डॉ. गुंजन राजपूत। Online Education कोरोना के इस नए युग ने हमारे जीने और सोचने के तरीके को बहुत बदल दिया है। जहां आज हम सिर्फ बचने के उपायों से जूझ रहे हैं, वहीं अपने रोजमर्रा के कार्यों को करने के तरीके में भी परिवर्तन ला रहे हैं। इन सबमें सीखने-सिखाने का तरीका सबसे प्रभावी रूप से बदला है। लगभग सवा साल से सभी शिक्षण संस्थान बंद होने से हर शैक्षिक संस्थान के पास ऑनलाइन शिक्षण को अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं। यहां सिर्फ विद्यार्थी ही नहीं, अध्यापक भी कुछ नया सीखता नजर आया। यह एक आसान विकल्प बनता गया, क्योंकि इसमें इंटरनेट और लैपटॉप या स्मार्टफोन की ही जरूरत होती है। इसी के साथ महामारी के बाद के एक नए शैक्षिक युग की भी शुरुआत हो रही है जहां ऑनलाइन एजुकेशन को एक स्थायी हिस्सा बनाने पर जोर दिया जा रहा है।

यूजीसी यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का 40 प्रतिशत से ज्यादा कोर्स ऑनलाइन पढ़ाने का प्रविधान इसकी एक शुरुआत है। वैसे तो इस विषय में सुझाव मांगे गए हैं और शिक्षा जगत से प्रतिक्रिया आनी भी शुरू हो गई है, परंतु क्या हम ये मान चुके हैं कि अब साल के आधे समय इलेक्ट्रॉनिक क्लासरूम में बिताने वाले हैं। वैसे तो कुछ तर्कों के अनुसार ये ही शिक्षा का भविष्य है, परंतु किसी भी शिक्षा प्रणाली की सफलता इस पर निर्भर करती है कि उसको इस्तेमाल करने वाले लोगों को इससे क्या फायदा हुआ है। तो क्या हमें शिक्षा की इस नई प्रणाली का समग्र आकलन नहीं करना चाहिए? हमें सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि सीखना आखिर है क्या और सही मायने में इसका मतलब क्या है? वर्षों से हुए शोध में सीखने की प्रक्रिया में समग्रता की महत्ता को बताया गया है।

हर शिक्षा नीति ने कक्षा के परिवेशन, प्रयोगशालाओं, परियोजना कार्य, व्यक्तिगत बातचीत कर के सीखने जैसे माध्यमों पर ही जोर दिया है। वास्तव में ये सभी माध्यम उन कौशलों को आकार देने में मदद करते हैं जो वास्तविक दुनिया में कार्य करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। साथ ही शोध के माध्यम से ये भी स्थापित किया गया है कि ऑनलाइन शिक्षा का मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अमेरिकन साइकोलोजिकल एसोसिएशन द्वारा 2020 में प्रकाशित एक लेख में जिक्र है कि भौतिक परिसर में नहीं जा पाने के कारण दोस्तों, शिक्षकों और एक तय दिनचर्या के अभाव से बच्चो में मानसिक दिक्कतें आती हैं। छात्रों में शैक्षिक प्रेरणा और सामाजिक विकास में शैक्षिक परिसर का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मिशिगन यूनिर्विसटी के एक प्रोफेसर ने अपने शोध में यह पाया कि जब बच्चे यह महसूस करते हैं कि उनके आसपास मित्र और शिक्षक हैं और वह उनकी परवाह करते हैं तब बच्चों ने अपने कार्य को अधिक दिलचस्पी से किया। शिक्षक की गैर मौजूदगी से सीखने वाली प्रक्रिया पर होने वाले दुष्प्रभावों की पहचान और चर्चा वर्षों से होती आ रही है।

वर्ष 2013 में एल्सेवियर के मशहूर जर्नल में छपे शोध में यह साबित हुआ कि ऑफलाइन के बजाय ऑनलाइन पढ़ने के दौरान छात्रों में अंत तक पाठ्यक्रम से जुड़े रहने की दृढ़ता कुछ प्रतिशत अंकों से कम हो जाती है। शिक्षक की भौतिक अनुपस्थिति, शिक्षक द्वारा दिए जाने वाले फीडबैक की कमी, वेब पर अस्पष्ट निर्देश और तकनीकी समस्याएं एक डिजिटल क्लासरूम के छात्रों में विफलता एवं निराशा का कारण बनती है और अंत में इन विफलताओं से पूरा शैक्षिक माहौल बाधित होता है। तो क्या हम ये मान लें कि हम एक ज्ञान-केंद्रित प्रणाली हैं और कल्याण केंद्रित बनना ही नहीं चाहते? अगर नहीं तो यकीनन हमें इस नई प्रणाली को अपनाने से पहले अपनी तैयारी मजबूत करनी होगी। सीखने के नए तरीकों पर नए ढंग से शोध करना होगा। पुराने शोधों के परिणामों के मद्देनजर छात्रों के समग्र विकास को अपना लक्ष्य बनाना होगा।

[निदेशक, राष्ट्रम स्कूल ऑफ पब्लिक लीडरशिप]