कपिल अग्रवाल। विश्वभर में श्रम शक्ति के उपयोग का तरीका बदल चुका है, लेकिन भारत अभी भी पुराने र्ढे पर चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया जैसे विश्व के तमाम देशों में नौकरियों के लिए लिखित परीक्षा पद्धति लगभग खत्म कर दी गई है और निजी क्षेत्र की तरह सरकारी तंत्र भी अपनी जरूरत के मुताबिक श्रम शक्ति का, अनुबंध के आधार पर कैंपस प्लेसमेंट करता है। हमारे यहां स्थिति बिल्कुल उलट है। रिक्तियों के नाम पर लाखों-करोड़ों आवेदनों से अरबों रुपये की राशि एकत्र करने के बावजूद उपयुक्त व कुशल अभ्यर्थियों का चयन नहीं हो पाता है। संगठन की रिपोर्ट बताती है कि कोटा सिस्टम होने व केवल भर्ती परीक्षा में पास होना ही नौकरी पाने का पैमाना होने से बड़ी संख्या में अक्षम अभ्यर्थी भी राष्ट्र की सेवा में आ जाते हैं। इसके नुकसान की कीमत भारी पड़ जाती है।

संगठन ने पाया कि केंद्र सरकार के अधिकांश उच्च पदों पर या तो सेवा विस्तार प्राप्त नौकरशाह काबिज हैं या फिर वे खाली पड़े हैं। इसके अलावा तमाम पंचाटों, समितियों, नियामकीय संस्थानों, आयोगों आदि अधिकांश व्यवस्थाओं में सेवानिवृत्त वफादार कार्मिकों की सेवाएं बगैर किसी तय समय सीमा के ली जाती हैं। जबकि रूस, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया जैसे तमाम देशों की सरकारें महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर नामचीन शिक्षण संस्थानों से कैंपस प्लेसमेंट का लाभ उठाने की शुरुआत कर चुकी हैं।

हमारे देश में अधिकांश समस्याओं पर समितियां व आयोग बनाना एक परंपरा रही है। इन सभी समितियों व आयोगों का कार्यकाल तय तो किया जाता है, लेकिन अक्सर ये लंबी अवधि तक काम करते हैं, जिसका नुकसान देश को कई रूपों में उठाना पड़ता है। इस समय कई समितियां व आयोगों की उम्र तो बीस साल से भी ज्यादा हो चुकी है। सेवानिवृत्तों की वफादार जमात को उपकृत करने का सबसे ज्यादा खामियाजा राष्ट्र को विभिन्न स्तर पर उठाना पड़ रहा है। इससे सरकारी कामकाज में गुणवत्ता व मितव्ययिता का अभाव तो होता ही है, संबंधित क्षेत्र में विशेषज्ञता व पेशेवराना सोच के लोगों के आगमन में भी भारी गिरावट आती जा रही है। सरकारी स्तर पर वर्तमान में जितनी भी भर्तियां हो रही हैं वे सब सामान्य पदों पर हैं। आज रिजर्व बैंक के गवर्नर, राज्यों के राज्यपाल या प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्यता किसी युवा मैनेजमेंट टॉपर के पास न होकर सेवानिवृत्त या सेवा विस्तार पाए बुजुर्गो के पास है। अमेरिका में ओबामा ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत की तो विशेषज्ञ युवाओं को सलाहकार आदि महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया।

बहरहाल एक मोटे अनुमान के मुताबिक सरकार के एक लाख से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उच्च पदों पर सेवा विस्तार प्राप्त या सेवानिवृत्त कार्मिकों की फौज विराजमान है, जबकि बेशकीमती प्रतिभावान व शानदार कैरियर वाली युवा शक्ति दूसरे देशों का उद्धार कर रही है। इससे न केवल राष्ट्र को, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी चोट पहुंच रही है। भारत के शीर्ष प्रबंधन संस्थानों से निकलने वाले एक युवा पर सरकार के लाखों रुपये खर्च होते हैं। उसके विदेश चले जाने पर उस पर खर्च की गई यह राशि राष्ट्र के लिए व्यर्थ सिद्ध हो जाती है। वह सेवानिवृत्त या सेवा विस्तार पाए नौकरशाह के मुकाबले बेहद कम भुगतान पर कार्य करता है और उसके अपने राष्ट्र के लिए काम करने पर राष्ट्र की जो तरक्की होती, उससे भी हमें वंचित रहना पड़ता है। यानी हमारे देश के उस युवा की पूर्ण प्रतिभा का उपयोग बगैर किसी अपने निजी निवेश के दूसरे देश कर रहे हैं।

अपनी स्वयं की लागत घटाने व बेरोजगारी दूर करने बाबत बतौर ठेका या प्रशिक्षु नए व काबिल युवाओं को रोजगार देकर न केवल निजी क्षेत्र, बल्कि तमाम बड़े देशों ने एक बड़ा अच्छा फार्मूला अपनाया है। हमारा देश इसका अपवाद है, जहां सरकारी कर्मचारी को ही मौका दिया जाता है। समय आ गया है कि किसी सरकारी अधिकारी को दिए जाने वाले वेतन व भत्ते आदि की समीक्षा होनी चाहिए और यह मूल्यांकन हो कि जितना उन्हें दिया जाता है, क्या वाकई में देश के प्रति उनका उतना योगदान है।

यदि सरकार को वास्तव में बेरोजगारी दूर करनी है और अपने देश की युवा प्रतिभाओं का बेहतरीन उपयोग करना है, तो नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा और महत्वपूर्ण उच्च पदों आदि बाबत उकृष्ट अकादमिक रिकार्ड वाली युवा प्रतिभाओं की फौज तैयार करनी होगी, वरना नवीन भारत का सपना केवल सपनों तक ही सिमटा रह सकता है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]