[हर्ष वी पंत]। चंद रोज पहले जब ये खबरें आईं कि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर पसरे तनाव को दूर करने की दिशा में कदम बढ़ाने को लेकर भारत और चीन में सहमति बन गई है तो इससे मतभेदों को विवाद की शक्ल न देने को लेकर दोनों पक्षों की प्रतिबद्धता की ही पुष्ट हुई। स्थिति पूरी तरह स्पष्ट होने से पहले ही भारत में वर्ग किलोमीटर और इंचों जैसी मापों को लेकर छिद्रान्वेषण शुरू हो गया है।

यह बात और है कि उनमें से अधिकांश नक्शे पर गलवन घाटी और हॉट स्प्रिंग्स जैसे इलाकों के बीच अंतर नहीं कर पाएंगे, लेकिन जिस विश्वास के साथ दोनों पक्ष अपने-अपने दावे-प्रतिदावे कर रहे हैं, वह उल्लेखनीय अवश्य है। यदि हम अपने दलगत-वैचारिक आग्रह से ऊपर उठकर देख सकें तो पाएंगे कि न केवल भारत-चीन संबंधों का तानाबाना पूरी तरह बदल गया है, बल्कि वैश्विक राजनीतिक वास्तविकताएं तेजी से उस दिशा में बढ़ रही हैं जिसके बारे में कुछ महीने पहले चुनिंदा लोगों ने ही कल्पना की होगी।

चीन का छल-कपट दशकों से चला आया है

लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना की शरारत और उस पर भारतीय प्रतिकार के परिणामस्वरूप इस संकट के बाद तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है कि एलएसी पर जमीनी हकीकत बदल जाएगी। सरहद पर चीन की चालबाजियां और छल-कपट तो दशकों से चला आया है, लेकिन भारत उन तिकड़मों के आगे महज एक दर्शक मात्र बना रहता था। जब अतीत की गलतियों के परिणामों की प्रेतछाया हमारा पीछा कर रही हैं तो अब तमाम लोग दिखावटी आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। आज का सबसे बड़ा हासिल यही है कि भारत ने आखिरकार यह संकेत दे दिए कि वह उन पुरानी धारणाओं को खारिज करने से गुरेज नहीं करेगा जो उसकी चीन नीति का आधार रही हैं। वैसे यह प्रक्रिया पिछले महीने के गलवन संकट से पहले ही शुरू हो गई थी।

भारत अपनी रणनीति बदल रहा है

चीन की महत्वाकांक्षी बीआरआइ परियोजना पर भारत का मुखर विरोध, क्वॉड की संकल्पना, सामुद्रिक आवाजाही पर स्पष्ट रुख और सीमा पर विकसित किए जा रहे बुनियादी ढांचे से यही जाहिर हुआ है कि भारत अपनी रणनीति बदल रहा है। इसके बावजूद दोनों देशों के बीच शक्ति के अंतर का यही आशय है कि नई दिल्ली चीन को इस तरह साधे कि उसमें संवाद, सहभागिता एवं समायोजन की संभावना बनी रहे। डोकलाम से गलवन तक की यह राह काफी कठिन रही है। इसने नई दिल्ली को स्पष्ट किया कि बीजिंग के औपचारिक या अनौपचारिक तौर-तरीके अपने आप में अंतहीन छोर के समान हैं। लद्दाख की गलवन घाटी में भारतीय सैनिकों का बलिदान वास्तव में वह कीमत है जो हमें चीनी विस्तारवाद का वास्तविक स्वरूप समझने के लिए चुकानी पड़ी।

विकट स्थिति का सामना कर रहा है संसार

इस समय भारत और समग्र संसार बड़ी विकट स्थिति का सामना कर रहा है। मौजूदा वैश्विक ढांचे की जड़ें हिल रही हैं। यह झटका किसी सामान्य शक्ति के उभार से नहीं लग रहा है। हमारा साबका एक ऐसे विस्तारवादी तानाशाह देश से हो रहा है जो अपने वर्चस्व और छवि गढ़ने के लिए अंतरराष्ट्रीय तंत्र को तार-तार करने पर तुला है। ऐसे देश के साथ कुछ सामरिक समझौते तो हो सकते हैं, लेकिन रणनीतिक समरूपरता की कोई आशा नहीं की जा सकती, जिसके लिए हमारे नीति निर्माता काफी लंबे समय से प्रयास कर रहे हैं। पिछले कुछ हफ्तों के दौरान भारत की इस मानसिकता में बदलाव आता दिखा है।

इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं

व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान चीन में कम्युनिस्ट शासन के बुनियादी स्वरूप को नहीं बदलेगा। प्रमुख रणनीतिक क्षेत्रों, सरकारी निविदाओं और उच्चस्तरीय तकनीक से चीनी कंपनियों को बाहर रखने का नई दिल्ली का निर्णय चीन से व्यापार एवं तकनीकी अलगाव की एक लंबी प्रक्रिया की शुरुआत है। वास्तविक नियंत्रण रेखा की तरह यह सिलसिला भी लंबा होगा, परंतु इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प भी नहीं दिखता। हालिया घटनाओं के झटके से हमारी राजनीतिक बिरादरी को भी यह लगना चाहिए कि उसे चीन की चुनौती को लेकर मुखरता से एक सुर में बोलने की जरूरत है।

राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन और उससे भी बढ़कर गत सप्ताह उनका लद्दाख दौरा इस नए संकल्प का स्पष्ट संकेत है। उन्होंने भारत की पारंपरिक नारेबाजी से इतर स्पष्ट रूप से कहा कि शांति की भारत की चाह को उसकी कमजोरी के रूप में न देखा जाए और भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। उन्होंने दो-टूक लहजे में कहा कि विस्तारवाद को सीधे-सीधे जवाब दिया जाएगा। इस समय जो व्यापक वैश्विक परिदृश्य उभर रहा है वह भी भारत के पक्ष में है। बीते कुछ वर्षों में नरेंद्र मोदी ने जो सक्रिय कूटनीतिक अभियान चलाया है उससे वह आड़े वक्त में वैश्विक शक्तियों का समर्थन मांगने के साथ ही उसे प्राप्त भी कर सकते हैं।

दुनिया की बड़ी शक्तियां भारत के पाले में

चीन की करतूतों से यह स्थिति और वास्तविक बनती जा रही है। जहां अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर में अपने दो विमान वाहक पोत तैनात कर दिए हैं वहीं भारत- चीन संबंधों में तनाव के दौरान जापान द्वारा भारत के साथ नौसैनिक अभ्यास दर्शाता है कि दुनिया की बड़ी शक्तियां किस तरह भारत के पाले में हैं। यहां तक कि हाल के दौर में चीन के साथ गहरे संबंध गांठने वाले रूस ने भी भारत के पक्ष में बात रखी। यह जहां वैश्विक वास्तविकताओं में बदलाव का सूचक है वहीं इससे नई दिल्ली की वह मंशा भी जाहिर होती है जिसमें उसने शेष विश्व के समक्ष स्पष्ट कर दिया कि वह अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है।

बहरहाल यह समाप्ति का पड़ाव नहीं, बल्कि एक नए दौर की शुरुआत है जहां सक्रियता-सहभागिता की शर्तें छोटी-बड़ी शक्तियों द्वारा निर्धारित की जा रही हैं। नई दिल्ली को भी चीन के साथ अपने संबंधों के पुनर्संयोजन को तार्किक परिणति प्रदान करनी होगी। चीन के हालिया कदमों ने भारत के लिए विकल्प स्पष्ट कर दिए हैं। भारतीय नीति निर्माता या तो चीन के साथ शक्ति संतुलन स्थापित करने की दिशा में कुछ क्रांतिकारी कदम उठाएं या फिर अगले डोकलाम या गलवन संकट के उभार लेने तक अपने पूर्वर्वितयों का अनुसरण करते रहें।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)