[ संजय गुप्त ]: इस वर्ष के प्रारंभ में महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में दलित और मराठा समुदाय के लोगों के बीच हुई हिंसा की जांच करते हुए पुणे पुलिस ने जून माह में जब पांच लोगों को गिरफ्तार किया तो उनके पास से कुछ ऐसे पत्र मिले जिससे गहरी साजिश के संकेत मिले। जब जांच और आगे बढ़ी तो पुणे पुलिस ने विभिन्न राज्यों से पांच और लोगों को गिरफ्त में लिया। ये मानवाधिकार अथवा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान रखते हैैं। इन पर शहरों में नक्सलियों के मुखौटों की तरह काम करने, उन्हें वैचारिक समर्थन देने और उनके लिए संसाधन जुटाने का आरोप है।

पुणे पुलिस के अनुसार इन पांचों की नक्सलियों के साथ-साथ कश्मीरी अलगाववादियों से भी साठगांठ है और र्ये ंहसक आंदोलनों को भड़काते रहे हैैं। उच्चतम न्यायालय ने इन सभी की गिरफ्तारी यह कहते हुए नजरबंदी में बदल दी कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। नि:संदेह लोकतंत्र में असहमति के लिए स्थान होना चाहिए और अगर विरोध का स्वर घुटेगा तो लोकतंत्र तानाशाही में बदल जाएगा, लेकिर्न ंहसक आंदोलनों में लिप्त तत्वों को असहमति के अधिकार की आड़ में छिपने का अवसर नहीं दिया जा सकता। यह एक तथ्य है कि नक्सली समर्थक तत्व असहमति के अधिकार की आड़ र्में ंहसक गतिविधियों की वकालत करते हैैं।

अपने देश में आजादी के दो दशक बाद ही माओ से प्रभावित कानू सान्याल, चारू मजूमदार आदि ने पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी इलाके से व्यवस्था के खिलाफ हिंसा के रास्ते पर चलना शुरू किया था। इसी कारण माओवाद को नक्सलवाद के नाम से भी जाना जाता है। माओवाद या नक्सलवाद की विचारधारा के तहत भोले-भाले ग्रामीणों और खासकर आदिवासियों को यह सिखाया गया कि उन्हें अपने अधिकार राज्य के विरुद्ध हथियार उठाने से ही मिलेंगे।

नक्सली संगठनों ने धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाई और वे देश के उन हिस्सों में खासतौर पर सक्रिय हो गए जहां खनिज संपदा की प्रचुरता है। उन्होंने इन संसाधनों पर अपना अधिकार जताना और सरकारी तंत्र को लूट-खसोट करने वाला बताना शुरू कर दिया। जब नक्सलियों का आतंक बढ़ा तो केंद्र के साथ राज्य सरकारों ने उनके खिलाफ कमर कसी। आज स्थिति यह है कि 10 राज्यों के 68 जिलों में मौजूदगी दर्शाने वाले नक्सलियों में से 90 फीसद 35 जिलों तक सिमट कर रह गए हैं। नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई कितनी जोखिम भरी रही है, यह इससे समझा जा सकता है कि बीते 20 सालों में नक्सली हिंसा में लगभग 12 हजार लोग मारे गए हैैं। इनमें 2,700 सुरक्षा बलों के जवान हैैं।

बीते तीन वर्षों में नक्सली हिंसा में 25 प्रतिशत कमी आई है। इसकी एक वजह नक्सलियों से मिलीभगत रखने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा की गिरफ्तारी और सजा भी रही। वैसे नक्सली अभी भी चुनौती बने हुए हैैं। वे रह-रहकर बड़ी वारदात कर रहे हैैं। मई 2013 में सुकमा में उन्होंने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला कर 27 लोगों को मार डाला था। इनमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा आदि शामिल थे।

बीते दशकों में नक्सली संगठनों ने वंचित समाज को इस तरह बरगलाया कि इस तबके के लोगों ने हथियार उठाने से गुरेज नहीं किया। राज्य के खिलाफ हथियार उठाने को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं कहा जा सकता। इसे तो राष्ट्र-राज्य के विरुद्ध युद्ध ही कहा जाएगा। यही कारण है कि केंद्र में चाहे जो सरकार रही हो उसने नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा ही माना है।

