तुफैल अहमद

परिवार व्यक्ति को संरक्षण वाला परिवेश देता है। परवरिश से लेकर सेहत की देखभाल तक परिवार के जिम्मे होता है यानी किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवार का बेहद सकारात्मक योगदान है। हालांकि इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जिससे इंसान को व्यक्तिगत तौर पर नुकसान भी हो रहा है। प्राचीन काल में लोग गुफाओं और जंगलों में रहा करते थे। भोजन की तलाश में उन्होंने साथ रहना सीखा और महिलाएं एवं पुरुष एक इकाई के तौर पर रहने लगे। पुरुष आजीविका अर्जन में जुटे तो महिलाओं ने घर में रहकर खाना पकाने और बच्चों की देखभाल जैसे काम अपने जिम्मे ले लिए। इसके साथ ही परिवार नामक संस्था का उदय हुआ। पहले परिवार का अर्थ संयुक्त परिवार होता था, जहां सदस्यों में एक साथ तीन से चार-पीढियां रहा करती थीं। चाचा, ताऊ और उनके बच्चे भी साथ में रहते थे। इसे कुटुंब कहते जो परिवार से भी बड़ी इकाई होती है। समय के साथ परिवार के स्वरूप में परिवर्तन आया है। अब परिवार में मुख्य रूप से माता-पिता और बच्चे ही रहते हैं। कम से कम शहरी इलाकों में तो यही देखने को मिलता है। इस एकल परिवार में भी बच्चों का दादा-दादी से संपर्क तो होता है, लेकिन नियमित नहीं।


वैश्विक स्तर पर एकल परिवार मानक माने जाते हैं। वहीं भारत में आज भी संयुक्त परिवार को ही प्रमुखता दी जाती है, भले ही दादा-दादी परिवार से अलग ही क्यों न रहते हों। अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी समाजों में बच्चों की उम्र 18 साल होते ही उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए आजादी दे दी जाती है कि वे पसंदीदा राह चुनें। चिकित्सा विज्ञान में तरक्की के चलते अब नि:संतान दंपती किसी डोनर की मदद से भी बच्चे को जन्म दे सकते हैं। इस तरह के बच्चों को जन्म देने का कानून बनाने वाला ब्रिटेन पहला देश है जिसने 2015 में यह कानून बनाया। आने वाले दिनों में इससे कई नैतिक एवं कानूनी मुद्दे खड़े हो सकते हैं। विवाह ऐसा रिश्ता है जो परिवार को जोड़कर रखता है। इसमें भी बदलाव आ रहा है। पिछले साल दुनियाभर में 14 करोड़ बच्चों का जन्म हुआ जिनमें से 2.1 करोड़ या कहें कि 15 प्रतिशत बच्चे विवाह संबंध से नहीं हुए थे। यूरोप, अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में बच्चे पैदा करने के लिए लोग शादी करना जरूरी नहीं समझते। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 25 ऐसे देश हैं जहां 60 प्रतिशत बच्चे बिना शादी के पैदा होते हैं तो भारत और चीन जैसे 25 देश ऐसे भी हैं जहां विवाह के बिना पैदा होने वाले बच्चों की तादाद बेहद कम या एक फीसद से नीचे है। दूसरे देशों में यह स्थिति धीरे-धीरे बदली। 1964 में अमेरिका में बिना विवाह पैदा होने वाले बच्चों की तादाद 10 प्रतिशत से भी कम थी जो 2014 में बढ़कर 40 फीसद हो गई। ब्रिटेन में भी 1964 के दौरान का 10 फीसद से भी कम का आंकड़ा अब लगभग 50 फीसद हो गया है। फ्रांस, नॉर्वे, डेनमार्क और बेल्जियम सहित यूरोप में आधे बच्चे बिना विवाह के पैदा हो रहे हैं। जर्मनी में पैदा होने वाला प्रत्येक तीसरा बच्चा बिन विवाह के ही जन्म ले रहा है। चिली, कोस्टारिका और मेक्सिको में 65 प्रतिशत बच्चे भी ऐसे ही पैदा हो रहे हैं जिनकी परवरिश एकल माता द्वारा की जा रही है।
