नई दिल्ली। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के संदर्भ में हाल ही में कोर्ट की ओर से दो फैसले आए हैं, जो आजकल चर्चा में हैं। इनमें से पहला मामला अयोध्या के बाबरी ढांचे को ध्वस्त किए जाने को लेकर है और दूसरा मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के स्थान से शाही मस्जिद ईदगाह को हटाने और कुछ जमीन देने से संबंधित है। पहला निर्णय सीबीआइ की विशेष अदालत, लखनऊ ने दिया और दूसरा मथुरा के व्यवहार न्यायालय ने। पहला निर्णय घटना के 28 वर्ष बाद आया। वह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने समय सीमा तय कर दी।

न्यायाधीश एसके यादव की सेवा अवधि गत वर्ष पूरी हो चुकी थी, लेकिन इस मामले की सुनवाई के चलते उनका कार्यकाल बढ़ता रहा। यदि उच्चतम न्यायालय समय की लक्ष्मण रेखा न खींचता, तो शायद यह मामला न्यायालय में अभी और कुछ दिनों तक चलता रहता। न्याय की दुनिया का एक सर्वमान्य सिद्धांत या फिर कहें कि उद्देश्य है कि न्याय में विलंब न्याय को नकारने के समतुल्य है। वैसे इस मामले में आरोपी बनाए गए 49 लोगों में से इस अवधि में 17 तो स्वर्ग सिधार गए। यह आधारभूत न्यायालय का निर्णय है। इसके ऊपर उच्च न्यायालय फिर सर्वोच्च न्यायालय है।

सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय के बाद भी पुनíवचार याचिका दायर की जा सकती है। मुकदमेबाजी के माध्यम से इसे आगे ले जाने की सुगबुगाहट हो रही है। अगर ऐसा होता है, तो सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय होने में कई दशक तक लग सकते हैं। तब ऐसे न्याय का क्या अर्थ होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। प्रधानमंत्री रह चुके मोरारजी देसाई, जो कभी पीसीएस अधिकारी भी थे, एक बार उन्होंने कहा था कि एक मुकदमे में केवल एक अपील ही होनी चाहिए। त्वरित निर्णय तो न्याय की आत्मा है।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि से संबंधित वाद रंजना अग्निहोत्री द्वारा अधिवक्ता हरिशंकर जैन आदि द्वारा दायर किया गया। उसे चलने योग्य न मानते हुए अदालत ने उसे खारिज कर दिया। इसका व्यापक आधार न देते हुए न्यायालय ने सिर्फ यह कहा कि वादी बाहरी व्यक्ति है। अर्थात श्रीकृष्ण जन्मभूमि से संबंधित समिति या संगठन के ही लोग ऐसा वाद दायर कर सकते हैं। चूंकि यह अदालती निर्णय है, इसलिए केवल इतना कहूंगा कि यह निर्णय आश्चर्यजनक है। श्रीकृष्ण केवल समिति के या मथुरा के हैं, यह चकित करने वाली बात है। वे तो हर आस्थावान हिंदू और रसखान रहीम जैसे कितने ही मुसलमानों के भी हैं। 

यह वाद भी आगे बढ़ेगा और उन्हीं सोपानों से गुजरने की संभावना है, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। चुनाव में कोई दल इसे गरम करेगा और बाबरी ढांचे की कहानी दोहरायी जा सकती है। अब तो न्यायाधीश एसके यादव द्वारा पारित (जैसाकि ऊपर दर्शाया गया है) निर्णय में यह कह भी दिया गया है कि बाबरी ध्वस्तीकरण स्वत: स्फूर्त घटना थी और सभी आरोपी बरी हो गए।

क्या यह दृष्टांत का काम नहीं करेगा? क्या श्रीकृष्ण जन्मभूमि और वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद प्रकरण में इतिहास दोहरा नहीं सकता? ऐसा हो सकता है। बाबरी ढांचा ध्वस्तीकरण के बाद एक नारा प्रचलित हुआ था- यह तो केवल झांकी है, मथुरा और काशी बाकी है। दरअसल यह सब समग्रता में इसलिए जान सका, क्योंकि मैं उन दिनों सीधे प्रशासन से जुड़ा हुआ था। अच्छा होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस पर स्वत: संज्ञान लेकर ऐसे प्रकरणों पर एक दिशानिर्देश तैयार करे या फिर कोई उचित व्यवस्था दे।