[ हृदयनारायण दीक्षित ]: अतीत व्यतीत नहीं होता। वर्तमान भारत अतीत के पूर्वजों के सचेत एवं अचेत कर्मो का परिणाम है। अतीत और आधुनिक की सामूहिक स्मृति राष्ट्रबोध है। राष्ट्रबोध का मूलाधार इतिहासबोध है। इतिहास बोध राष्ट्र जीवन की उमंग पर प्रभाव डालता है। इतिहास में भूत के साथ अनुभूत भी होता है। अनुभूत में जय-पराजय, हर्ष-विषाद और प्रसाद के अनुभव होते हैं। गर्व करने लायक प्रेरक प्रसंग होते हैं। अनुभव सिद्ध होने के कारण इसका एक भाग अकरणीय होता है, एक भाग करणीय होता है और बड़ा भाग अनुकरणीय होता है। इतिहास में अनुभूत सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति संस्कृति है। रामायण, महाभारत व पुराण इतिहास है। वैदिक साहित्य प्राचीन भारतीय शैली के इतिहास हैं। पराधीन भारत में साम्राज्यवादी हितों को लेकर भारतीय इतिहास का विरुपण हुआ। भारत को सदा पराजित देश बताया गया। हमारे नायकों की छवि धूमिल की गई। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत पर उचित ही बल दिया है।

यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत को पिछड़ा आत्महीन देश बताया

यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत पर अंग्रेजीराज का औचित्य सही सिद्ध करने के लिए इतिहास को विरुपित किया। अलबरूनी का आरोप था कि हिंदू अपना इतिहास भी नहीं संजो पाए। यूरोपीय इतिहासकारों और उनसे प्रभावित भारतीय इतिहासकारों ने भारत को पिछड़ा आत्महीन देश बताया। आर्यों के आक्रमण का मनगढ़ंत इतिहास रचा। फिर मोहम्मद बिना कासिम से लेकर तमाम विदेशी हमलावरों की विजय गाथा का तानाबाना बुना गया। उनके विवरण में केरल के मार्तंड वर्मा, बंगाल के भास्कर बर्मन आदि के पराक्रम नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में बहराइच के राजा सुहेलदेव ने महमूद गजनी के साले सैयद गाजी को हराया था। इतिहास में यह वीरता भी नदारद है। छत्रपति शिवाजी की राष्ट्रभक्ति और पराक्रम की भी उपेक्षा है। इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी सत्ता तक भारत की पराजय गाथा ही है। 1857 का स्वाधीनता संग्राम उनके लिए सिपाही विद्रोह है। सावरकर ने तथ्यों के साथ इसे प्रथम स्वाधीनता संग्र्राम बताया। अंगे्रजी मानसिकता के इतिहास लेखन में 1920 से लेकर 1946 तक महान सेनानियों की उपेक्षा है।

यूरोपीय विद्वानों ने अंग्रेजी साम्राज्य के हित में सत्य, तथ्य का गला घोंटा

इतिहास लेखन का आधार सत्य तथ्य होता है, लेकिन यह निरुद्देश्य नहीं होता। इतिहास का उद्देश्य राष्ट्र का संवर्धन होता है। यूरोपीय विद्वानों ने अंग्रेजी साम्राज्य के हित में सत्य, तथ्य का गला घोंटा। भारत के वामपंथियों ने अपनी राजनीतिक विचारधारा के पक्ष में इतिहास का विरुपण किया। इस विवरण में भारत का मूल अतीत नहीं है। भारतीय महानायकों की उपेक्षा है। भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता पुरानी है। वास्तविक इतिहास बोध से अलग रहने वाली भारतीय सत्ता के दौरान भी यह मांग कई दफा उठी है। वामपंथी इस मांग को भगवाकरण से जोड़कर हल्ला मचाते रहे हैं। अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने भी इतिहास के पुनर्लेखन की मांग की थी। अब अमित शाह ने पूरे तथ्यों के साथ इस मांग को उठाया है। प्रख्यात लेखक विलियम डेर्लंरपल ने शाह की मांग का समर्थन किया है। सो अंग्रेजी सत्ता, संस्कृति, सभ्यता व वामपंथ को समर्थन देने वाले इतिहास कर्म का पोस्टमार्टम जरूरी हो गया है।

