विचार पर्याप्त नहीं होता। उनका क्रियान्वयन ही परिणामदायी होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बातूनी कहने वाले लोग निराश हो रहे हैं। प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वही करके भी दिखा रहे हैं। मोदी सरकार ने आर्थिक सुधारों के काम में नई छलांग लगाई है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए तमाम नियमों और शर्तों में ढील देने का संदेश सारी दुनिया में गया है। इस फैसले से सरकार ने आर्थिक सुधारों की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की है। ऊंची विकास दर के बावजूद सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सहित सरकार की सभी नीतियों और संकल्पों का क्रियान्वयन प्रशासन तंत्र को ही करना है। प्रशासन तंत्र ही लोक कल्याणकारी कामों का लाभ आमजनों तक ले जाता है। मोदी ने बेशक प्रशासन तंत्र को सक्रिय किया है। कामटालू प्रशासनिक लत भी घटी है, पर प्रशासन तंत्र की प्रकृति और प्रवृत्ति में मूलभूत बदलाव नहीं आया है। प्रधानमंत्री नीति और निर्णयों में तेज रफ्तार गतिशील हैं। वह सारी कार्यसंस्कृति बदल रहे हैं। बावजूद इसके प्रशासन तंत्र की गति ढीली है। राज्यों का प्रशासन केंद्र के निर्णयों और कार्यक्रमों के प्रति उदासीन रुख अपना रहा है। सभी सुधारों का अंतिम उपकरण प्रशासन तंत्र है। सो आर्थिक सुधारों के साथ प्रशासनिक सुधारों की भी फौरी आवश्यकता है।

उत्कृष्ट, निष्ठावान और कार्यकुशल प्रशासन आधुनिक भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। हमारे संविधान तंत्र में सरकारें जवाबदेह हैं और जनप्रतिनिधि भी, लेकिन प्रशासन तंत्र की कोई जवाबदेही नहीं। प्रशासन तंत्र की ढिलाई और भ्रष्टाचार का खामियाजा निर्वाचित सरकारों को भुगतना पड़ता है। प्रशासन तंत्र संवेदनहीन और निष्क्रिय है और सरकारें सक्रिय। भारतीय प्रशासन का इतिहास पुराना है। यहां के प्राचीन प्रशासन की प्रशंसा फाह्यान ने भी शासन प्रबंध सुव्यवस्थित, उदार और सौम्य बताकर की है। मौर्यकाल (340 ईसा पूर्व) में भी सुगठित राष्ट्रनिष्ठ शासन तंत्र था। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में प्रशासन तंत्र का खूबसूरत विवरण है। सिंधुघाटी सभ्यता (2200 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक) के प्रशासन को ह्वीलर और पिगाट जैसे विद्वानों ने भी सुगठित बताया है। अंग्रेजी शासकों ने अपने साम्राज्य को मजबूत करने का प्रशासन तंत्र बनाया था। अंग्रेज सरकारों ने भी समय-समय पर प्रशासनिक सुधारों के लिए कई आयोग बनाए थे। प्रशासन ही सत्ता चलाने का उपकरण था। वे प्रशासनिक सुधारों पर सजग थे, लेकिन स्वतंत्र भारत में लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस ने प्रशासनिक सुधारों पर कोई ठोस काम नहीं किया। प्रशासन परम स्वतंत्र होने की स्थिति का उपभोग करता आया है।

संविधान की उद्देशिका और नीति निदेशक तत्व सरकार और प्रशासन तंत्र के मार्गदर्शी हैं। वे सुस्थापित विधि नहीं, बल्कि सरकार और प्रशासन के कामकाज की आत्मा है। प्रशासन तंत्र इन सूत्रों से नहीं जुड़ता। स्वतंत्र भारत (1951) में प्रशासन की कार्यशैली पर एनडी गोरेवाला की रिपोर्ट 'लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन' नाम से आई। रिपोर्ट के अनुसार कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नियोजन नहीं कर सकता। इस रिपोर्ट में अनेक उपयोगी सुझाव थे, लेकिन क्रियान्वयन नहीं हुआ। 1952 में क्केंद्र ने प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए पाल एपिलबी की नियुक्ति की। उन्होंने 'भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदनÓ प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में अनेक महत्वपूर्ण सुझाव थे, लेकिन जड़ता नहीं टूटी। स्वाधीनता के 19 बरस बाद पहला प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) बना। मोरारजी देसाई अध्यक्ष थे, वह मंत्री हो गए। आयोग ने हनुमंतैया की अध्यक्षता में काम बढ़ाया। आयोग का पहला प्रतिवेदन नागरिकों की व्यथा दूर करने की समस्या शीर्षक से 20 अक्टूबर 1966 में आया। प्रशासन बनाम आमजन की व्यथा से पूरा देश पीडि़त है, लेकिन इस महत्वपूर्ण बिंदु की उपेक्षा हुई। आयोग ने केंद्रीय प्रशासन और राज्य प्रशासन पर अलग-अलग सुझाव दिए। रिपोर्ट में आर्थिक नियोजन को आर्थिक प्रशासन के रूप में पहचानने के भी उल्लेख थे।