संप्रग शासन के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो यह बात बार-बार दोहराते थे। इसमें दोराय नहीं कि बौद्धिक तबके के एक समूह को नक्सलियों से न केवल हमदर्दी है, बल्कि वह उनकी मदद भी करता है। उनके इस कुप्रचार को वैचारिक अंधता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता कि सरकारें शोषितों की आवाज कुचल कर उनके संसाधनों पर कब्जा कर रही हैैं। आज अगर भारत में लोकतंत्र है और उसकी मिसाल दुनिया भर में दी जाती है तो इसलिए नहीं कि यहां की सरकारों ने अपने ही लोगों पर जुल्म ढाए हैैं।

हकीकत यह है कि भारतीय संविधान के तहत जो कानून बने उनसे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी संतुष्ट नहीं। उनका असंतोष एक तरह के विद्रोह में तब्दील हो गया है। वे नक्सलियों के समर्थक इसीलिए हैैं, क्योंकि नक्सली हथियारों के बल पर सरकारों का विरोध करने के साथ खनिज एवं वन संपदा पर अपना एकमात्र अधिकार समझते हैैं। वे न तो लोकतंत्र पर आस्था रखते हैैं और न ही भारतीय संविधान पर।

आखिर किसी भी लोकतंत्र में कोई भी सरकार ऐसे खतरनाक तत्वों के प्रति क्यों नरमी बरते? ऐसा करना तो आत्मघात करने जैसा होगा। समझना कठिन है कि पुणे पुलिस की कार्रवाई को असहमति की आवाज दबाने की कोशिश किस आधार पर कहा जा रहा है? ध्यान रहे कि गिरफ्तार पांच लोगों में कुछ उस कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के समय भी गिरफ्तार किए गए थे जो आज पुणे पुलिस की कार्रवाई का विरोध कर रही है। आखिर कांग्रेस द्वारा उन लोगों का समर्थन करने का क्या मतलब जिनके बारे में पुणे पुलिस का दावा है कि वे आठ करोड़ रुपये से मशीनगन, ग्रेनेड, कारतूस आदि खरीदने की सोच रहे थे ताकि राजीव गांधी हत्याकांड जैसा कारनामा किया जा सके?

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को यह याद होना चाहिए कि संप्रग सरकार ने नवंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर कहा था कि माओवाद का मुखौटा बने कुछ बुद्धिजीवी शहरों में सक्रिय हैैं। इस हलफनामे के अनुसार ऐसे तत्व नक्सलियों की हथियारबंद गुरिल्ला टुकड़ी से भी अधिक खतरनाक हैं। यह हलफनामा यह भी कहता है कि कैसे ये तथाकथित बुद्धिजीवी मानवाधिकार और असहमति के अधिकार की आड़ लेकर सुरक्षा बलों की कार्रवाई को कमजोर करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेते हैं और झूठे प्रचार के जरिये सरकारों और उसकी संस्थाओं को बदनाम करते हैैं।

नक्सली संगठनों को अपने शहरी साथियों की जरूरत इसलिए है, क्योंकि वे जब बतौर बुद्धिजीवी कोई बात कहते हैैं तो वह कहीं न कहीं असर करती है। नक्सलियों के इन मुखौटों को झूठा प्रचार अभियान चलाने में भी आसानी होती है और मानवाधिकारों की आड़ लेने में भी।

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि नक्सलियों के समर्थक इसलिए अधिक बेचैन हैैं, क्योंकि उनसे प्रभावित लोगों का उनसे मोहभंग हो रहा है। 2011-2014 के मुकाबले 2014- 2017 की अवधि में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की संख्या में 185 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। हैरानी नहीं कि नक्सलियों और उनके समर्थकों की बेचैनी के कारण ही वह साजिश रची गई हो जिसका दावा पुणे पुलिस ने किया है।

जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में इस दावे की परीक्षा होगी, लेकिन गिरफ्तार किए गए लोगों के पक्ष में जैसी लामबंदी हो रही है उससे साफ है कि कुछ वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहने के सुनियोजित एजेंडे पर चल रहे हैैं। अवार्ड वापसी इसी एजेंडे का एक हिस्सा था।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]