जगमोहन सिंह राजपूत

भारत में प्रति वर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है। इस बार दिल्ली के आसमान पर जो घनी चादर छाई उसने स्कूल बंद करा दिए। बच्चों के खेल के मैदान पर जाने और घर से बाहर निकलने तक को प्रतिबंधित कर दिया गया। यहां तक कि सुबह टहलने को भी घातक घोषित कर घर के अंदर आराम करने का एकमात्र विकल्प निर्देशित हुआ। किसी ने दिल्ली को गैस चैंबर बताया तो किसी ने याद दिलाया कि हिटलर के गैस चैंबर्स कैसे रहे होंगे! जिनके पास विकल्प था और साधन-संसाधन उपलब्ध थे, वे कुछ दिनों के लिए दिल्ली के बाहर जाने लगे। बाकी अखबारों में ध्यान से पढ़ने लगे कि कब राहत की संभावना है! उन्होंने वायु गुणवत्ता सूचकांक के महत्व को जाना, जिसका दिल्ली में सामान्य स्तर 100 रखा गया है, मगर जो हजार तक पहुंच चुका था! इसके 300 पहुंचने पर ही स्कूल, कॉलेज, खेल इत्यादि बंद हो जाने चाहिए। इस वर्ष जो कुछ हुआ वह पहली बार नहीं हुआ है।
पिछले साल भी नगर निगमों, सरकारों, नियामक संस्थाओं और न्यायालय के निर्णयों, यानी सभी ने आश्वस्त किया था कि अगले साल दिल्ली में कोई असुविधा नहीं होने दी जाएगी। इन सभी संस्थाओं की अपनी-अपनी व्यस्तताएं और प्राथमिकताएं हैं। जाहिर है कि व्यवस्था की संरचना ही ऐसी है कि इनमें किसी को भी उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है! इनमें से प्रत्येक अन्य पर दोषारोपण करने में इतना प्रवीण है कि बिना पलक झपकाए स्वयं को पाक साफ घोषित कर देता है। समस्या से सभी परिचित हैं। उपाय भी स्पष्ट हैं। उनके लागू होने की योजनाएं भी कागजों पर हैं। धन आवंटन हो गया बताया जाता है। फिर भी हालात में सुधार नहीं दिखाई देता है। दरअसल हर सरकार अपने ही ढंग से चलती है। नेताओं की प्राथमिकता अगला चुनाव होती है और नौकरशाही ठहराव में विश्वास रखती है।
अब प्रयत्नपूर्वक जनता को यह समझाया जा रहा है कि सारा दोष पंजाब और हरियाणा के किसानों का है जो पराली जलाते हैं। इस पर किसानों का कहना है कि सरकार उन्हें विकल्प बताए और उसे अपनाने में सहायता करे, लेकिन सरकारें इस पर शांत हैं। दिल्ली सरकार को लगता है कि समस्या का हल केवल ‘सम-विषम’ ही है! ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्य जन के लिए अधिक सुलभ और सुगम वाहन व्यवस्था के लिए केवल वायदे ही काफी हैं जो शायद अगले चुनावों में फिर से दोहरा दिए जाएंगे। लोगों को याद होगा कि दिल्ली सरकार उसे पेरिस बनाने की घोषणा कर चुकी है। इस वर्ष दीवाली के पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी। मैंने अनेक बच्चों से पूछा कि क्या वे पटाखे जलाना चाहेंगे तो लगभग सभी ने बताया कि उन्हें स्कूलों में सिखाया गया है कि पटाखे क्यों नहीं जलाए जाने चाहिए। वे स्वच्छता पसंद करते हैं, पर्यावरण प्रदूषण समझते हैं और वे हर बार दीवाली पर वायु और ध्वनि प्रदूषण को महसूस करते हैं।
