[ राजीव सचान ]: जैसे नेकी और बदी में भेद है वैसे ही आचरण और दुराचरण में, लेकिन राजनीति और खराब राजनीति में कोई अंतर नहीं और यही राजनीति की सबसे बड़ी त्रासदी है। इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि राजनीति और खराब राजनीति के बीच का बचा-खुचा भेद भी तेजी से खत्म होता जा रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए न केवल तथ्यों से परे बातों, बल्कि झूठी खबरों का भी सहारा ले रहे हैैं। ऐसा इसीलिए हो रहा है, क्योंकि राजनीति में सक्रिय लोग इसकी परवाह नहीं कर रहे हैैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा? इसी का नतीजा है कि राजनीति करने वाले अथवा राजनीति में सक्रिय लोग कितना भी बुरा व्यवहार करें उसे राजनीति ही कहा जाता है और इसी कारण अपने देश में झूठ, छल, कपट और हर तरह की शरारत भी राजनीति ही है। नेताओं के छल-कपट भरे आचरण को मुश्किल से ही क्षुद्र राजनीति की संज्ञा दी जाती है। अगर राजनीति के नाम पर यह सब कुछ होगा तो फिर वह समाज और देश का भला तो दूर रहा, अपना भी भला नहीं कर सकेगी।

हालांकि किताबी तौर पर उस व्यवस्था को राजनीति के नाम से जाना जाता है जो समाज और देश को दिशा देती है, लेकिन राजनीति को परिभाषित करने वालों ने शायद ही कभी सोचा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब हर दृष्टि से खराब आचरण को राजनीति का नाम दे दिया जाएगा। आज ऐसी ही स्थिति है। अच्छा का उलट खराब होता है, लेकिन पता नहीं क्यों राजनीतिक तौर-तरीकों के विपरीत कार्य भी राजनीति ही कहलाते हैैं। बिना किसी शर्म-संकोच नेतागण एक-दूसरे के दावों को झूठा बताते हैैं और जब कोई सवाल खड़ा करता है तो यह कहा जाता है कि सच का पता लगाना तो मीडिया का काम है। इसका सीधा मतलब है कि नेताओं को झूठ बोलने में कोई संकोच नहीं रह गया है। आखिर मीडिया या फिर अन्य कोई झूठ फैलाते नेताओं की गलतबयानी की तहकीकात क्यों करे? यह बात और है कि कुछ लोग यह काम करने भी लगे हैैं। तथ्य जांचने या फिर झूठी खबरों की छानबीन करने का काम चल निकला है तो इसके लिए राजनीतिक दल और उनके समर्थक ही जिम्मेदार हैैं।

पहले राजनीति के नाम पर ओछे काम आम तौर पर छुटभैय्ये नेता या उनके समर्थक करते थे, लेकिन अब तो बड़े से बड़े नेता भी राजनीति के नाम पर कुछ भी करने या फिर कहने के लिए तैयार रहते हैैं। पहले अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अभद्र और अशालीन भाषा का इस्तेमाल आम तौर पर छोटे नेता और कार्यकर्ता करते थे, लेकिन बीते कुछ समय से यही काम बड़े नेता भी करने लगे हैैं। नतीजा यह है कि राजनीति कहीं अधिक कटुता और कलह भरी दिखने लगी है। नए साल के आगमन के बाद भी राजनीति के तौर-तरीकों में कहीं कोई बदलाव आने की उम्मीद नहीं है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आम चुनाव और नजदीक आ गए हैैं और यह कोई नई-अनोखी बात नहीं कि चुनावी माहौल में नेताओं की जुबान कहीं अधिक बेलगाम हो जाती है। वे अभद्र और अशालीन भाषा का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करते। चुनाव जीतने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैैं।

आखिर यह किससे छिपा है कि हाल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किस तरह घूम-घूम कर प्रधानमंत्री को चोर कहने का काम किया। केवल उनके भाषण ही नहीं, उनके कई ट्वीट भी किसी ट्रोल सरीखे नजर आए। राफेल सौदे को सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट मिलने के बाद भी उन्होंने प्रधानमंत्री को चोर कहना जारी रखा। उनकी ओर से भाषा की मर्यादा का जैसा उल्लंघन देखने को मिला वैसा ही उल्लंघन उनके विरोधियों ने उन्हें जवाब देने के क्रम में किया। इस पर हैरानी नहीं, क्योंकि जब एक बार किसी एक पक्ष की ओर से भाषा की मर्यादा का उल्लंघन होता है तो फिर जवाब में दूसरे पक्ष की ओर से भी ऐसा ही उल्लंघन किया जाता है। वर्तमान में जैसा राजनीतिक माहौल बन रहा है उसे देखते हुए देश को आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप के क्रम में भाषा की मर्यादा का और अधिक उल्लंघन देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। समस्या केवल यह नहीं है कि राजनीतिक विमर्श और व्यवहार अमर्यादित हो रहा है। इससे भी गंभीर समस्या यह है कि संसदीय कामकाज का स्तर भी बुरी तरह गिर रहा है।

कुछ समय पहले तक तो संसद और विधानसभाओं के कामकाज में कुछ भेद दिखता भी था, लेकिन अब वह भेद भी मिटता दिख रहा है। संसद के मौजूदा सत्र को ही लें। 20 कार्यदिवसों वाले इस सत्र में मुश्किल से दो-तीन दिन ही कुछ कामकाज हुआ है। हो सकता है कि हंगामा मचाने वाले राजनीतिक दलों को सदन की कार्यवाही बाधित करने पर कुछ हासिल कर लेने का संतोष होता हो, लेकिन उनके आचरण से संसद की साख और उसकी महत्ता तेजी से खत्म होती जा रही है। अब अगर संसद नहीं चलती तो कोई उसकी अधिक परवाह करता नहीं दिखता। संसद न चलना अब एक बड़ी हद तक अपेक्षित सा हो गया है। हैरानी तो तब होती है जब किसी दिन संसद बिना स्थगन और हंगामे के चल जाती है। दरअसल जैसे यह एक मुहावरा भर रह गया है कि राजनीति देश को दिशा दिखाती है वैसे ही यह भी कि संसद देश की आकांक्षाओं का सर्वोच्च मंच है। चूंकि अब जिन मसलों पर संसद में बहस होनी चाहिए उन पर संसद से बाहर कहीं अधिक बहस हो जाती है इसलिए संसद चलने को लेकर आम लोगों की दिलचस्पी कहीं अधिक घट गई है। यह स्थिति राजनीति और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं।

विडंबना यह है कि राजनीतिक दल इसका अहसास करते नहीं दिख रहे हैैं कि संसद की महत्ता और उसकी गरिमा कम होती जा रही है। संसदीय कामकाज में कितनी गिरावट आई है, इसका एक बड़ा उदाहरण यह है कि लोकसभा के मुकाबले राज्यसभा का प्रदर्शन कहीं अधिक दयनीय दिखने लगा है। अगर संविधान निर्माताओं को यह पता होता कि संसदीय कामकाज के मामले में राज्यसभा में लोकसभा से ज्यादा हंगामा होगा तो वे उसे उच्च सदन या फिर वरिष्ठों के सदन की संज्ञा हर्गिज नहीं देते। संसद के कामकाज का विधानसभाओं पर कैसा बुरा असर पड़ रहा है, इसका एक उदाहरण तब देखने को मिला जब यह खबर आई कि हरियाणा विधानसभा का शीतकालीन सत्र केवल एक दिन का होगा।

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]