इतिहास और हिस्ट्री एक नहीं है

इतिहास और हिस्ट्री एक नहीं है। गांधी जी ने हिस्ट्री को युद्ध और हिंसा से भरपूर बताया था। हिस्ट्री के अनुसार भारत अंग्रेजी राज के पूर्व राष्ट्र नहीं था। गांधी जी ने इसका भी खंडन किया। इतिहास हिस्ट्री का अनुवाद नहीं है। इतिहास का अर्थ है-ऐसा ही हुआ था। इसकी जानकारी के तमाम उपयोग हैं। इतिहास गलती के दोहराव से रोकता है। शेक्सपियर के एक नाटक में राजा हेनरी पंचम युद्ध में जाता है। आर्च विशप उसे प्रेरित करते हैं, ‘अपने महान शक्तिशाली पूर्वजों को देखो।’ अंग्रेज अपनी भाषा, संस्कृति और पूर्वजों की वीरता के इतिहास बोध से सजग रहे हैं। हम भारतीय अपने इतिहास में पूर्वजों के पौरुष पराक्रम के अंश खोजते ही रह जाते हैं। हम अंग्रेजी वामपंथी इतिहासकारों से प्राप्त इतिहास पर निर्भर हैं, जो हमें प्रेरित नहीं करता।

पराजित मानसिकता के परिणाम भयावह होते हैं

पराजित मानसिकता के परिणाम भयावह होते हैं। गौरवपूर्ण इतिहासबोध ऐसी मानसिकता से छुटकारा दिलाता है। बंकिम चंद्र चटर्जी ने ठीक लिखा था, ‘इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि पराधीनता के परिणाम में पराधीन जाति की बौद्धिक रचनाशीलता समाप्त हो जाती है।’ अंग्रेजी राज के दौरान भी बेशक ऐसा बहुत कम हुआ, लेकिन ज्यादातर बौद्धिक अंग्रेजी राज व अंग्रेजी विद्वानों के प्रभाव में आए। अंग्रेजी विद्वानों का बड़ा हिस्सा भारत को अशिक्षित और पिछड़ा बता रहा था।

भारत को विरुपित इतिहास से मुक्त करने का वक्त आ गया

तमाम भारतीय विद्वान अंग्रेजों को भारत का भाग्य निर्माता मान रहे थे। भारतीय इतिहास लेखन की एक धारा इसी की पिछलग्गू बनी। ऐसे भारतीय इतिहास लेखकों ने यूरोप और भारत के मध्यकाल को एक इकाई माना। दोनों के मध्यकाल अलग-अलग हैं। तब यूरोप में लाखों महिलाएं डायन बताकर मारी गई थीं। भारत में तब दक्षिण से उत्तर तक भक्ति वेदांत का प्रवाह था, लेकिन वामपंथियों ने भक्तिकाल को वंचितों की प्रतिक्रिया बताया। ऐसा इतिहास भारतीयों में आत्महीनता का भाव भरता रहा है। भारत को विरुपित इतिहास से मुक्त और असल इतिहासबोध से युक्त करने का वक्त आ गया है।

भारत ने विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ लगातार युद्ध किए

भारत ने विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ लगातार युद्ध किए हैं, लेकिन अरबों को इतिहास में विजेता कहा जाता है। बंकिम चंद्र ने लिखा है, ‘अरब एक प्रकार से दिग्विजयी रहे हैं। उन्होंने जहां आक्रमण किए, वहां जीते, लेकिन फ्रांस और भारत से पराजित होकर लौटे। हजरत मोहम्मद के बाद छह वर्ष के भीतर उन्होंने मिस्न व सीरिया, 10 वर्ष में ईरान फिर अफ्रीका, स्पेन, काबुल व तुर्किस्तान पर अधिकार किया, लेकिन 100 वर्ष में भी भारत को नहीं जीत सके।’ बंकिम के विवेचन में भारत का गौरवबोध है। यूरोपीय विद्वान अपने देशों के इतिहास संरक्षण में सजग हैं। उन्होंने संसदीय व्यवस्था में राजा-रानी को भी महत्व दिया है, पर भारतीय इतिहास विवेचन में वे पक्षपाती हैं। वामपंथी इतिहास विवेचन भारत के प्रति क्रूर है। ऐसा इतिहास भारत को भारत की प्रकृति, संस्कृति व वास्तविक नियति के लिए प्रेरित नहीं करता। इतिहास के पुनरावलोकन पर उच्चस्तरीय बहस बढ़ी है। विश्वास है कि बात दूर तक जाएगी ही।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )