[जगमोहन सिंह राजपूत]। लगभग सभी स्कूल बोर्ड तथा कुछ व्यावसायिक संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम आ चुके हैं। हर परिणाम के बाद जहां लाखों परिवारों में खुशी की लहर दौड़ जाती है। वहीं तमाम लोग असफल होने पर गलत कदम भी उठा लेते हैं। परिणाम के बाद बच्चों द्वारा जीवन समाप्त कर लेना अंकों की निरर्थकता को ही उजागर करता है। मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के द्वार खोलने वाली नीट परीक्षा भी कई कारणों से चर्चा में रही है। इस वर्ष नीट के परिणाम आने पर कक्षा बारह में 1200 में 1125 अंक लाने वाली छात्रा ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि वह नीट की बाधा पार नहीं कर पाई। वह मजदूरी करने वाले पिता की संतान थी तथा दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 500 में 490 अंक प्राप्त कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी थी। उसके लिए अच्छे अंकों का क्या अर्थ रह गया? वहीं दिल्ली और हैदराबाद में भी ऊंची इमारत से छलांग लगाकर दो और युवाओं ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।

सिविल सेवा परीक्षा में परीक्षा केंद्र पर देरी से पहुंचने के कारण भी एक विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली। यह सूची अंतहीन है। इन युवाओं को निराशा के इस अंधकार में धकेलने के जिम्मेदार लोगों और परिस्थितियों को समझना मुश्किल नहीं है। यहां जिन चार दुखद प्रकरणों का उल्लेख किया है उनमें निराशा तथा खुद पर विश्वास में कमी के अतिरिक्त अंधकारमय भविष्य और समाज तथा माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाना मुख्य कारक बने ही होंगे। क्या परिवार, स्कूल और समाज व्यक्तित्व विकास के अपने उत्तरदायित्व को भूल चुके हैं? स्कूली पाठ्यक्रम में अब आवश्यक रूप से बच्चों को यह समझाना होगा कि जीवन ईश्वर-प्रदत्त अमूल्य निधि है जिसका संरक्षण उनका पहला कर्तव्य है। घोर प्रतिस्पर्धा के फैलाव में विकल्पों की उपलब्धता और उन पर विश्वास उत्पन्न करने के सार्थक प्रयास शिक्षा के प्रारंभ से ही क्यों आवश्यक नहीं माने जाते हैं?

युवा शक्ति के बिखराव में एक और पक्ष उन छात्रों का है जो असफल हो जाते हैं। बिहार में बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में 47 प्रतिशत विद्यार्थी असफल रहे जबकि 2017 के मुकाबले परीक्षा परिणामों में 17 फीसद अधिक छात्र उत्तीर्ण हुए हैं। दूसरी तरफ 11.92 लाख में से 5.5 लाख बच्चे फेल हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में एमजेपी रुहेलखंड विश्वविद्यालय में बीएससी की प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ष की परीक्षा में 1.12 लाख में से 60 प्रतिशत विद्यार्थी फेल हो गए। ‘फेल’ बच्चों की पारिवारिक और सामजिक प्रतिष्ठा एकाएक नीचे चली जाती है। परिवार के लोग भी जब तक संभव हो पाता है, मुंह छुपाते हैं। पिछले तीन सालों में अकेले बिहार में ही कम से कम 17-18 लाख बच्चे तो बारहवीं में फेल हो चुके होंगे। हताशा और निराशा के अतिरिक्त उन्हें कुछ और नहीं

सूझता। कई राज्यों की कमोबेश यही कहानी है। उनके लिए पत्राचार पाठ्यक्रम विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, मगर उसकी अपनी साख भी अभी तक नहीं बन पाई है। कौशल प्रशिक्षण केंद्रों का भी यही हाल है। पूरे देश में तमाम प्रतिभाएं कुंठित होकर ऐसे ही दम तोड़ देती हैं। दूसरी ओर वह वर्ग है जो अपने बच्चों को विदेश भेजकर संतुष्ट हो जाता है। कुछ समय पहले आइआइटी तथा आइआइएम से शिक्षित युवा बड़ी संख्या में विदेश चले जाते थे और प्रतिभा के इस पलायन पर चिंता व्यक्त की जाती थी।

अब लाखों बच्चों के विदेश में पढ़ने से देश की बेशकीमती विदेशी मुद्रा का पलायन विदेशी संस्थानों के लिए हो रहा है। यह निरंतर बढ़ने पर है। अनेक उच्च शिक्षण संस्थानों की साख घट रही है। इंजीनियरिंग, तकनीकी तथा प्रबंधन के निजी संस्थान तेजी से खुले, मगर अब उतनी ही तेजी से उन पर ताला भी पड़ रहा है। अनुमान है कि 94 प्रतिशत आइटी पेशेवर ढंग से काम भी नहीं जानते। इस तथ्य को स्कूलों में किये गए उन सर्वेक्षणों के संदर्भ में देखना आवश्यक है जिनमें पाया जाता है कि कक्षा पांच के आधे विद्यार्थी कक्षा एक की पुस्तक भी नहीं पढ़ पाते हैं। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं, मगर इसकी सबसे बड़ी वजह प्रारंभिक शिक्षा की कमियां यानी कमजोर बुनियाद के रूप में ही सामने आती है। जितने भी देशों ने तरक्की की है उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान दिया। दो वर्षों से दिल्ली में फिनलैंड मॉडल की खूब चर्चा है। कई मंत्री, अधिकारी, अध्यापक और कुछ अन्य लोग भी इसकी परख के लिए फिनलैंड गए। इस बीच दिल्ली के सरकारी स्कूलों का परीक्षा परिणाम पिछले वर्ष के मुकाबले काफी नीचे आ गया। बहरहाल जो फिनलैंड में हो चुका है, वह भारत में सत्तर वर्षों में क्यों नहीं हो सका? सामान्यत: यह माना जाता है कि प्रत्येक देश के समक्ष ‘विकास की अवधारणा’ तय कर पाने की समस्या लगभग हर क्षेत्र में बनी रहती है। कई विकासशील देश पश्चिमी देशों के विकास ‘मॉडल’ की नकल कर विनाश के कगार पर पहुंच गए हैं।

भारत में शिक्षा के क्षेत्र में यहीं की मिट्टी से उपजी बुनियादी तालीम के मूल तत्व और उसकी व्यावहारिकता को अपनी शिक्षा नीतियों में शामिल न करना युवा शक्ति की ऊर्जा के अनुपयोग का कारण बना। युवा देश के ‘जनसंख्या के स्वर्णिम युग’ में पहुंचकर दुनिया भर में छा जाने की कहानी आरंभ होने के पहले ही धूमिल पड़ने लगी है। यदि शिक्षा तंत्र अपनी कार्यसंस्कृति तथा दृष्टिकोण में अपेक्षित परिवर्तन कर गतिशीलता ले आता तो यह संभावना सार्थक हो सकती थी। जो स्थिति बनी है उसमें सबसे अधिक हानि समाज के उस वंचित तथा पीड़ित वर्ग को ही हो रही है जिसे शिक्षा की सबसे अधिक तथा त्वरित आवश्यकता है। अब उपाय क्या है? कक्षा दस तक के सरकारी स्कूलों को नवोदय तथा केंद्रीय विद्यालयों के स्तर पर लाने के प्रयास बड़े स्तर पर शुरू कर उन्हें चार-पांच साल में सभी को उपलब्ध कराना असंभव नहीं होगा। इन्हें पब्लिक स्कूल कहा जाए और ये प्रत्येक के लिए उपलब्ध हों। तथाकथित पब्लिक स्कूलों को आदेश द्वारा ‘निजी स्व-वित्तपोषित’ नाम दिया जाए। कृषि को पाठ्यक्रम में शामिल करने के साथ ही एनसीसी तथा एनएसएस में कम से कम चार सप्ताह भारत के ग्रामीण, पहाड़ी, दुर्गम तथा आदिवासी क्षेत्रों में अपने प्रांत से दूर जाकर रहना और श्रम करना अनिवार्य बनाया जाए। यह समझना आवश्यक है कि भारत की प्रगति मे वर्गभेद घट नहीं बल्कि बढ़ रहे हैं। इन्हें केवल अच्छी प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था करके ही कम किया जा सकता है। भारत की युवा प्रतिभा को प्रस्फुटित होने के लिए बराबरी के अवसर देना राष्ट्र की जिम्मेदारी है। इसी आधार पर नीति निर्माण और उसके क्रियान्वयन की पहल होनी चाहिए।

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)