इस संबंध में स्कूलों और अध्यापकों की प्रशंसा होनी चाहिए। उनका प्रयास ही आगे चलकर ऐसी पीढ़ी तैयार करेगा जो इन समस्याओं की जड़ पर प्रहार कर सकेगी। बावजूद इसके क्या यह आश्चर्यजनक नहीं था कि पटाखों की बिक्री हुई, न्यायालय के निर्णय पर राजनीति भी हुई और कई जगह लोगों ने पटाखे जलाकर न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध जाकर अपनी बहादुरी का परिचय दिया। इस मनोवृत्ति को समझ पाना कठिन नहीं है। इसे समझने में महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में निहित वर्णन अत्यंत सहायक हो सकता है, जिसका उल्लेख उन्होंने 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के संदर्भ में किया है। उन दिनों वह दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे और यह उनका अधिवेशन में भाग लेने का पहला अवसर था। वह लिखते हैं कि ‘मुझे कांग्रेस में तो जाना था ही। कांग्रेस का यह मेरा पहला अनुभव था।’ पहले काम के प्रति दृष्टिकोण के बारे में वह लिखते हैं, ‘स्वयंसेवक एक दूसरे से टकराते रहते थे, जो काम जिसे सौंपा जाता था वह उसे नहीं करता था। वह तुरंत दूसरे को पुकारता था। दूसरा तीसरे को। बेचारा प्रतिनिधि तो न तीन में होता था, न तेरह में।’ प्रतिनिधियों के बारे में भी उनका अवलोकन था कि ‘जैसे स्वयंसेवक थे, वैसे ही प्रतिनिधि थे। वे भी स्वयं कोई कार्य नहीं करते थे। स्वयंसेवकों को ही हर काम के लिए निर्देश देते रहते थे। गंदगी की कोई हद नहीं थी। चारों तरफ पानी ही पानी फैला था। शौचालय कम थे। उनकी दुर्गंध की याद आज भी मुझे हैरान करती है। मैंने एक स्वयंसेवक को यह सब दिखाया। उसने साफ इन्कार करते हुए कहा यह मेरा काम नहीं है। मैंने झाड़ू मांगी। वह मेरा मुंह ताकता रहा। मैंने झाड़ू खोज निकाली और फिर शौचालय साफ किया।’ कांग्रेस के अधिवेशन में इस स्थिति को देखकर गांधी जी को आश्चर्य होना स्वाभाविक था, मगर वे दक्षिण अफ्रीका में भी यह जान चुके थे कि भारतीयों के संबंध में स्वच्छता को लेकर क्या धारणा थी? वह लिखते हैं, ‘दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले हिंदुस्तानियों पर लगाए जाने वाले एक आरोप का इलाज करने का काम मैंने वहां अपने प्रवास के दौर में ही सोच लिया था। हिंदुस्तानियों पर जब तब यह आरोप लगाया जाता था कि वे अपने घर-बार साफ नहीं रखते और बहुत गंदे रहते हैं।’ जब डरबन में प्लेग फैला तो गांधी जी ने समाज के सभी प्रमुखों के साथ मिलकर घर-घर जाकर स्वच्छता का संदेश दिया जिसमें उन्हें नगरपालिका के अधिकारियों का सहयोग तथा प्रशंसा भी मिली थी। इसी के पहले उन्होंने कुछ ऐसा लिखा जो स्वच्छता आंदोलन में सक्रिय रूप से भागीदारी करने वालों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकता है, ‘समाज के एक भी अंग का निरुपयोगी रहना मुझे हमेशा अखरा है। जनता के दोष छिपाकर उसका बचाव करना अथवा दोष दूर किए बिना अधिकार प्राप्त करना मुझे हमेशा अरुचिकर लगा है।’
यदि इसके मर्म को जनता और साथ ही साथ सरकारें तथा नौकरशाही भी समझ लें तो न केवल शहरों से लगातार बड़े होते जा रहे कचरे और गंदगी के ढेर हट सकेंगे, बल्कि किसानों को खेतों में पराली जलाने में सरकारी सहायता भी उपलब्ध होगी। जब तक जनमानस में वृहद स्तर पर मन साफ नहीं होगा, कर्तव्यों की समझ नहीं बढ़ेगी, दिल्ली के आकाश पर छाई जानलेवा धुंध अब भले ही साफ हो गई हो, लेकिन अगले साल फिर और अधिक भीषण रूप में आएगी। इसमें शामिल होने वाले शहरों की संख्या भी बढ़ती ही जाएगी।
[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]