[ प्रदीप सिंह ]: आगामी लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों की रणनीति धीरे-धीरे सामने आने लगी है। एक बात साफ हो गई है कि चुनाव व्यक्तित्वों के बीच लड़ा जाएगा। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे तो दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी। अभी हाल में कांग्रेस ने यह घोषणा की ही थी कि उसकी ओर से राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, लेकिन जल्द ही मोदी से मुकाबले के लिए दो और दावेदार कमर कसते दिखाई दिए- पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती। कांग्रेस की घोषणा से विपक्षी दलों में बनी यह सहमति टूट गई कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का फैसला चुनाव के बाद होगा।

पीएम पद की दावेदारी के लिए राहुल को समर्थन मिलता न देख कांग्रेस तब अपने कदम पीछे खींचती दिखी जब उसकी ओर से यह संकेत दिया गया कि विपक्ष का कोई भी चेहरा उसे स्वीकार होगा, शर्त केवल इतनी है कि वह आरएसएस समर्थित न हो। लोकसभा में तेलुगु देसम के अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल गांधी अपने भाषण में एक नहीं दो कदम आगे जाते हुए दिखे, लेकिन उसके बाद उन्होंने जो किया उससे वह तीन कदम पीछे चले गए। भाजपा की ओर से राहुल की आलोचना को विरोधी दल की स्वाभाविक प्रतिक्रिया कह सकते हैं, लेकिन कांग्रेस के सहयोगी दल और कांग्रेस के अंदर से ही राहुल के व्यवहार के खिलाफ आवाज उठी। जाहिर है कि यह चिंता की बात है।

बीते कुछ दिनों के घटनाक्रम पर ध्यान दें- शुक्रवार को अविश्वास प्रस्ताव आया और 126 के मुकाबले 325 के बहुमत से गिर गया। शनिवार को कोलकाता में ममता ने हुंकार भरी और राष्ट्रीय राजनीति में आने का संकेत दिया। उन्होंने घोषणा की कि वह 19 जनवरी को कोलकाता में पचास लाख लोगों की रैली करेंगी और सोनिया गांधी सहित सभी विपक्षी नेताओं को आमंत्रित करेंगी। ममता की इस पहल कदमी से कांग्रेस चौकन्नी हो गई। उसने अगले ही दिन नवगठित कांग्रेस कार्यसमति की पहली बैठक बुला ली। इसमें फैसला हुआ कि राहुल ही पीएम पद के उम्मीदवार होंगे।

बाकी विपक्षी दलों को नसीहत भी दी गई कि वे अपनी महत्वाकांक्षा नियंत्रित करें और मोदी को हराने के लिए राहुल को नेता के रूप में स्वीकार करें। इस फैसले के पीछे दो कारण दिखते हैैं। एक, उसे समझ आ गया है कि उसकी तमाम कोशिश के बावजूद लोकसभा चुनाव में मोदी बनाम राहुल मुद्दा बनेगा ही। दूसरा कारण, ममता की पहलकदमी का जवाब देना था। कांग्रेस को पता है कि ममता राहुल गांधी को पसंद नहीं करतीं। इसी वजह वह बार-बार क्षेत्रीय दलों के गठबंधन की बात कर रही हैं।

प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल तीसरी उम्मीदवार मायावती अपने राजनीतिक अस्तित्व की भी लड़ाई लड़ रही हैं। 2012 में सत्ता से बाहर होने, 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने और 2017 के विधानसभा चुनाव में केवल 19 सीटें आने के बाद पार्टी में भगदड़ मच गई थी। उत्तर प्रदेश में सपा से गठबंधन की बात और उपचुनाव में समर्थन करके उन्होंने इस भगदड़ को रोक लिया। गठबंधन की बात से उनका तात्कालिक लक्ष्य पूरा हो गया और इसीलिए कैराना और नूरपुर की जीत पर उन्होंने न तो कोई बयान दिया और न ही अखिलेश यादव से मिलीं, लेकिन मायावती देश भर में गठबंधन के लिए तैयार हैं। सवाल है कि दूसरे तैयार हैं क्या? नवंबर-दिसंबर में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैैं। कांग्रेस मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो बसपा से गठबंधन चाहती है, परंतु राजस्थान में नहीं। बसपा इसके लिए तैयार नहीं है।

प्रधानमंत्री पद के इन तीन दावेदारों में राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव में दोनों महिला नेता आगे हैं। मायावती कार्यकर्ता के स्तर से उठकर आई हैं। सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। ऐसे राजनीतिक माहौल में जब सबको दलित वोट चाहिए, वह खुद दलित वर्ग से आती हैं। इसी तरह ममता बनर्जी इस समय देश की एकमात्र नेता हैं जो बिना किसी गॉडफादर के यहां तक पहुंची हैैं। वह आज जो कुछ हैं अपनी मेहनत और जिजिविषा से हैं। वह सात साल से पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री हैं। इसके बरक्स राहुल गांधी जो भी हैं अपनी पारिवारिक विरासत के कारण हैं। उन्हें जीवन में कभी कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। उन्हें किसी तरह के प्रशासन का अनुभव नहीं हैैं। चुनावी राजनीति में सबसे बड़ी चीज होती है नेता की वोट दिलाने की क्षमता। ममता और मायावती यह साबित कर चुकी हैैं कि उनमें यह क्षमता है। राहुल गांधी को अभी यह साबित करना है। जाहिर है कि मोदी के लिए इनमें से राहुल गांधी के खिलाफ लड़ना सबसे आसान होगा।

राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का एकतरफा फैसला विपक्षी गठबंधन के रास्ते का रोड़ा भी बन सकता है। जनता दल(सेक्युलर)के देवेगौड़ा के अलावा विपक्ष के किसी बड़े नेता ने राहुल की उम्मीदवारी का समर्थन नहीं किया। शायद यही वजह रही कि कांग्रेस ने दो दिन बाद ही मीडिया में अनौपचारिक रूप से खबर दी कि कांग्रेस दूसरे विकल्पों पर विचार करने को तैयार है। मोदी के बरक्स राहुल गांधी के होने से मोदी और भाजपा को बैठे बिठाए वंशवाद और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे मिल जाएंगे। संप्रग सरकार को गए चार साल हो गए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस की विश्वसनीयता आज भी संदिग्ध है।

चार साल में वह मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे के नाम पर राफेल सौदे का मामला लेकर आई है, लेकिन उसमें भी वह फंस गई लगती है। लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है सारे विपक्षी दलों को एक साथ लाना, परंतु उनकी उम्मीदवारी की घोषणा के बाद बाकी दलों की चुप्पी से कांग्रेस को संदेश मिल गया है कि उन्हें राहुल का नेतृत्व स्वीकार नहीं।

मोदी और भाजपा चाहेंगे कि प्रधानमंत्री पद के तीनों दावेदार सामने आएं जिससे मतदाताओं को तुलना का मौका मिले। क्या जिन मायावती को उत्तर प्रदेश का मतदाता पिछले तीन चुनावों में नकार चुका है उन्हें देश प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में स्वीकार करेगा? तीनों दावेदारों में ममता बनर्जी एकमात्र ऐसी नेता हैं जिनकी पकड़ अपने प्रदेश के मतदाताओं पर बनी हुई है, पर अपने प्रदेश से बाहर उनकी पार्टी का कोई जनाधार नहीं है।

राहुल गांधी के बारे में कुछ बताने की कोई जरूरत नहीं है। जिस प्रदेश से वह और सोनिया गांधी लोकसभा में हैं उसकी यानी उत्तर प्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस के महज सात विधायक हैं। जब ये तीन नेता मोदी के मुकाबले चुनाव मैदान में होंगे तो मतदाता को तय करना होगा कि क्या वह मोदी को हटाकर इनमें से किसी को देश की बागडोर सौंपना चाहता है? मोदी की कोशिश होगी कि मतदाताओं के सामने साबित कर दें कि दरअसल ये ही समस्या हैं और मैं समाधान हूं। तब तक आप भी इसका अंदाजा लगाइए कि मतदाता की नजर में कौन ज्यादा विश्वसनीय साबित होगा।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]