नई दिल्ली [जगदीप एस छोकर]। सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को दिए अपने फैसले में 25 सितंबर 2018 के संवैधानिक बेंच के निर्णय का उल्लेख किया है। मूल रूप से 13 फरवरी का निर्णय 25 सितंबर के फैसले को ही दोहराता है। 13 फरवरी के निर्णय में केवल दो नये प्रावधान हैं। पहला तो यह कि राजनीतिक दलों को अपने चुनावी प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि का विस्तृत ब्योरा अपनी वेबसाइट पर उनके चयन करने के 48 घंटे के अंदर अपलोड करना होगा।

वेबसाइट पर डालने का प्रावधान तो 25 सितंबर के निर्णय में था ही, नई बात केवल 48 घंटे की है। इसी के साथ यह भी कहा गया है राजनीतिक दलों को इस सूचना को वेबसाइट पर डालने की पुष्टि निर्वाचन आयोग को 72 घंटे के भीतर भेजनी होगी। दूसरा नया प्रावधान है कि अगर कोई राजनीतिक दल किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को बतौर प्रत्याशी चयन करता है तो उस दल को ऐसे व्यक्ति के चयन की वजह का ब्योरा भी अपनी वेबसाइट पर डालना होगा।

इन दोनों नये प्रावधानों के कारगर ना होने के कारण बहुत सरल हैं। जहां तक प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि को वेबसाइट पर डालने की और इसकी सूचना चुनाव आयोग को देने की बात है, तो प्रत्याशी को अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि एक शपथपत्र द्वारा चुनावी नामांकन पत्र के साथ देने का प्रावधान तो 2003 से चला आ रहा है। इन शपथपत्रों में दी गई सूचना कई स्वैच्छिक संस्थाओं और समाचार पत्रों तथा टीवी द्वारा जनता तक पहुंचाई जाती है। जो सूचना जनता को 17 साल से मिल रही है, उसके राजनीतिक दलों के अपनी वेबसाइट पर डालने से क्या बदल जाएगा, यह समझ में नहीं आता।

शपथपत्र चुनाव आयोग को ही दिए जाते हैं, इसलिए चुनाव आयोग को 72 घंटे के भीतर वेबसाइट पर लगाने की सूचना देना भी एक अनावश्यक कार्यवाही लगती है। जहां तक आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को प्रत्याशी चयन करने की वजहों को वेबसाइट पर लगाने का सवाल है, इससे दो बातें उभर कर आती हैं। पहली तो यह कि राजनीतिक दलों को कुछ भी मनघडंत कारणों के सोचने और उनको वेबसाइट पर डालने में कोई कठिनाई आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

दूसरी बात यह कि किसी भी दल द्वारा दिए गए कारण सही, विश्वासनीय और मानने योग्य हैं या नहीं, यह निर्णय करने की जिम्मेदारी किसकी है, इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कुछ नहीं कहता। होगा यह कि राजनीतिक दल अपने मनमुताबिक प्रत्याशी चयन करेंगे और कोई भी वजह वेबसाइट पर डाल देंगे। 

असली बात तो यह है कि राजनीतिक मामलों में सुप्रीम कोर्ट फूंक-फूंककर पांव रखने का प्रयत्न करता है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। पिछले लगभग 20 वर्षों से ये सबको पता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव प्रणाली में कुछ भी सुधार या बदलाव नहीं चाहता, और अगर कुछ करने का प्रयत्न किया भी जाता है तो सब के सब दल एकजुट हो कर उसका विरोध करते हैं।

इसका केवल एक ही इलाज है कि सुप्रीम कोर्ट अपने उस अधिकार का प्रयोग करे जिसके अंतर्गत (1) किसी कानून में अगर कोई कमी है, (2) संसद उस कमी को दूर नहीं करता या नहीं करना चाहता, और (3) कानून की उस कमी से जनहित को नुकसान हो रहा है; ऐसी स्थिति में संसद को ना केवल अधिकार है बल्कि उसका कर्तव्य भी है कि वे कानून की कमी को ठीक करे, जब तक उसका संज्ञान लेकर संसद उस पर कुछ कार्यवाही ना करे। 

सुप्रीम कोर्ट को कहना चाहिये कि जिन व्यक्तियों के विरुद्ध गंभीर अपराधों के मामले चल रहे हों, और जिनमें अदालत ने ‘चार्जेज फ्रेम’ कर दिए हों अर्थात उनको अदालत ने गंभीर अपराध के रूप में मान लिया हो, ऐसे लोगों को चुनाव में प्रत्याशी बनने के अयोग्य घोषित कर दिया जाय। क्या न्यायपालिका बिल्ली के गले में घंटी बांधने का सहस करेगी? इस प्रश्न का उत्तर तो यपालिका को ही तय करना होगा।

(संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स)