गिरीश्वर मिश्र: देश एक विलक्षण शब्द है। एक ओर तो वह स्थान को बताता है तो दूसरी ओर दिशा का भी बोध कराता है और गंतव्य लक्ष्य की ओर भी संकेत करता है। देश धरती भी है, जिसे वैदिक काल में मातृभूमि कहा गया। इसी मातृभूमि के लिए बंकिम बाबू ने प्रसिद्ध वंदे मातरम गीत रचा। इस देश-गान में शस्य-श्यामल, सुखद, और वरद भारत माता की वंदना की गई है। गुलामी के दौर में देश में सबके प्राण बसते थे और देश पर विदेशी के आधिपत्य से छुड़ाने के लिए मातृभूमि के वीर सपूत प्राण न्योछावर करने को तत्पर रहते थे। देश के प्रति यह उत्कट लगाव स्वदेश के प्रति निष्कपट प्रेम में व्यक्त होता था। कविवर गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के शब्दों में कहें तो ‘वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’ स्वदेश एक तरह के चैतन्य के भाव से जुड़ा हुआ था, जिसके समक्ष सब कुछ छोटा हो जाता था। एकजुट होकर देशवासियों ने अन्याय के विरुद्ध अनोखी लड़ाई लड़ी और देश राजनीतिक रूप से आजाद हो गया।

यह अलग, परंतु जरूरी सवाल है कि अंग्रेज विरासत में कैसा भारत छोड़ कर गए। उन्होंने न केवल भारत भूमि को खंडित किया, बल्कि यहां के समाज, उसके मानस और आचार-व्यवहार को भी तरह-तरह से विभाजित और विषाक्त किया। फलत: स्वतंत्रता मिलने के बाद स्वदेशी, स्वदेशाभिमान और देशप्रेम जैसे विचार दकियानूसी से लगने लगे और चलन से बाहर होते गए। मातृभूमि के साथ देश-सेवा का भाव आता था, पर राष्ट्र राज्य बन जाने पर शासन करने और सत्तानशीं होकर प्रभुता पाने का भाव आने लगा।

आज अनेक प्रदेशों में सत्ता समीकरणों का खेल जिस तरह चल रहा है, उससे साफ जाहिर है कि देश जो कभी लक्ष्य था, अब निजी साधन होता जा रहा है और देश-सेवा के नाम पर हर तरह से आत्मगौरव का विस्तार ही एकमात्र उद्देश्य होता जा रहा है। लोक-व्याप्ति की जगह राजनीति का व्यापारीकरण तेजी से हो रहा है और सरकार बनाने के लिए लोकलुभावन नारे और वायदे किए जाने की परंपरा चल पड़ी है। राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के आगे चारा फेंकने के विविध उपाय चुनावी तैयारी की रणनीति का मुख्य भाग हुआ करता है, जो प्राय: जीतने के साथ ही विस्मृत हो जाते हैं। संसद चलाने से ज्यादा उसे ठप करने के जतन किए जाते हैं और उसे जायज भी ठहराया जाता है। इन सब राजनीतिक कसरतों के बीच स्वदेश का वह मूल सरोकार खोता जा रहा है, जिसके साथ स्वदेशी शासन की कामना अंग्रेजों के अधीन भारत में देश सेवकों द्वारा की गई थी।

भारत की आजादी का अमृत महोत्सव हर भारतीय के लिए जहां गर्व का क्षण है, वहीं आत्मनिरीक्षण का अवसर भी प्रस्तुत करता है। लगभग दो सदियों लंबे अंग्रेजों के औपनिवेशिक परिवेश ने भारत की जीवन पद्धति को शिक्षा, कानून और शासन व्यवस्था के माध्यम से इस प्रकार आक्रांत किया था कि देश का आत्मबोध निरंतर क्षीण होता गया। इसके फलस्वरूप हम एक पराई दृष्टि से स्वयं को और दुनिया को भी देखने के अभ्यस्त होते गए। उधार लिए गए विचार के सहारे बनी यथार्थ की समझ और उसके मूल्यांकन की कसौटियां ज्ञान-विज्ञान में नवाचार और आचरण की उपयुक्तता के मार्ग में आड़े आती रहीं और राजनीतिक दृष्टि से एक स्वतंत्र देश होने पर भी देश को मानसिक बेड़ियों से मुक्ति न मिल सकी।

नए भारत के लिए नीति-निर्माण और योजना की चर्चा के दौरान महात्मा गांधी वास्तविक अर्थ में अप्रासंगिक हो गए और उनके सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक विचार सिर्फ ऐतिहासिक रुचि के बनकर रह गए। विकास में पश्चिम हमसे आगे था और हमें वैसा ही बनना था वह भी फौरन से पेश्तर। परिणामत: हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल और उधारी की भरमार हो गई। आज तीन चौथाई सदी बीतने पर हम देश को जहां खड़ा पा रहे हैं और जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, वह स्थिति यदि कुछ क्षेत्रों में गर्व का अनुभव कराती है तो अनेक क्षेत्रों में असफलता और हीनता का भी अहसास कराती है। आज हर कोई यह अनुभव कर रहा है कि गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक और अन्य अपराध, विभिन्न प्रकार के भेदभाव, घर और बाहर फैलती हिंसा, पारस्परिक अविश्वास, निजी और सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के स्खलन की घटनाएं जिस तरह बढ़ रही हैं, वे आम आदमी की जीवनचर्या को निरंतर असहज और पीड़ादायी बनाती जा रही हैं। छल-छद्म, दिखावे, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद, चापलूसी और अकर्मण्यता के चलते उत्कृष्टता की दिशा में आगे बढ़ने में आने वाली अनेक बाधाएं लोगों में क्षोभ पैदा कर रही हैं।

वर्तमान की उपलब्धियों और सीमाओं को ध्यान में रखकर देश के भविष्य पर विचार करते समय हमारा ध्यान देश को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने पर जाता है। इस लक्ष्य को पाने के लिए स्वदेशी का विचार स्वधर्म के रूप में उभर कर आता है, जो सकारात्मक कार्यसंस्कृति को संभव कर सकता है। स्वदेशी को अपनाते हुए हम अपने निकट के संसाधनों के उपयोग पर ध्यान देते हैं और पारिस्थितिकी की सीमाओं का सम्मान करते हैं। इससे स्थानीय व्यवस्था को सुदृढ़ करने में मदद मिलती है, सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है और सामान्य जन को समृद्ध होने का अवसर भी उपलब्ध होता है। इससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और विस्थापन तथा पलायन की विकराल होती समस्या का समाधान भी मिलता है। इन सबसे ऊपर प्रकृति-पर्यावरण के अंधाधुंध शोषण और दोहन की वैश्विक चुनौती का निदान भी स्वदेशी की राह पर चलकर ही मिल सकेगा। स्वदेशी की दृष्टि को अंगीकार करने से ही भारत अपनी समस्याओं का सफलतापूर्वक समाधान कर सकेगा।

(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)