मनीष पालीवाल/स्वाति पाराशर : दुनिया भर में शैक्षणिक संरचना बाजार मूल्यों, उच्च शिक्षा के निजीकरण और उपयोगितावाद से प्रेरित है। इस शैक्षणिक परिवेश से निकले हुए स्नातकों से अपेक्षा की जाती है कि वे अल्प समय में ही कामकाजी आबादी का हिस्सा बनें। एक सामान्य धारणा है कि एसटीईएम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) या वाणिज्य की तुलना में कला और समाज विज्ञान के स्नातकों के लिए व्यावसायिक अवसर अपेक्षाकृत कम होते हैं। कोविड महामारी ने इस धारणा को और मजबूत किया है। परिणामस्वरूप कला और मानविकी संकायों के संसाधनों में भारी कटौती हुई है। वैश्विक स्तर पर कला और मानविकी से जुड़े कई कार्यक्रमों-पाठ्यक्रमों को बंद भी कर दिया गया है। होना तो यही चाहिए कि तकनीक और कला एवं मानविकी के बीच ताल मिलाई जाए।

इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका में नेशनल एकेडमी आफ इंजीनियरिंग ने अपनी एक रिपोर्ट, ‘ग्रैंड चैलेंजेस फार इंजीनियरिंग’ में प्रमुख वैश्विक चुनौतियों की पहचान की है। अमेरिकन सोसायटी आफ मैकेनिकल इंजीनियर्स स्ट्रैटेजी विजन, 2030 और नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज ने भी अनुशंसा की है कि सामाजिक चुनौतियों के समाधान के लिए तकनीकी ज्ञान से परे देखा जाना चाहिए। विभिन्न संदर्भों में कई अन्य अध्ययन भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।

महामारी ने हमें सिखाया है कि दुनिया की गंभीर समस्याओं का समाधान सभी विषयों के निरंतर सहयोग में ही निहित है। हमें न केवल कला, समाजशास्त्र और मानविकी से संबंधित विषयों की आवश्यकता है, बल्कि इंजीनियरिंग और एसटीईएम डिग्री पाठ्यक्रमों में उनका समावेश भी उतना ही आवश्यक है। उच्च शिक्षा में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम ने तकनीकी शिक्षा पर इतना अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है कि कला और समाजशास्त्र जैसे मानवीय मूल्यों वाले विषयों के प्रति एक उदासीनता सी आ गई है।

अमूमन इंजीनियरिंग के छात्र शिक्षा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही कला एवं मानविकी में अनुमोदित पाठ्यक्रमों की सूची से कुछ विषय पढ़ते हैं, जिनका कोई परस्पर संबंध नहीं होता। अमेरिका जैसे देशों में इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री के लिए 15-20 प्रतिशत पाठ्यक्रम कला एवं मानविकी से संबंधित होता है। वहीं भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी आइआइटी में स्नातक की डिग्री के लिए लगभग 10 प्रतिशत पाठ्यक्रम कला एवं मानविकी से संबंधित हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में यह तीन प्रतिशत से कम है, जबकि विभिन्न राज्यों के कई इंजीनियरिंग कालेजों में कला एवं मानविकी के पाठ्यक्रम उपलब्ध ही नहीं हैं। कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं।

पिछले कुछ दशकों में तकनीकी क्षेत्र में भारी प्रगति हुई है। इस गतिशील, विकसित परिवेश में स्नातकों को वर्तमान एवं भविष्य में सक्षम बनाने के लिए अपने विचारों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाना, अप्रत्याशित समस्याओं को हल कर पाना या एक समूह में अच्छी तरह से काम कर पाना जैसी योग्यताओं की विशेष आवश्यकता है। ऐसी शिक्षा से जिसमें कला एवं मानविकी के पाठ्यक्रमों को इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम में विचारपूर्वक एकीकृत किया हो, आलोचनात्मक समीक्षा की क्षमता, परस्पर संवाद की क्षमता, मिलकर काम करने की क्षमता और आजीवन सीखने की क्षमता बढ़ती है। अतः हमें भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए स्नातकों को तकनीकी प्रशिक्षण से परे शिक्षा की आवश्यकता है, जो कला, मानविकी, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, इंजीनियरिंग और गणित जैसे विभिन्न विषयों को एकीकृत करती हो।

शिक्षा का यह एकीकृत माडल एक ही पाठ्यक्रम में कई विषयों के ज्ञान एवं अनुसंधान के विभिन्न तरीकों को एक साथ लाता है, जहां छात्र इन विषयों के बीच अंतर्संबंध समझकर सफल उपयोग एवं प्रयोग कर अपनी शिक्षा को समृद्ध कर सकते हैं। चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में नैतिक और व्यावसायिक जिम्मेदारियों को पहचानने और जानकारी भरे निर्णय लेने की क्षमता हासिल कर सकते हैं।

साथ ही वैश्विक, आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक संदर्भों में इनके प्रभाव पर विचार कर समुचित इंजीनियरिंग समाधान प्रदान करने में सक्षम हो सकते हैं। कुछ शोध इंगित करते हैं कि उच्च शिक्षा में कला, मानविकी और इंजीनियरिंग के एकीकरण से सकारात्मक परिणाम मिले हैं। इससे समालोचनात्मक सोच प्रक्रिया, नैतिक निर्णय लेने, समस्या-समाधान और परस्पर सहयोग जैसे कई कौशलों का विकास होता है, जो रोजगार क्षमता बढ़ाते हैं। यह एकीकृत दृष्टिकोण एक सामाजिक-सुधार उपकरण के रूप में महिलाओं एवं सीमांत वर्गों की भागीदारी भी बढ़ाता है।

एसटीईएम पाठ्यक्रम के स्नातकों को रचनात्मक समाधान की क्षमता के लिए सामाजिक स्वास्थ्य, सुरक्षा के प्रति शिक्षित होना चाहिए और विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं आर्थिक संदर्भों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। उच्च शिक्षा में केवल एक एकीकृत दृष्टिकोण ही बौद्धिक जुड़ाव, नीति-आधारित समाधान और गतिशीलता संभव कर सकता है। एकीकृत पाठ्यक्रम के लिए एक नए सोच वाली वैश्विक पहल जरूरी है, जिसमें संस्थानों और शिक्षाविदों को आगे आना होगा।

(पालीवाल अमेरिका के द कालेज आफ न्यूजर्सी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के विभागाध्यक्ष हैं और पाराशर स्वीडन के गोथेनबर्ग विवि में स्कूल आफ ग्लोबल स्टडीज में शांति एवं विकास की प्रोफेसर हैं)