प्रशासन का रूप रंग और कार्य व्यवहार जस का तस बना रहा। पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट (1970) के 35 साल बाद सितंबर 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग बना। मोइली ने 2009 में पद त्यागा। इस आयोग ने भी केंद्रीय प्रशासन के ढांचे के साथ राज्य प्रशासन पर भी सिफारिशें कीं। जिला प्रशासन को सक्षम बनाने की भी महत्वपूर्ण संस्तुतियां कीं। इस रिपोर्ट में आतंकवाद की चुनौती पर भी सुझाव थे। मनरेगा के क्रियान्वयन की भी शल्य परीक्षा थी। समूची रिपोर्ट पर मंत्रियों के समूह को विचार का काम सौंपा गया। आयोग की सिफारिशों के अंत में कहा गया था, सरकार के दृष्टिकोण में आवंटन आधारित विकास कार्यक्रमों से पात्रता आधारित विकास कार्यक्रमों की ओर अंतरण हुआ है। सभी क्षेत्रों में विकास पर जोर है। केंद्रीय बजट बढ़ा है। इस सबके कारण संस्थागत प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण जरूरी है। यहां विकास के सभी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए प्रशासनिक प्रबंधन पर जोर है, लेकिन असली दिक्कत दूसरी है। सभी कार्यक्रमों को अंतिम परिणति तक पहुंचाने वाले प्रशासन तंत्र की प्रथम वरीयता परिणाम देना नहीं, अपितु अपनी सेवा सुरक्षा है।

संविधान विशेषज्ञ मंत्रिपरिषद को अस्थाई और प्रशासन को स्थाई सरकार कहते हैं। यह उचित भी है। सरकारें दंगा-फसाद नहीं चाहतीं, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन की शक्ति प्रशासन में निहित है। सरकारें पेयजल की समस्या पर बजट देती हैं। हैंडपंप या अन्य व्यवस्था प्रशासन के हाथ में है। उप्र सरकार के अंतिम बजट के दौरान पहले बजट का बड़ा भाग खर्च नहीं हुआ। प्रशासन तंत्र चाहता तो खर्च हो जाता। योजनाएं बनती हैं, क्रियान्वित नहीं होतीं। उत्तरदायित्व किसका? प्रधानमंत्री ने युवा रोजगार की तमाम योजनाएं घोषित कीं, लेकिन तमाम बैंक अधिकारियों ने बेरोजगारों को टाल दिया। कई राज्यों में प्रशासन का भयावह राजनीतिकरण हुआ है।

प्रधानमंत्री विलक्षण स्वप्नद्रष्टा हैं। केंद्र की नीति और नीयत की प्रशंसा हो रही है। नीति और नीयत को क्रियान्वित करने वाले मुख्य उपकरण प्रशासन की जड़ता और यथास्थितिवादी चरित्र में बदलाव का भी यही सही समय है। प्रशासन को नए आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन का सक्रिय उपकरण बनाना ही होगा। इसी तरह समाज कल्याण से जुड़ी योजनाओं, कृषि, स्वरोजगार और गरीबी से संघर्ष के काम में ढिलाई करने वाले प्रशासन तंत्र की मनोदशा में बदलाव जरूरी हो गया है। भारत की चुनौतियां सर्वथा नई हैं। नई चुनौतियों के बरक्स प्रशासन के सामने भी चुनौतियों का नया स्वरूप आया है। इसलिए भारत को अब तीसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की आवश्यकता है। प्रशासनिक सुधारों के अभाव में इच्छित लक्ष्य प्राप्त करना बहुत कठिन हो गया है।

[ लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद में भाजपा के नेता हैं ]