[डॉ. एके वर्मा]। महाराष्ट्र में अंतत: उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन ही गई। यह भारतीय राजनीति में विचारधारा के अंत का ही नहीं, वरन विचारधारा पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा के वर्चस्व का भी ज्वलंत उदाहरण है।

कल तक शिवसेना और कांग्रेस-राकांपा विचारधारा के दो ध्रुवों की तरह थे। शिवसेना जहां कट्टर हिंदुत्ववादी यानी दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में जानी जाती थी वहीं कांग्रेस और राकांपा वामपंथी-मध्यमार्गी के रूप में। दोनों में गंभीर वैचारिक मतभेद रहे, लेकिन आज सत्ता के लालच में दोनों ही धु्रवों ने वैचारिक मतभेद भुलाकर एक-दूसरे का हाथ थाम लिया। समय ही बताएगा कि यह प्रयोग कितने दिनों चलेगा, लेकिन इतना निश्चित है कि इसका खामियाजा इन तीनों ही दलों को उठाना पड़ेगा।

पहले भी हो चुके हैं ऐसे प्रयोग और परिणाम रहा घातक

ऐसा ही प्रयोग कुछ समय पूर्व कांग्रेस ने कर्नाटक में जद-एस के साथ और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ किया था। इसके परिणाम उसके लिए घातक ही रहे थे। इसी की पुनरावृत्ति 2019 में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव में की और उसमें दोनों को ही नुकसान हुआ।

ऐसा माना जाता है कि जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है, लेकिन उसकी याद्दाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों की गंभीर गलतियों को भूल जाए। इसीलिए चुनावों में सरकारें अक्सर बदल जाया करती हैं। विचारधारा राजनीति की आत्मा होती है। जिन राजनीतिक दलों का भारतीय लोकतंत्र में पराभव हुआ है या हो रहा है उन्हें यह समझना चाहिए कि उनसे गलती कहां हो रही है? आखिर जनता को एक दल और दूसरे दल में फर्क करने का कोई तो ठोस आधार चाहिए। 

 वैचारिक जमीन छोड़ने की शिवसेना को चुकानी होगी कीमत 

शिवसेना को आज यह नहीं समझ में आ रहा कि भविष्य में उसे अपनी वैचारिक जमीन छोड़ने की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी? जो लोग शिवसेना के साथ हैं वे जरूर असहज होंगे, क्योंकि जो सैद्धांतिक लड़ाई उन्होंने कांग्रेस और राकांपा के खिलाफ दशकों से लड़ी, आज उस पर पानी फिर गया। आखिर ऐसे लोग क्यों न भाजपा की ओर आकृष्ट हों? यहां वे वैचारिक रूप से अपने को ज्यादा सहज पाएंगे। शिवसेना जैसा हश्र कांग्रेस का भी होगा।

 महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार में सम्मिलित होकर पार्टी ने देश में क्या कुछ नहीं खोया? आखिर जो कांग्रेस भाजपा को अपना धुर वैचारिक विरोधी मानती है वह उसके उग्र- संस्करण शिवसेना से हाथ कैसे मिला सकती है? या तो कांग्रेस पहले गलत थी या अब गलत है? शिवसेना तो एक प्रादेशिक पार्टी है, उसका हित तो सीमित है, लेकिन कांग्रेस को तो अपने वृहद राष्ट्रीय हित के बारे में सोचना चाहिए था। क्या आगामी चुनावों में कांग्रेस के पास वैचारिक स्तर पर भाजपा के विरोध का कोई आधार होगा? यदि एक विचारधारा है तो नीतियां भी एक जैसी होंगी, निर्णय और कार्यक्रम भी एक जैसे होंगे। फिर जनता को पार्टी बदलने से क्या बदलाव मिलेगा?

विकास की अहम भूमिका

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विद्वान डेनिएल बेल ने अपनी पुस्तक ‘विचारधारा के अंत’ में कहा था कि किसी भी देश के उन्नत आर्थिक- सामाजिक ढांचे की संरचना में विकास की अहम भूमिका होती है, विचारधारा की नहीं। विभिन्न राजनीतिक विषयों जैसे लोक कल्याणकारी राज्य, शक्ति विकेंद्रीकरण, मिश्रित अर्थव्यवस्था और बहुलवाद पर सभी विचारधाराओं में मतैक्य है।

एक अन्य अमेरिकी विद्वान फ्रांसिस फुकुयामा ने इसे आगे बढ़ाते हुए कहा था कि ऐसा नहीं कि विचारधाराओं का अंत हो गया है, वरन विचारधाराओं के संघर्ष में दक्षिणपंथी विचारधारा ने स्थाई रूप से पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है और यही विचारधारा मानवता को भविष्य में निर्देशित करती रहेगी। एक तरह से देखा जाए तो दक्षिणपंथी शिवसेना द्वारा बहुत कम सीटें प्राप्त होने के बाद भी उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना डेनियल बेल और फुकुयामा की भविष्यवाणियों को प्रमाणित करता है। 

भाजपा को नहीं दिखानी थी जल्दबाजी

महाराष्ट्र के घटनाक्रम से भाजपा ने भी कुछ खोया है। भाजपा को अपनी विचारधारा के लिए जाना जाता है। भारतीय राजनीति में भाजपा का जिस तरह अभ्युदय हुआ वह फुकुयामा की थीसिस को सही साबित करता है। जब धीरे-धीरे केंद्र और राज्यों में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही थी तब महाराष्ट्र में भाजपा को इतनी अधीरता क्यों दिखानी चाहिए थी कि भोर में शपथ ग्रहण हो जाए? देवेंद्र फड़नवीस ने सरकार न बनाने की बात कहकर स्वच्छ राजनीति का जो उदाहरण शुरू में दिया और जनता की सहानुभूति बटोरी उसे बेमतलब गंवाने का कोई कारण नहीं था। 

कभी पूरे देश में मध्यमार्गी-वामपंथी विचारधारा का पर्याय रही और केंद्र और राज्यों में एकक्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस को आज एक पिछलग्गू पार्टी की भूमिका में क्यों आना पड़ा? इसका कारण यही है कि कांग्रेस ने 1960 के दशक से या उससे भी पहले अपनी वैचारिक आधारशिला को तोड़ना शुरू कर दिया था।

जब 1975 में इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल में झोंका

केरल में 1959 में नंबूदरीपाद की विधिवत निर्वाचित वामपंथी सरकार को प्रधानमंत्री नेहरू ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के आदेश पर भंग कर इसका संकेत दे दिया था। इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस का विभाजन कर इसे आगे बढ़ाया। 1975 में देश को आपातकाल में झोंक कर इंदिरा गांधी ने उसे और पुख्ता किया। इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नरसिंह राव ने समाजवादी लीक से हटकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की पहल पर देश को ‘उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण’ की ओर ले जाकर उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि को और कमजोर किया।

नेतृत्व में भाजपा मार ले जाती है बाजी

आज कांग्रेस के पास ऐसा कुछ भी नहीं जो भाजपा से अलग हो। इसके चलते जनता और मतदाता को भाजपा और कांग्रेस में कोई वैचारिक फर्क नहीं दिखता। जब दोनों दलों में फर्क करने के लिए नेतृत्व सामने आता है तब भाजपा बाजी मार ले जाती है। आज भले ही कांग्रेस को शिवसेना से वैचारिक धरातल पर कोई परहेज न हो, लेकिन यदि उसने अपने को वैचारिक धरातल पर अलग नहीं किया और नेतृत्व के स्तर पर कोई गंभीर आकर्षक विकल्प नहीं दिया तो पार्टी का भविष्य संदिग्ध है। 

राहुल गांधी हों या सोनिया गांधी, ये दोनों नेता कांग्रेस पार्टी से बड़े नहीं हो सकते। राजनीति कोई ‘शार्ट-टर्म’ गेम नहीं, राजनीतिक दलों को लंबी रेस के घोड़े तैयार करने होंगे। जो दल राजनीति में विचारधारा और महत्वाकांक्षा का बेहतर समिश्रण कर सकेंगे, भविष्य उन्हीं का है। महाराष्ट्र में यह समिश्रण नहीं हो पाया। चूंकि यहां विचारधारा को तिलांजलि देकर महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने का काम किया गया इसलिए इस प्रयोग की सफलता संदिग्ध है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)