[ डॉ. एके वर्मा ]: भारत में मुस्लिम-विमर्श को हमेशा हिंदू-मुस्लिम और सेक्युलर-सांप्रदायिक चश्मे से देखा गया है। संभवत: इसलिए कि हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा को सांप्रदायिक ठहराया जाए और अन्य दल ‘स्वघोषित’ सेक्युलरवादी बताए जाएं ताकि मुसलमानों को लामबंद कर उनके वोट पर एकाधिकार किया जा सके। इसीलिए कट्टर और सांप्रदायिक मुस्लिम भी सेक्युलर जमात में शरीक हो जाते हैं और सेक्युलर पार्टियों की आड़ में मुस्लिम सांप्रदायिकता को अंजाम देते हैैं।

मुस्लिमों पर अंगुली उठाना पसंद नहीं

कांग्रेस सहित मुलायम और अखिलेश यादव की सपा, मायावती की बसपा, अजीत सिंह की रालोद, लालू प्रसाद यादव की राजद, ममता बनर्जी की तृणमूल और नीतीश कुमार की जदयू कभी भी मुस्लिमों पर अंगुली उठाना पसंद नहीं करतीं। अन्य क्षेत्रीय दलों जैसे आंध्र में वाइएसआर कांग्रेस, तेलुगु देसम पार्टी, केरल में यूडीएफ और एलडीएफ, तमिलनाडु में द्रमुक एवं अन्नाद्रमुक का और तेलंगाना में टीआरएस का यही हाल है। इस तरह की राजनीति से देश, मुस्लिम समाज और इन दलों का ही नुकसान हुआ है। इस राजनीति से समाज में गंगा-जमुनी संस्कृति को पनपने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि इसने मुसलमानों को हिंदुओं से अलग किया और प्रत्येक सांप्रदायिक विवाद में हिंदुओं और भाजपा को ही दोषी ठहराया।

मुस्लिम सांप्रदायिकता

हमारे नेता कभी यह साहस नहीं कर सके कि मुस्लिम समाज की गलतियों को भी इंगित करें। इससे सांप्रदायिक किस्म के मुसलमानों में यह भाव घर कर गया कि वे कुछ भी करें, सेक्युलर पार्टियां उन्हें कुछ नहीं कहेंगी। परिणामस्वरूप हिंदुओं के प्रति उनका व्यवहार गलत होने लगा जिससे हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में कटुता आई। दूसरे हिंदुओं में यह भाव पैदा हुआ कि भाजपा को छोड़ उनकी तरफदारी करने वाला कोई दल नहीं। हिंदू समाज से पिछड़ों और दलितों को निकाल दें तो केवल 19 फीसद सवर्ण कहे जाने वाले लोग बचते हैं। इसीलिए सेक्युलर दल सदैव प्रयत्नशील रहे कि पिछड़ों और दलितों को हिंदू समाज से काट दो तो हिंदू अपने आप समाप्त हो जाएगा।

देश के विभाजन का दर्द

देश के विभाजन का दर्द आज तक सालता है। संविधान बनाने वालों ने भी इसीलिए मुस्लिमों हेतु विशेष मौलिक अधिकारों की व्यवस्था बनाई और जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 के माध्यम से विशेष प्रावधान किया, लेकिन इससे मुस्लिमों की समस्याएं बढ़ी हीं। वे हमेशा अपने को कटा-कटा, असुरक्षित और अल्पसंख्यक समझते रहे जबकि हिंदू समाज ने उन्हें अपने में समाहित करने की कोशिश की। मुसलमानों में उच्च-जाति अर्थात अशरफ मुसलमान सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से संपन्न रहे। इसका लाभ उठाकर उन्होंने राजनीति में पैठ बना ली और अपनी पार्टी के इशारों पर पिछड़े और दलित मुस्लिमों अर्थात अजलाफ और अर्जाल मुस्लिमों या पसमांदा मुसलमानों को गोलबंद कर अपनी पार्टी के लिए वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे। इसके लिए वे हमेशा उन्हें हिंदुओं और खासकर भाजपा का भय दिखाते जिससे वे उनके वोट-बैंक के रूप में बने रहें।

मोदी का मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक दृष्टिकोण नहीं

विश्व में हिंदू समाज निहायत अल्पसंख्यक समाज है और फिर भी उसके कुछ अपने ही लोग हिंदू होने को जैसे सांप्रदायिकता का पर्याय बनाने पर तुले हैं। यह हिंदुओं को परेशान करता है। नरेंद्र मोदी ने 2014 से इस पूरे विमर्श की दिशा बदल दी जब उन्होंने 130 करोड़ भारतवासियों से ‘मन की बात’ द्वारा प्रति माह बातचीत शुरू की और सुशासन एवं विकास पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित किया। स्वतंत्रता के बाद से अब तक मुस्लिम और भाजपा (पहले जनसंघ) एक-दूसरे से दूर रहे, लेकिन मोदी ने मुसलमानों के प्रति कोई अल्पसंख्यकवादी या सांप्रदायिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया। उनका फोकस 130 करोड़ देशवासियों पर ही रहा। उनका मानना है कि मुसलमानों को अल्पसंख्यक बताकर ठगा गया और उनके वोट हथियाए गए।

तत्काल तीन तलाक पर कानूनी पहल

मोदी ने पहली ही पारी में सरकार का फोकस जात-पांत और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के बजाय ऐसे विकास पर रखा जो सभी को लाभ पहुंचाए। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि विकास योजनाएं कागज पर न होकर जमीन पर दिखाई दें। इससे मुस्लिम समाज को लाभ मिला और वह भी एक ऐसी पार्टी की सरकार से जिसे वे अमूमन वोट देने से कतराते रहे। इसी के साथ मोदी ने मुस्लिम समाज में तत्काल तीन तलाक पर कानूनी पहल की जो कोशिश की, उससे मुस्लिम महिलाओं के एक बड़े वर्ग में आशा की किरण जगी। यह सत्य है कि मुसलमानों में तीन-तलाक के मामले बहुत कम हैं, लेकिन यह जरूर है कि मुस्लिम महिलाओं पर उसकी तलवार हमेशा लटकती रहती है।

2019 के चुनावों में 14 प्रतिशत मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया

तत्काल तीन तलाक से संबंधित महिला के परिवार की कई पीढ़ियां बर्बाद हो जाती हैं। आज कोई भी मुस्लिम परिवार तलाक की त्रासदी नहीं झेल सकता। यही कारण है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में जहां देश के आठ फीसद मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया वहीं 2019 के चुनावों में 14 प्रतिशत मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया। इससे भाजपा अकेले दम पर देश में 300 सीटों का आंकड़ा पार कर गई।

मुस्लिम समाज का दिल जीत लिया

सेक्युलर पार्टियों के लिए यह बेचैनी का सबब जरूर है, लेकिन इसे समावेशी राजनीति की ओर भाजपा के बढ़ते कदम भी कहा जा सकता है। दूसरी पारी की शुरुआत में ही मोदी ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसने मुस्लिम समाज का दिल जीत लिया। उन्होंने देश में 5.77 लाख पंजीकृत वक्फ संपत्तियों की ‘जीआइएस-मैपिंग’ कराने का निर्णय लिया ताकि उनकी पहचान करने और उनसे अतिक्रमण हटाने में मदद मिले। इन संपत्तियों की ‘जिओ-टैगिंग’ और ‘डिजिटलीकरण’ से उनके मालिकाना हक में पारदर्शिता आएगी। ऐसी जमीनों पर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बहु-उपयोगी हॉल, सद्भाव-मंडप आदि बनेंगे।

मदरसे के शिक्षकों को प्रशिक्षण

मदरसे के शिक्षकों को विज्ञान, गणित, कंप्यूटर, हिंदी और अंग्रेजी का प्रशिक्षण दिया जाएगा जिससे मुस्लिम समाज की नई पीढ़ी का भला होगा तथा मुस्लिम युवाओं के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर का मोदी का सपना साकार हो सकेगा। मुस्लिम समाज ने इस पहल की प्रसंशा की है।

पीएम मोदी की मुस्लिम समाज से अपेक्षा

पीएम मोदी की मुस्लिम समाज से केवल इतनी ही अपेक्षा है कि वे देश के अन्य नागरिकों की तरह ही रहें और अल्पसंख्यक-सिंड्रोम से बाहर निकलें। आखिर मुस्लिम समाज को हिंदुओं से क्यों द्वेष होना चाहिए? क्या कभी मुस्लिम समाज से हिंदुओं की बेहतरी के लिए कोई आवाज नहीं उठनी चाहिए? 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद लाहौर में एक विश्वविद्यालय में व्याख्यान देकर लौटने के बाद मुझे यही लगा कि भारतीय मुस्लिमों को पाकिस्तानी दुष्प्रचार में न पड़कर वहां की जनता की भावनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए जो आज भारत के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैै।

मोदी-मॉडल

आज जरूरत इसकी है कि समाज को बांटने वाले मुस्लिम, दलित, पिछड़ा, महिला आदि विमर्शों को भारतीयता के फ्रेमवर्क में चलाया जाए जिससे इन विमर्शों  का स्वरूप रचनात्मक और सकारात्मक हो सके। इससे ही देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने में मदद मिलेगी। राजनीति के मोदी-मॉडल ने इस ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैैं )

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