भारत में भी इसी तरह का रुझान देखा जा सकता है। शहरों में खासतौर से बेहतर पदों पर काम कर रहे युवा शादी से तो कन्नी काट रहे हैं, लेकिन उन्हें बच्चों से गुरेज नहीं है। येल विश्वविद्यालय में प्रकाशित जोसेफ कैमी की रिपोर्ट के अनुसार, कई मामलों में देखा गया है कि विवाह के बिना पैदा बच्चों को कई मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं और परवरिश के दौरान उन्हें स्वास्थ्य और विकास के लिए जरूरी सहयोग एवं संरक्षण नहीं मिल पाता। भारत में अभी तक ऐसे हालात नहीं बने हैं। परिवार में गंभीर समस्याएं भी होती हैं। जन्म लेने के बाद ही हम हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या ब्राह्मण, दलित, तमिल, बंगाली, शिया और सुन्नी और भी न जाने कितनी पहचानों के खाके में बंट जाते हैं। आदर्श रूप में तो धरती पर इंसान ही जन्म लेता है और उसे केवल इंसान ही बने रहना चाहिए, परंतु परिवार उसे विभिन्न धार्मिक समूहों में बांट देता है। हिंदू या मुस्लिम धर्म में जन्म लेने के बाद हम उन धर्मों के बचाव में ही जुट जाते हैं। यहां तक कि धर्म के नाम पर विरोधी धर्म के व्यक्ति की जान तक ले लेते हैं। इस तरह देखें तो धार्मिक वैमनस्य और जाति आधारित भेदभाव के लिए परिवार ही जिम्मेदार है।
अगर हम हिंदू परिवार में जन्म लेते हैं तो गाय को पवित्र मानते हैं और गाय खाने वाले मुसलमानों से नफरत करने लगते हैं। अगर मुस्लिम परिवार में जन्मे तो सुअर पर अपनी नफरत उतारते हैं। अगर सैयद परिवार में पैदा हुए तो निचली जाति के मुस्लिम परिवार में शादी नहीं कर सकते। यही बात ब्राह्मण और दलितों के बारे में भी लागू होती है। इंसान एक तरह से परिवार का बंधक बन गया है। परिवार व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति को भी कुंद कर रहा है। भारत में तो यह समस्या और भी गंभीर है। हमारे तमाम युवाओं ने अपना दिमाग धार्मिक नेताओं को भेंट चढ़ा दिया है। चूंकि हमारे दिमाग ने इन धार्मिक नेताओं के आगे समर्पण कर दिया है तो हम न तो कुछ नया ईजाद कर सकते हैं और न ही ज्ञान को मूर्त रूप दे सकते हैं। याद रहे कि आयुर्वेद की खोज हमने नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों ने की थी, मगर वह तो बहुत पुरानी बात हो गई। बीते 2,000 वर्षों में किसी भारतीय ने बिजली, कार, रेल, इंटरनेट, गूगल या फेसबुक जैसी किसी भी चीज को नहीं खोजा। न ही किसी भारतीय ने जावा जैसी भाषा या मंगल पर जाने के लिए मशीन बनाई। यह सही है कि हम मंगल पर यान भेज सकते हैं, लेकिन जिस तकनीक से उसे भेजेंगे वह किसी और की होगी। असल में हम अमेरिका की ही नकल करते हैं।
गेहूं उगाना बड़ी बात नहीं, बड़ी बात थी उसे पहली बार उगाना और दूसरे किसानों को उसकी तकनीक सिखाना। उसके बाद बस दोहराव ही है और इस समय परिवार यही काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि भारतीय युवा विशेषकर लड़कियां परिवार की इस नकारात्मक भूमिका को समझते हुए अपने दिमाग को बेड़ियों में जकड़ने वाले किसी भी विचार को धता बताते हुए एक नई सभ्यता को जन्म दें जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने स्वतंत्र आकाश में विचरण कर सके।
[ लेखक वाशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं ]