नई दिल्ली [अनंत विजय]। मुंबई में एक न्यूज चैनल के प्रधान संपादक की गिरफ्तारी के बाद से यह मसला सुर्खियों में है। प्रत्येक व्यक्ति इसकी व्याख्या अपनी समझ के अनुसार कर रहा है, लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग इसे राइट और लेफ्ट विंग की विचारधारा के अनुरूप कर रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि संपादक की गिरफ्तारी के विरोध में उनके समर्थकों ने महज ट्वीट किया, सड़कों पर नहीं उतरे, जैसा कि लेफ्ट विंग के समर्थक करते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि लेफ्ट विंग ने अपना कुनबा किस तरह मजबूत बना रखा है।  

इन दिनों न्यूज चैनल और उसके क्रियाकलाप खूब चर्चा में हैं। पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद की कवरेज को लेकर, फिर फिल्मी दुनिया और ड्रग्स को लेकर, टीआरपी सिस्टम में घोटाले की खबरों को लेकर और अब न्यूज चैनल रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर। जहां भी चार पांच लोग बैठते हैं तो मीडिया और खबरों की चर्चा शुरू हो जाती है। कोरोना काल में लंबे समय के बाद लोगों का मिलना जुलना शुरू हुआ है। एक मित्र की पुस्तक आई थी, उसने उसके बहाने से मिलने जुलने का कार्यक्रम रखा था। हम सबलोग तय स्थान पर पहुंचे, पुस्तक के प्रकाशन पर बधाई आदि का दौर चला।

बातों-बातों में किसी ने अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की चर्चा छेड़ दी। एक मित्र ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी वाले खुलकर अर्नब के समर्थन में आ गए हैं, कई मंत्रियों ने उनके समर्थन में ट्वीट किया है। भाजपा के कार्यकर्ता भी उनके समर्थन में प्रदर्शन आदि कर रहे हैं। अर्नब और बीजेपी की चर्चा हो ही रही थी कि दूसरे मित्र ने बात काट दी और कहा कि ये कैसा समर्थन जिसमें सिर्फ ट्वीट पर अपनी बात कहकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले। उनको किसी प्रकार की सहायता हुई हो ऐसा तो दिख नहीं रहा। राइट विंग के समर्थकों से बेहतर तो लेफ्ट विंग के लोग हैं जो अपने समर्थकों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बहस में दोनों की आवाज ऊंची होने लगी थी। लेकिन बाकी मित्र मजे ले रहे थे।

चर्चा जब शुरू हुई तो किसी को अंदाजा नहीं था कि अर्नब की गिरफ्तारी से शुरू हुई ये चर्चा वैचारिक धरातल पर चली जाएगी। अब बहस इस बात पर होने लगी थी कि लेफ्ट और राइट विंग के लोगों में क्या अंतर है। बातचीत राजनीति से इतर कला संस्कृति और पत्रकारिता के क्षेत्र को लेकर हो रही थी। एक मित्र ने बेहद आक्रामक तरीके से चर्चा में दखल दिया और कहने लगे कि लेफ्ट का जो इकोसिस्टम है, उसे राइट के लोग कभी बना ही नहीं पाएंगें या उसको बनाने में दशकों लगेंगे। लेफ्ट ने अपना जो इकोसिस्टम (तंत्र) बनाया, विकसित किया और उसको मजबूत किया उसके पीछे उनको वर्षो से मिला सत्ता का संरक्षण है।

जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक और फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक दशक तक लेफ्ट इकोसिस्टम को खाद पानी मिलता रहा। न सिर्फ खाद पानी मिला, बल्कि उन्होंने अपने लोगों को बड़ा और मजबूत बनाने का उपक्रम भी चलाया। पत्रकारिता की ही बात करें तो वहां कार्य कर रहे लोगों को विभिन्न तरीकों से मजबूती प्रदान की। बगैर किसी हिचक के या ये सोचे कि कौन क्या कहेगा। नतीजा ये है कि आज भी उनके इकोसिस्टम के लोग नियमित रूप से अपनी विचारधारा को समर्थन देने और उस विचारधारा से उत्पन्न राजनीति का पोषण करते दिख जाएंगे।

इसके अलावा, वो तमाम लोग वाम विचारों के विरोधी दक्षिणपंथी विचारधारा के विरोध में भी हमेशा एकजुट दिखते हैं। वो इतने पर ही नहीं रुका, उसने कहा कि अर्नब की गिरफ्तारी के समय लोगों ने इसको अच्छी तरह से देखा। जिस तरह से पुलिस सुबह छह बजे अर्नब को गिरफ्तार करने पहुंची और उसके परिवार के सामने उनके साथ धक्का मुक्की की, अगर ऐसा किसी लेफ्ट विंग के समर्थक पत्रकार के साथ होता तो कल्पना कीजिए क्या होता! उत्तर प्रदेश सरकार ने एक संपादक को गलत तथ्यों के साथ अपनी वेबसाइट पर लेख प्रकाशित करने के लिए सिर्फ नोटिस भेजा था तो लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। 

इंटरनेट मीडिया पर लेख लिखे जाने लगे थे। फेसबुक, ट्विटर पर टिप्पणियां आने लगी थीं। अंतरराष्ट्रीय लॉबियां सक्रिय हो गई थीं कि उनकी गिरफ्तारी न हो। गिरफ्तारी नहीं हुई। लेकिन अर्नब के केस में पूरी दुनिया देख रही है। उनकी पत्नी और बेटे पर भी केस कर दिया गया। लेकिन इंटरनेट मीडिया पर ट्वीट्स के अलावा क्या हुआ? उसको कहां से कितनी मदद मिली। क्या कोई लॉबी उसको जमानत दिलवाने के लिए सक्रिय हुई? कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा ज्ञात नहीं हो सका।

जिन न्यूजरूम से सरकारें बनाई जाती थीं, मंत्रियों के विभाग तय किए जाते थे, वहां काम करनेवाले लोग आज भी नैतिकता के झंडाबरदार बने हुए हैं। हमारी चर्चा में शामिल मित्रों में  से एक मित्र वामपंथी रुझान का भी था। उसने इस चर्चा को अपनी बातों से और भड़का दिया। उसने कहा कि तुम राइट विंग के लोगों की दिक्कत ये है कि अब भी तुमलोग हमसे ही स्वीकृति चाहते हो। मैं कई ऐसे उदाहरण दे सकता हूं जहां दक्षिणपंथी लेखक या सांस्कृतिक संस्थाओं के मुखिया की ये आकांक्षा रहती है कि वामपंथी खेमे से उनके लिखे को या उनके काम को स्वीकृति या मान्यता मिल जाए। मेरे दक्षिणपंथी मित्र ने हल्का सा विरोध करने जैसा कुछ कहा, लेकिन उसकी बात पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।

वामपंथी मित्र बोले चले जा रहा था कि जब तक लेफ्ट से मान्यता या स्वीकार की आकांक्षा की प्रवृत्ति रहेगी, तब तक न तो कोई वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा हो सकेगा और न ही कोई वैकल्पिक इकोसिस्टम बना पाओगे। फिर मजे लेने के लिए तो उसने यहां तक कह दिया कि वामपंथी लेखकों, पत्रकारों या अकादमिक जगत के लोगों को जितना राजाश्रय मिला था, उतना दक्षिणपंथी लेखकों आदि को कहां मिलता है। वामपंथी मित्र मजे भी ले रहा था, उसने पूछा कि अच्छा चलो ये बताओ कि किस राइट विंग पत्रकार को 37 साल की उम्र में पद्मश्री मिला?

उसने कहा कि काम कैसे होता है, यह मैं बताता हूं आप लोगों को। आपलोग याद करो जब मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पराजय के बाद कमल नाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। 

उन्होंने एक आदेश से पूरे सूबे की उन समितियों आदि को भंग कर दिया जो शिक्षा, कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी थी। इसी तरह से वर्ष 2004 में जब केंद्र में यूपीए सरकार आई थी तो संगीत नाटक अकादमी से सोनल मानसिंह को और सेंसर बोर्ड से अनुपम खेर को हटा दिया गया था। याद करो तब कोई हो-हल्ला मचा था क्या? कोई भी इकोसिस्टम इसी तरह से साल दर साल मजबूत किया जाता है। अपने लोगों को बिठाओ और विरोधियों को हटाओ। आपके यहां क्या होता है, उन पदों को भी सरकार नहीं भर पाती है, जो वर्षो से खाली पड़े हैं, समितियों के सदस्यों की तो बात ही अलग है।

संस्कृति से जुड़े तीन मंत्रलयों में कम से कम दो दर्जन संस्थान हैं जिनके मुखिया का पद खाली है। कांग्रेस को इकोसिस्टम बनाना होता है तो वो अशोक वाजपेयी के लिए वर्धा में एक विश्वविद्यालय स्थापित कर देती है और वहां उनको कुलपति बना देती है। पांच साल तक वो दिल्ली में रहते हुए वर्धा का विश्वविद्यालय चलाते हैं। आपके यहां क्या होता है कि बहुत मेहनत से एक भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय की संकल्पना को मूर्त रूप देने का उद्यम किया जाता है और नया मंत्री आकर उसको खारिज कर देता है। वामपंथी मित्र बोल रहा था और आमतौर पर आक्रामक रहनेवाले मेरे अन्य मित्र खामोश थे। 

ऐसा लग रहा था कि वो उसकी बातों से सहमत हो रहे हों। एक मित्र जिसको सबलोग घोर राइट विंगर कहते हैं, खामोशी से सब सुन रहा था। जब वामपंथी मित्र बोलते बोलते थोड़ा रुका तो वो जोर से बोल पड़ा, हां ठीक है, गलती मेरी ही है कि मैं राइट विंग का समर्थक हूं। बंद करो ये सब। और वो उठकर चला गया। सभा समाप्त हो गई।