वे फिर से हार गए और फिर भी खुश हैं कि सम्मान से हारे हैं। उनकी यह हार सामने वाले की जीत से भी बड़ी है। वे सत्ता के लिए नहीं सम्मान के लिए लड़ रहे थे। उनके समर्थक गदगद हैं कि वे जीते नहीं। जीत जाते तो हारने वालों को प्रेरणा कौन देता! जीत के साथ तो दुनिया खड़ी होती है, पर हार अकेली होती है। ऐसे में हार को गले लगाना बड़े साहस का काम है। जीत अपने साथ कई सारे अवगुण लाती है। जीता हुआ आदमी अहंकार से भर उठता है जबकि हारने वाला बिल्कुल खाली हाथ होता है। खोने को भी कुछ नहीं होता। इसीलिए जीत वाला भरा हुआ झोला उठाकर चल देता है जबकि हारने वाला आत्मचिंतन के लिए खोह में घुस जाता है। हारने के बाद ही उन्होंने जाना है कि जीत कितनी बेमजा होती है। हार से अंदर का हाहाकार बाहर निकल आता है, वहीं जीत से बाहर की जयकार अहंकार का रूप धर लेती है। इस नाते तो जीत किसी भी रूप में हार के आगे नहीं टिकती। इसीलिए जीतने वाले अभागे और बदनसीब हैं और हारने वाले परमसुखी और दार्शनिक। जिस हार से सभी भयभीत होते हैं, वे उसे अपना बना चुके हैं। उनकी इस उदारता से हम बहुत प्रभावित हुए। भेंट के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे उस समय भी चिंतन में लीन थे। उनके समर्थक स्तुतिगान कर रहे थे। सामने खूंटी पर कई हार टंगे थे। सबसे बड़े वाले हार पर लिखा था-नैतिक जीत। हम गश खाकर गिरने ही वाले थे कि समर्थकों की करतल-ध्वनि ने बचा लिया। अचानक तेज आवाज से उनकी तंद्रा भंग हो गई। हमें सामने बैठने का संकेत देकर वे हमें निहारने लगे। हमने अपनी जेब से चुनिंदा सवाल निकाल लिए। उनसे हुई ब्रेकिंग-बातचीत यहां अविकल रूप से प्रस्तुत है:

सबसे पहले तो आपको लगातार हार की बधाई। यह अनोखी उपलब्धि आपको मिली कैसे?

कुछ अनुभव जो साझा करना चाहें!1हार के लिए सबका आभार। वह तो हम बाल-बाल बचे। कुछ समय के लिए तो हम डर ही गए थे कि शायद इस बार हार से वंचित हो जाएं, पर बाद में हमारे बड़े नेताओं ने अपना बलिदान देकर हमें संभाल लिया। मतगणना के दौरान वे खेत रहे। यह हम सबकी हार है। यह उपलब्धि इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि 22 बरस की जीत ने हमारी एक सौ 32 साल की विरासत के आगे घुटने टेक दिए। हमने ‘विकास’ को शतक बनाने से रोक दिया। मंदिर-मंदिर टीका लगवाना और कोट फाड़कर जनेऊ प्रकट हो जाना इस हार-यात्र के अद्भुत अनुभव रहे। हम अभी तक अभिभूत हैं। हमारी यह हार उनकी जीत से ज्यादा दमदार है।

कहते हैं कि जीएसटी और नोटबंदी ने आखिरी ओवरों में पासा पलट दिया?

नहीं, शुरुआत में तो इन दोनों ने ख़ूब रन लुटाये, लेकिन टारगेट फिर भी दूर रह जाता यदि हमारे पास अनमोल ‘मणि’ न होती! ऐन वक्त पर उन्होंने एक ‘लो-बॉल’ फेंक दी जिसे जितैली-पार्टी ने सीमा पार जाकर लपक लिया। यह हमारी हार का टनिर्ंग-पॉइंट था और हम तभी अपने लक्ष्य के प्रति निश्चिंत हो गए थे कि हम किसी न किसी कीमत पर इसे हासिल करके रहेंगे।

आखिर इस हार से सबक क्या मिला है ?

यही कि अगर आपके पास हारने का जबरदस्त जज्बा हो तो जीती हुई बाजी भी पलटी जा सकती है। आपके पास दो-चार मूर्खशिरोमणि जरूर होने चाहिए ताकि आपके हारने में कोई गुंजाइश न रहे। ऊपरवाले का शुक्र है कि हमारे पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है। यह इनकी प्रतिभा का ही कमाल है कि अब हार स्थाई रूप से हमारी हो गई है।

अपनी हार का असल श्रेय किसे देना चाहेंगे?

बड़ा जबरदस्त सवाल पूछा है आपने, लेकिन हम भी तैयार हैं। हमारे सवालों के जवाब भले आधारहीन हों, पर आप उधर से सवाल डालोगे, इधर से जवाब निकलेगा। दरअसल, सारा खेल मशीन का है। इस बार थोड़ी गड़बड़ हुई है। न वे ठीक से जीते और न हम ठीक से हारे हैं। यह कहां का लोकतंत्र है कि एक ठीकरा तक फोड़ना मुश्किल हो रहा है! हम विश्लेषण कर रहे हैं और जल्द ही पता कर लेंगे कि हार का श्रेय किसे दिया जाए! हम लोग गरिमा से लड़ते हैं और शालीनता से हार जाते हैं। हमें इतना उदार तो होना ही चाहिए।

हार से आपको कितना, क्या फायदा मिला है?

देखिए, हमें तो फायदा ही फायदा है। ‘मंदिर-मंदिर’ वे चिल्लाते रहे और दर्शन हम कर आए। उन्हें बहुमत मिला है तो हमें हिम्मत। हम लड़ भी सकते हैं, इस बात का आत्मविश्वास आया है। हार से हमारे संघर्ष को नई ऊर्जा मिली है और आंदोलनकारियों को प्राण। आने वाले दिनों में हम देश में भी नई जान फूंकेंगे। हमारी हार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि चुनाव के दौरान खोया हुआ विकास आखिरकार मिल ही गया! हम इसी से अभिभूत हैं।

(संतोष त्रिवेदी)