगालिक अभिशाप का हिस्‍सा

ताइवान चीन के उस भौगोलिक अभिशाप का हिस्सा है, जो उसे एक नौसैनिक शक्ति के रूप में पैर नहीं फैलाने देता। तमाम भौगोलिक विस्तार के बावजूद चीन के पूर्व में ही समुद्र है और तट से कुछ दूरी पर ही ताइवान है, जिसे अमेरिका स्थायी विमान वाहक पोत की तरह उपयोग कर रहा है। ताइवान के आगे जापान है, जहां अमेरिकी सेना तैनात है और जो अपने पूर्व पीएम शिंजो एबी की हत्या के सदमे से उबर रहा है। चीन की आक्रामक नीतियों के चलते जापान में राष्ट्रवादी विचारधारा का उदय हो रहा है, जो देश के शस्त्रीकरण के पक्ष में है। यह भारत के हित में ही है, क्योंकि चीन कितनी भी बड़ी नौसेना बनाए, वह इस चक्रव्यूह में फंसी रहेगी। अभी तक चीन का दागा हुआ एक गोला भी ताइवान की भूमि पर नहीं गिरा है, लेकिन अमेरिका ने इस समुद्री क्षेत्र में व्यापक नौसैनिक शक्ति के प्रदर्शन की घोषणा कर दी है। ऐसे में खतरा यह है कि शी चिनफिंग या तो अपनी इज्जत बचाने के लिए ताइवान के कुछ छोटे द्वीपों पर कब्जा करने की कोशिश करेंगे या फिर भारतीय मोर्चे पर ध्यान लगाएंगे। ध्यान रहे कि जून से ही चीनी लड़ाकू विमान लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा के बहुत पास उड़ान भर रहे हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि भारत को इस क्षेत्र में एस-400 मिसाइल प्रणाली की दूसरी बटालियन को भी तैनात करना पड़ रहा है।

भारतीय मोर्चे पर किसी चीनी शरारत की आशंका!

ताइवान के खिलाफ कुछ न कर पाने की स्थिति में भारतीय मोर्चे पर किसी चीनी शरारत की आशंका को इसलिए नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि चीन के लोग इंटरनेट मीडिया पर अपनी सेना का मजाक उड़ा रहे हैं। इस सबके बीच नई दिल्ली में चीनी दूतावास अति सक्रिय है। वह ताइवान को लेकर बयान पर बयान जारी कर रहा है और भारत को याद दिला रहा है कि किस तरह वह शुरू से ही ‘वन चाइना’ नीति के प्रति प्रतिबद्ध रहा है। सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि ‘वन चाइना’ नीति का अर्थ चीन में एकदलीय कम्युनिस्ट व्यवस्था का समर्थन नहीं है। एक समय ताइवान के लोग चीन का ही हिस्सा थे। उन्हें माओ ने बंदूक के दम पर देश से निकाला था, क्योंकि वे लोकतंत्र में यकीन करते थे।

दूसरी अहम बात यह है कि जब नेहरू सरकार ने ‘वन चाइना’ नीति का समर्थन किया था, तब से लेकर आज तक भारत के तमाम भूभाग पर चीनी दावे और कब्जे बढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसा ही दक्षिण चीन सागर के देशों और जापान के साथ भी हो रहा है। क्या चीन जिस-जिस क्षेत्र पर दावा जताता रहेगा, उसे ‘वन चाइना’ नीति के तहत उसका हिस्सा मान लिया जाएगा? प्रश्न यह भी है कि क्या चीन ने ‘वन इंडिया’ की नीति में विश्वास जताया है? वह कश्मीर के मामले में न केवल पाकिस्तान के साथ है, बल्कि उसका एक हिस्सा उससे हासिल कर चुका है। दोनों भारतीय जमीन पर आर्थिक गलियारा भी बना रहे हैं। भारत यह भी नहीं भूल सकता कि पाकिस्तान के कई आतंकी सरगनाओं पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने में चीन किस तरह रोड़े अटकाता रहा है। ऐसे में इसका कोई औचित्य नहीं कि भारत ‘वन चाइना’ नीति को लेकर प्रतिबद्धता जताए।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)