नई दिल्ली (राजीव सचान)। अब शायद ही कोई इससे अपरिचित हो कि खुद को दलित हितैषी दिखाने की कोशिश में कांग्रेस ने किस तरह राजघाट पर फर्जी उपवास करके अपनी फजीहत कराई। जातीय हिंसा के विरोध और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए छोले- भटूरे खाकर उपवास में बैठना या फिर इसी आयोजन में सिख विरोधी दंगों में आरोपित नेताओं का नजर आना महज एक भूल नहीं कही जा सकती।

यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि राहुल गांधी समेत अन्य कांग्रेसी नेता दलित हितों के नाम पर दिखावा करने तक सीमित थे। उनका एक मात्र उद्देश्य दलित हित की चिंता का ढिंढोरा पीटते हुए प्रचार पाना और केंद्र सरकार को दलित विरोधी साबित करना था। इसी बात को दूसरे शब्दों में इस तरह भी लिखा जा सकता है कि कांग्रेस दलितों को बरगलाने की कोशिश में थी। दरअसल जब कथनी और करनी में अंतर होता है तो पोल खुल ही जाती है।

कांग्रेस के दुर्भाग्य से उसकी पोल राहुल गांधी के उपवास पर बैठने के पहले ही खुल गई। चूंकि उसके पास अपने बचाव में कहने के लिए कुछ नहीं बचा था इसलिए दलितों की उपेक्षा और अनदेखी के आरोपों से दो-चार भाजपा उस पर हमलावर हो गई, लेकिन इसमें संदेह है कि कांग्रेस को कोसने से उसका काम बनेगा। वैसे भी विपक्षी दल इस कोशिश में हैं कि भाजपा को दलित विरोधी ठहराया जाए। इस कोशिश में अन्य दलों के साथ वह समाजवादी पार्टी भी सक्रिय है जो संप्रग सरकार के समय एससी-एसटी कर्मियों की प्रोन्नति में आरक्षण संबंधी विधेयक को रोकने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए थी और जो मायावती की ओर से बनवाए गए पार्कों में अस्पताल खोलना बेहतर समझ रही थी।

जिन मायावती ने 2007 में सत्ता में आते समय एससीएसटी एक्ट को लेकर करीब-करीब वैसे ही दिशानिर्देश जारी किए थे जैसे हाल में सुप्रीम कोर्ट ने दिए वह इन दिनों यह साबित करने की कोशिश में हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला दरअसल सरकार का फैसला है। स्पष्ट है कि दलित हित के नाम पर छल-छद्म का भी सहारा लिया जा रहा है। यह तय है कि अगले आम चुनाव तक राजनीतिक दलों के बीच यह नकली दौड़ जारी रहेगी कि दूसरों के मुकाबले सबसे बड़े दलित हितैषी वे खुद हैं। इसके लिए झूठ का सहारा लेने से भी बाज नहीं आया जाएगा, यह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस बयान से साबित होता है कि एससी-एसटी एक्ट को तो हटा दिया गया है। सच्चाई यह है कि दलित हित के मामले में कोई भी राजनीतिक दल ईमानदार नहीं। सबकी दिलचस्पी केवल दलितों के वोट हासिल करने में ही है। यही कारण है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग उत्पीड़न एवं भेदभाव का शिकार हो रहे हैं।

यह एक तथ्य है कि दलितों के उत्पीड़न और भेदभाव के तमाम मामलों में राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं अथवा उनके समर्थकों का ही हाथ होता है। अगर हर राजनीतिक दल दलितों का हितैषी है और उन्हें बराबरी का अधिकार देने के लिए प्रतिबद्ध है तो फिर ऐसे आंकड़े क्यों सामने आ रहे हैं कि दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं? जाहिर है कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि दलित हित के मामले में राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर है। वे कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। आखिर कितने ऐसे राजनीतिक दल हैं जिनमें सक्षम दलित नेता सरकार या संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं?

भाजपा का यह दावा सही तो है कि उसके पास अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के सांसदों की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन क्या इस संख्याबल की झलक सरकार और संगठन के स्तर पर भी दिखती है? भाजपा की मुसीबत इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि उसके कुछ दलित सांसद यकायक नाराज हो उठे हैं। यह बात और है कि यह नाराजगी भी फर्जी ही अधिक है। एक दलित सांसद को यकायक संविधान और आरक्षण इसलिए खतरे में नजर आने लगा, क्योंकि उनके पसंदीदा ठेकेदार को सड़क निर्माण का ठेका नहीं मिला। इसी तरह एक अन्य दलित सांसद इसलिए नाराज हो गए, क्योंकि वन विभाग की जमीन को अपना बताने के उनके दावे को शासन-प्रशासन ने सही नहीं माना। नि:संदेह दलितों की दशा में सुधार न होने का एक बड़ा कारण ऐसे दलित नेता भी हैं जो अपने समाज के बजाय अपने स्वार्थ की चिंता अधिक करते हैं।

उत्तर प्रदेश में जबसे सपा-बसपा में तालमेल हुआ है तबसे इन दलों से भाजपा में आकर सांसद बने नेता फिर से इन्हीं दलों में वापसी का जतन कर रहे हैं। यह जतन इसलिए नहीं किया जा रहा कि सपा और बसपा दलित हित के प्रति समर्पित हो गए हैं। असली कारण यह है कि इन दोनों दलों के टिकट पर जीत के आसार बढ़ गए हैं। ऐसे आसार बढ़ने का एक कारण यह भी है कि पहले लोकसभा और फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा को बढ़-चढ़कर वोट देने वाले दलितों को यह लगने लगा है कि उनके वोट तो ले लिए गए, लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं दिया गया।

अगर भाजपा नेतृत्व दलित समाज के इस अहसास को दूर नहीं कर सका तो इसके लिए वह अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकता। यह सही है कि विकास एक ऐसा मसला है जो जाति-संप्रदाय की विभाजन रेखाओं को कम करने का काम करता है, लेकिन जिस देश में जाति-संप्रदाय की राजनीति एक हकीकत हो वहां यह नहीं हो सकता कि वंचित वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व देने से बचा जाए।

नि:संदेह देश में दलित नेताओं अथवा उनके तथाकथित हितैषी नेताओं की कमी नहीं, लेकिन ऐसे नेता मुश्किल से ही दिखते हैं जो उनकी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को सही तरह समझने में समर्थ हों। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को लेकर आयोजित भारत बंद के दौरान केवल इसलिए उग्रता देखने को नहीं मिली कि अन्य दलों ने लोगों को उकसाने का काम किया अथवा हिंसा का सहारा लेने में संकोच नहीं किया। उग्रता का एक कारण यह भी रहा कि दलित समाज अपने अधिकारों के हनन को लेकर आशंकित था। इस आशंका ने उसकी बेचैनी बढ़ा दी थी, लेकिन भाजपा समेत अन्य दलों को इस बेचैनी का कहीं कोई आभास ही नहीं था। वे जमीनी हकीकत से अनजान थे। यह राजनीतिक नेतृत्व की सामूहिक विफलता के अलावा और कुछ नहीं। बेहतर हो कि देश के सभी राजनीतिक दल खुद को दलित हितैषी दिखाने की बेजा दौड़ लगाने के बजाय दलित समाज की बेचैनी के मूल कारणों को समझें।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)