[ राजनाथ सिंह सूर्य ]: क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए देशहित की बलि चढ़ाने की होड़ में राजनीतिक दल इस कदर आमादा हैं कि उन्हें इस राह पर चलने के कारण क्षीण होते जाने का भान नहीं रह गया है। उन्हें इसकी भी परवाह नहीं कि उनके इस आचरण का देश के आवाम पर क्या असर होगा? कुछ राजनीतिक दल घुसपैठियों के मामले पर मानवाधिकार का मुखौटा लगाकर जिस तरह से मुखरित हुए हैं उसका मुकाबला करने के लिए एकजुट होने की आवश्यकता है। यह बात असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में काम कर रही एक समिति द्वारा दिए गए प्रतिवेदन से जुड़ी है, जो अभी मसौदा मात्र है।

जिस प्रकार संसद और उसके बाहर इस पर हंगामा खड़ा किया जा रहा है और यह कहा जा रहा है कि असम में जारी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी सियासी साजिश का नतीजा है और इससे गृह युद्ध और रक्तपात होगा वह तो एक तरह की धमकी ही है। विडंबना यह है कि यह धमकी भरी भाषा उस राज्य के मुख्यमंत्री की है जो खुद भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से जूझ रहा है। यह धमकी तो काफी कुछ वैसी ही है जैसी 1946 में मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग न माने जाने पर दी थी और उस पर अमल भी किया।

भारत में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ किसी से छिपी नहीं है। सरकारी आंकड़े के अनुसार तो यह संख्या केवल दो करोड़ है, लेकिन असम और बंगाल के कुछ इलाकों में आबादी के अनुपात में हुए भारी फेरबदल और देशभर के शहरों में उनकी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा और भी बड़ा है। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम में चल रहे आंदोलन को ध्यान में रखकर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। उसमें अवैध रूप से भारत में आए बांग्लादेशियों की पहचान और उन्हें वापस भेजने की बात थी। कांग्रेस ने 2016 के असम चुनाव के समय अपने घोषणापत्र में यही दोहराया भी, लेकिन राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने इस मुद्दे पर दूसरी ही राह पकड़ ली। उन्हें धार्मिक उन्माद से उत्पीड़ित विस्थापित हुए हिंदुओं और अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए बांग्लादेशी मुसलमानों में कोई अंतर नहीं पता। यही हाल ममता बनर्जी का भी है।

बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ का सिलसिला पूर्वी पाकिस्तान के समय से ही कायम है। 1963-64 में सेना और गुप्तचर एजेंसियों ने असम सरकार के कुछ सदस्यों द्वारा अवैध रूप से आए लोगों को बसाने और उन्हें वैधता प्रदान किए जाने की जानकारी देकर भारत सरकार को सचेत किया था। उस चेतावनी की अनदेखी का ही नतीजा है कि आज घुसपैठिए देशभर में फैल गए हैं। उनमें से तमाम तो मतदाता बनने के साथ ही आधार जैसी पहचान भी हासिल कर चुके हैं।

बीते कुछ अर्से में म्यांमार से भगाए गए तमाम रोहिंग्या भी भारत में बस गए हैं। हैरानी की बात है कि सबसे ज्यादा रोहिंग्या उस जम्मू-कश्मीर में बस गए हैं जहां शेष भारत के नागरिकों के लिए ही तमाम तरह के प्रतिबंध हैं। आखिर किसी ने यह क्यों नहीं देखा कि पूर्वोत्तर में घुसे रोहिंग्या जम्मू-कश्मीर कैसे पहुंच गए? उन्हें भारत से बाहर भेजने की चर्चा के समय संसद में सरकार ने कहा कि धार्मिक उन्माद के कारण विस्थापित हुए लोगों को भारत में पूर्ण नागरिकता के साथ बसाया गया है। उनके समकक्ष गैर कानूनी तरीके से आए लोगों को स्थान नहीं दिया जा सकता। उन्हें चिन्हित कर उनके देश वापस भेजा जाएगा।

सरकार का यह आश्वासन सराहनीय है, लेकिन क्या उसी जम्मू-कश्मीर में धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान से 1947 में भारत आए लोगों को अभी तक नागरिक सुविधाएं न प्रदान किए जाने पर भी उसकी दृष्टि गई है? उन्हें देश के अन्य भागों में विस्थापितों के समान नागरिकता क्यों नहीं दी जा रही है? यही नहीं कश्मीर घाटी के हिंदू जो पिछले 30 साल से विस्थापित होकर अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं उनकी घर वापसी के वचन का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है? क्या कारण है जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने यह प्रस्ताव पारित कर दिया कि जो मुसलमान 1947 के बाद कश्मीर छोड़कर पाकिस्तान चले गए वे यदि वापस लौटते हैं तो उनकी संपत्ति उन्हें लौटाने का प्रबंध किया जाएगा। कश्मीर विधानसभा के इस प्रस्ताव की चर्चा भी नहीं होती।

जब पाकिस्तान बना तब वहां हिंदुओं की संख्या लगभग 37 प्रतिशत थी जो वहां आज 2 प्रतिशत और बांग्लादेश में 10 प्रतिशत रह गई है। असम में 1971 तक हिंदुओं की आबादी 72 प्रतिशत थी जो अब घटकर 60 प्रतिशत रह गई है। कई जिले तो ऐसे हैं जहां मूल निवासी अल्पसंख्यक और घुसपैठिये बहुसंख्यक हो गए हैं। बांग्लादेश सीमा से लगे पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में घुसपैठियों का उत्पात इतना बढ़ गया है कि वे दुर्गा पूजा आयोजन तक में बाधा बन रहे हैं। आरोप है कि ममता बनर्जी सरकार के कुछ सदस्यों की ही इन्हें शह मिली हुई है।

यह हैरानी की बात है कि हमारे राजनीतिक दलों को ये घुसपैठिए और उनसे उत्पन्न खतरे नजर नहीं आते, लेकिन ऐसे दलों को हिंसक भीड़ के इक्का-दुक्का मामलों को लेकर भारत को हिंदू पाकिस्तान बनता दिखाई देता है।

समाज को गैर संवैधानिक आचरण की दिशा में धकेलकर स्वार्थ सिद्धि के लिए राजनीतिक वोट बैंक बनाने का प्रयास इस समय चरम पर है। जाट, गूजर, मराठा, पाटीदार आरक्षण के लिए के लिए चल पड़े हिंसात्मक आंदोलन इसी प्रयासों का परिणाम नजर आते हैैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि ‘एक देश-एक जन’ की भावना के साथ आगे बढ़ा जाए।

वर्तमान में गरीबों की पहचान गरीबी के आधार पर किए जाने की भी आवश्यकता है। मुश्किल यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा सहित कोई भी राजनीतिक दल इसके लिए साहस के साथ आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। देश में जातीय हिंसात्मक आंदोलन और सांप्रदायिकता से भरी पृथकतावादी मनोवृत्ति वाले जिस जोर-शोर से मुखरित हैं उसका मुकाबला करने के लिए आम जनता को एकजुटता दिखाने की आवश्यकता है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]