[ बद्री नारायण ]: छत्तीसगढ़ चुनावों के दौरान बसपा प्रमुख मायावती से जब यह सवाल पूछा गया कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में वह भाजपा या कांग्रेस में से किसका समर्थन करेंगी तो उन्होंने बेहद साफगोई से जवाब दिया कि दोनों में किसी का भी नहीं। उनके अनुसार ऐसा कुछ करने के बजाय वह विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी। मायावती का आरोप है कि इन दोनों दलों में से किसी ने भी दलितों, गरीबों और वंचितों के लिए कुछ नहीं किया। इन दोनों दलों से समान दूरी बनाते हुए उन्हें नागनाथ और सांपनाथ बताना बसपा के संस्थापक कांशीराम का सिद्धांत था। मायावती उसे ही दोहरा रही हैं। हालांकि कांशीराम और मायावती, दोनों ने समय-समय पर अपने इस सिद्धांत से समझौता भी किया। मायावती अतीत में भाजपा के साथ गठबंधन कर सरकार बना चुकी हैं और उसी दौरान उन्होंने दलितों के लिए काफी काम भी किए हैं। आंबेडकर ग्राम जैसी अवधारणा ने उसी दौरान आकार लिया।

बहरहाल मायावती का हालिया बयान कई सवालों को समेटे हुए है। मसलन क्या यह रणनीति छत्तीसगढ़ चुनाव तक ही सीमित है या 2019 के चुनाव को लेकर चल रही महागठबंधन की कवायद में भी वह कांग्रेस से दूरी बनाकर रखेंगी? संभव है कि ऐसा ही हो, क्योंकि वह ऐसे ही संकेत दे रही हैं और मायावती से गठजोड़ की पींगें बढ़ा रहे सपा के अखिलेश यादव भी इन दिनों कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं। हालांकि हालात को देखते हुए उन्हें कांग्रेस को साथ में लेना पड़ सकता है। फिर भी यदि ऐसा नहीं हुआ तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-रालोद गठजोड़ मुकाबले को त्रिकोणीय बना सकता है। मौजूदा राजनीतिक स्थिति को देखा जाए तो ऐसा परिदृश्य भाजपा के लिए फायदेमंद होगा।

छत्तीसगढ़ में बसपा और अजीत जोगी की जनता कांग्रेस के रूप में उभरा तीसरा ध्रुव भाजपा का ही काम आसान कर रहा है। मध्य प्रदेश में भी बसपा कांग्रेस के मतों को ही विभाजित करेगी। हालांकि यह भी संभव है कि सत्ता विरोधी रुझान के कारण यह बिखराव बहुत ज्यादा न हो। मायावती की रणनीति में उत्तर प्रदेश से बाहर के राज्यों में सशक्त हस्तक्षेप एक महत्वपूर्ण पहल है। वैसे भी देश के लगभग प्रत्येक राज्य में दलित समाज है तो मायावती की कोशिश उनमें पैठ बनाकर उसे चुनाव में भुनाने की है। इसके लिए वह छोटे दलों से गठजोड़ भी कर रही हैैं। कर्नाटक में भी उन्होंने जद-एस के साथ गठबंधन किया था। वहां बसपा का एक उम्मीदवार जीता भी। इसी विधायक को पार्टी ने दबाव बनाकर मंत्री भी बनवा दिया। कर्नाटक के इसी प्रयोग को मायावती दूसरों राज्यों में भी दोहरा रही हैं। इससे बसपा को कई फायदे होंगे। एक तो पार्टी को चुनावी चर्चा में जगह मिलेगी। दूसरा, अखिल भारतीय मौजूदगी के साथ ही मत प्रतिशत भी बढ़ेगा। तीसरा, पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा बनाए रखने में मदद मिलेगी जिस पर बीते कुछ चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद सवाल उठने लगे हैैं। इस लिहाज से कर्नाटक के बाद उन्होंने इन तीनों राज्यों में वही दांव चला है।

हालांकि मप्र और छत्तीसगढ़ में बसपा कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छुक थी, लेकिन वह जितनी सीटें मांग रही थी कांग्रेस उतनी सीटें देने के लिए तैयार नहीं थी। इससे बात बनने से पहले ही बिगड़ गई और मायावती को चुनाव में तीसरे पक्ष के रूप में उतरना पड़ा। हालांकि इन चुनावों में पार्टी की भूमिका वोटकटवा की ही होगी, लेकिन यह उसके लिए कोई अपमानजनक स्थिति नहीं है। बसपा का राजनीतिक दर्शन ही यह है कि पहले हारेंगे और फिर हराएंगे। अपने इसी दर्शन के दम पर बसपा ने 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कमजोर किया था।

चुनाव में हारने की अपनी इसी ताकत को बसपा ने सियासी सौदेबाजी के अहम हथियार के रूप में विकसित कर धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक पूंजी बढ़ाई। फिर मुख्य परिदृश्य में उभरकर मतदाताओं में विश्वास जगाया और फिर विजेता बनकर उत्तर प्रदेश में राज किया। मौजूदा चुनावों में बसपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। जो भी है वह पाना ही है। उत्तर प्रदेश से सटे मध्य प्रदेश के इलाकों में बसपा का अच्छा प्रभाव है। रीवांचल, चंबल और मुरैना क्षेत्र में भी बसपा प्रभावी संगठन है। हालांकि शेष मध्य प्रदेश में उसकी स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, फिर भी उसके पास छह प्रतिशत से ज्यादा मत हैं। इसी तरह छत्तीसगढ के बिलासपुर, जांजगीर संभाग और महाराष्ट्र की सीमा से लगे राज्यों के हिस्सों में भी उसकी मौजूदगी है। वैसे भी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में दलित मतदाताओं का कुछ न कुछ आधार होता है। ऐसे में बसपा अपने सघन प्रभाव वाले क्षेत्रों में जीत भी दर्ज कर सकती है।

कई क्षेत्रों में वोटकटवा की भूमिका भी उसके राजनीतिक प्रभाव में उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकती है। छत्तीसगढ़ में जोगी की पार्टी का साथ भी बसपा को फायदा पहुंचा सकता है, क्योंकि जोगी की आदिवासियों के बीच गहरी पैठ है। इसीलिए ये दोनों मिलकर दलित-आदिवासी एकता का नारा भी बुलंद कर रहे थे। छत्तीसगढ में दलित आदिवासी मूलत: कांग्रेस का जनाधार रहे हैं। उसमें इस गठजोड़ द्वारा लगाई गई सेंध शायद कांग्रेस पर भारी पड़े। हालांकि राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में बहुत मेहनत की है, लेकिन वहां कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है।

पिछले विधानसभा चुनावों से पहले नक्सलियों ने राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व का सफाया कर दिया था। तिस पर बसपा-जनता कांग्रेस गठजोड़ ने उसे और कमजोर किया। छत्तीसगढ़ के उलट मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज नेता हैं। लिहाजा वहां कांग्रेस की जड़ों को कमजोर करना बसपा के लिए उतना आसान नहीं होगा। मायावती की रणनीति इन प्रांतों में अपनी प्रासंगिकता और प्रभाव साबित कर 2019 के संसदीय चुनाव में बनने वाले महागठबंधन में अपना दावा मजबूत कर सीटों के बंटवारे में ज्यादा सीटें हासिल करने की है। वहीं अगर चुनाव बाद गठबंधन की सरकार बनती है तब वह सत्ता में अधिक हिस्सेदारी के लिए दबाव बना सकती हैं।

यह आम धारणा है कि मायावती के मन में प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा है। अगर छोटे-छोटे दल मिलकर सरकार बनाते हैं तो उस स्थिति में मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा ठोक सकती हैं। फिलहाल ऐसे ही आसार लग रहे हैं कि गठबंधन पहले राज्य स्तर पर बनेगा और फिर केंद्रीय स्तर पर उसका विकसित स्वरूप आकार लेगा। राज्यों के स्तर पर बनने वाले इन गठबंधनों में कई जगह कांग्रेस भी शामिल रहेगी, लेकिन वरिष्ठ नहीं, कनिष्ठ सहयोगी के रूप में। कांग्रेस जिन राज्यों में मजूबत स्थिति में हैं उनके साथ इन राज्यों में कनिष्ठ भूमिका के रूप में अपने प्रदर्शन से केंद्र में खुद को मजबूती दे सकती है। इस बीच यह भी देखना होगा कि फिलहाल कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाए रखने की बात करने वाली मायावती इस नीति पर कहां तक खरी उतरती हैं, क्योंकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।

[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं ]