नई दिल्ली, जेएनएन। आंकड़े बताते हैं कि स्कूल जाने वाले कुल बच्चों में 8.4 करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो नियमित रूप से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पा और 78 लाख बच्चों को जबरन काम पर भेजा जाता है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन यानी –असर- की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में करीब 2.8 प्रतिशत छात्र-छात्राएं स्कूल बीच में ही छोड़ देते हैं।

शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का कुल बजट का 4.6 प्रतिशत हिस्सा खर्च होता है। कटु सत्य है कि सरकारी स्कूलों में संसाधनगत सुविधाओं की भारी कमी के चलते अभिभावक निजी स्कूलों का रुख करते हैं। पहले से ही कुशल व प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी झेलते हजारों ऐसे स्कूल हैं जहां शौचालय तो क्या बच्चों के बैठने तक की व्यवस्था नहीं है।

ऐसे में नौनिहाल खुले में पढ़ने को विवश हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश में अभी भी करीब 1,800 ऐसे स्कूल हैं जो किसी पेड़ या टेंट के नीचे लग रहे हैं। एक कड़वी सच्चाई है कि आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। विडंबना ये है कि वृहद शिक्षा प्रणाली का दम भरने वाले देश में अब तक तकरीबन 61 लाख बच्चों तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुंचाई जा सकी है।

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर यूनिसेफ की एक वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं। उसमें भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में बसे स्कूलों की हालत तो बहुत ही बदतर है। मसला सिर्फ कमजोर शिक्षा प्रणाली और बदहाल होते शिक्षण संस्थानों का ही नहीं है, बल्कि देश में शिक्षकों की दयनीय आर्थिक स्थिति का भी है।

एक ओर जहां कुशल और प्रशिक्षित शिक्षकों की भारी कमी है, वहीं शिक्षा मित्र जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं में फर्जीवाड़े के जरिये अशिक्षित व अकुशल शिक्षकों की भर्ती का भी है। तंत्र के खोखलेपन ने प्राथमिक शिक्षा की जड़ों को कमजोर करने का काम किया है।

समस्याएं अनगिनत हैं जिनसे पार पाना आसान नहीं है। एक बड़ा रोड़ा शिक्षकों को नियमित वेतन न मिल पाने का भी है। यह एक प्रचलित जनधारणा है कि आधारभूत शिक्षा को सुदृढ़ कर समाज और राष्ट्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जब शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक अपने लक्ष्य के प्रति न केवल नैतिक रूप से कटिबद्ध हों, बल्कि आर्थिक रूप से भी सशक्त हों। इस दिशा में बदलाव के प्रयास परिवर्तनगामी हो सकते है।