[ राजीव सचान ]: हजारों करोड़ रुपये के चिटफंड घोटालों की सीबीआइ जांच को लेकर ममता और मोदी सरकार के बीच छिड़े घमासान पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दोनों पक्ष जो मन में आए वह दावा कर सकते हैैं, लेकिन ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता कि उन लाखों लोगों के मन में उम्मीद की कोई किरण जगी होगी जिन्हें सारधा और रोज वैली नामक चिटफंड कंपनियों ने लूटा। एक आंकड़े के अनुसार इन दोनों चिटफंड कंपनियों ने करीब 22 लाख लोगों के लगभग 20 हजार करोड़ रुपये हड़प किए। इन दिनों भले ही सारधा घोटाले की जांच को लेकर कोलकाता से लेकर दिल्ली तक बवाल मचा हुआ हो, लेकिन इस घोटाले से बड़ा घोटाला रोज वैली कंपनी ने अंजाम दिया था। ये दोनों कंपनियां हजारों करोड़ रुपये की लूट इसलिए आसानी से कर सकीं, क्योंकि उन्होंने तमाम नेताओं के साथ मीडिया के भी कई लोगों को अपने धनबल से संतुष्ट रखा।

सारधा घोटाला 2013 में ही सतह पर आ गया था। ममता सरकार ने इस घोटाले की जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन किया। इस जांच दल के प्रमुख वही राजीव कुमार थे जो इस समय कोलकाता के पुलिस आयुक्त हैैं और जिनसे सीबीआइ की पूछताछ को लेकर कोहराम मचा। जब विशेष जांच दल से जांच को नाकाफी बताकर सीबीआइ जांच की मांग हुई तो ममता सरकार ने ऐसी किसी जांच का विरोध किया, लेकिन मई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने यह देखते हुए सीबीआइ जांच के आदेश दिए कि इस घोटाले का दायरा पश्चिम बंगाल के बाहर पड़ोसी राज्यों में भी फैला हुआ है।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने सारधा के साथ अन्य चिटफंड कंपनियों की भी जांच जरूरी बताई थी इसलिए रोज वैली कंपनी भी सीबीआइ जांच के दायरे में आई। जल्द ही यह पता चला कि रोज वैली कंपनी ने तो कहीं अधिक लोगों को ठगा है। यह सही है कि बीते चार सालों में सारधा और रोज वैली घोटाले में कई लोगों की गिरफ्तारी हुई है और कई लोग जेल भी गए हैैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि इन दोनों घोटालों की जांच कब तक जारी रहेगी? इस बारे में तो दूर-दर तक कोई खबर ही नहीं कि इन दोनों कंपनियों की ठगी का शिकार हुए लाखों लोगों को किसी तरह की कोई राहत कब मिलेगी?

हालांकि सारधा और रोज वैली कंपनियों के संचालकों की तमाम संपत्तियां जब्त की जा चुकी हैैं, लेकिन अभी तक इन कंपनियों की संपत्तियां बेचकर ठगी के शिकार हुए लोगों को राहत देने की कोई कोशिश होती नहीं दिख रही है। इस तरह के घोटालों की वैसी जांच का कोई मतलब नहीं जिसमें पीड़ित लोगों को राहत मिलने की कोई सूरत न नजर आए। हो सकता है कि सीबीआइ जांच सही दिशा में हो, लेकिन क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि वह अभी तक वे दस्तावेज भी हासिल नहीं कर सकी है जो राजीव कुमार ने विशेष जांच दल के प्रमुख के नाते सारधा कंपनी के मुखिया सुदीप्त सेन और उसकी सहयोगी देवजानी मुखर्जी से हासिल किए थे।

सीबीआइ की मानें तो देवजानी ने यह स्वीकार किया था कि विशेष जांच दल ने उसके पास से एक लाल डायरी और पेन ड्राइव समेत कुछ दस्तावेज जब्त किए थे। यह हैरानी की बात है कि सीबीआइ अभी तक वह लाल डायरी और पेन ड्राइव की ही तलाश कर रही है। माना जाता है कि इसी लाल डायरी और पेन ड्राइव के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए सीबीआइ कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करना चाह रही थी। ममता सरकार ने ऐसा नहीं करने दिया और सीबीआइ अधिकारियों को ही बंधक बना लिया।

यदि इस बात में तनिक भी सच्चाई है कि कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार सारधा घोटाले के सुबूत दबाए बैठे हैैं तो सीबीआइ को उनसे पूछताछ करने के साथ उन्हें गिरफ्तार करने का भी अधिकार होना चाहिए। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को यह आदेश दिया है कि वह उनसे शिलांग में पूछताछ तो कर सकती है, लेकिन गिरफ्तार नहीं कर सकती। जिस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही है उसकी प्रगति और साथ ही उसकी दशा-दिशा से उसे परिचित होना चाहिए। हो सकता है कि वह परिचित हो, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। इन घोटालों का पटाक्षेप होता हुआ भी दिखना चाहिए। नि:संदेह पटाक्षेप तभी होगा जब ठगी का शिकार हुए लाखों लोगों को उनका मूलधन हासिल हो जाए। यदि कोई यह सुनिश्चित करने वाला नहीं है कि ऐसा यथाशीघ्र हो तो फिर सीबीआइ जांच का कोई मतलब नहीं है। जो जांच पीड़ित लोगों को राहत न दे सके उससे तो केवल घोटालेबाज ही संतुष्ट हो सकते हैैं।

सीबीआइ की सुस्त जांच के मामले में मोदी सरकार की भी जवाबदेही बनती है। यह सामान्य बात नहीं कि चार साल बीत चुके हैं, लेकिन सीबीआइ अभी तक सारधा घोटाले की तह तक भी नहीं पहुंची है। आज अगर सीबीआइ को लेकर विपक्षी दल केंद्र सरकार पर हमला कर रहे हैैं तो इसके लिए वह खुद भी जिम्मेदार है, क्योंकि उसके कार्यकाल में इस जांच एजेंसी की छवि और साख, दोनों को धक्का लगा है।

यह देखना दयनीय है कि मोदी सरकार ने न तो पुलिस सुधार में कोई दिलचस्पी ली और न ही सीबीआइ को वास्तव में सक्षम एवं भरोसेमंद जांच एजेंसी बनाने में, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विपक्षी नेता ममता सरकार के साथ खड़े होकर सही कर रहे हैैं। वास्तव में वे तो राजनीतिक अवसरवाद का निकृष्ट उदाहरण पेश कर रहे हैैं। इनमें वह राहुल गांधी भी हैं जो एक समय यह कह रहे थे कि जिन लोगों ने सारधा घोटाले को अंजाम दिया उन्हें ममता जी बचा रही हैैं। क्या राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता यह देखकर उत्साहित हैं कि ममता बनर्जी सीबीआइ अधिकारियों को बंधक बनाने वाली पुलिस के साथ धरने पर बैठने में संकोच नहीं कर रही हैैं? क्या उन्हें यह देखकर आनंद की अनुभूति हो रही है कि ममता दीदी इसके लिए हरसंभव जतन कर रही हैैं कि अमित शाह से लेकर योगी आदित्यनाथ के हेलीकॉप्टर पश्चिम बंगाल की धरती पर उतरने न पाएं?

अगर संविधान के साथ संघीय ढांचे की रक्षा इसी तरह होती है तो फिर छीछालेदर कैसे होती है? अगर सारधा घोटाले से ममता बनर्जी का कोई लेना-देना नहीं तो फिर वह कोलकाता के पुलिस आयुक्त का बचाव अपने किसी कार्यकर्ता की तरह क्यों कर रही हैैं? इससे भी गंभीर सवाल यह है कि एक पुलिस आयुक्त उनके साथ धरने पर बैठकर क्या कहना चाह रहा है?

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )