नई दिल्ली [डॉ. सुधांशु त्रिवेदी]। लोकसभा चुनाव की आहट के साथ ही विपक्षी दलों की तथाकथित एकता की सुगबुगाहट या कहें कि बेमेल सुर साधने की कवायद भी शुरू हो गई है। इससे कम से कम एक बात साफ हो गई है कि भाजपानीत राजग सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विराट व्यक्तित्व का सामना करने में कोई भी दल अकेले सक्षम नहीं हो पा रहा है। सभी को लगता है कि शायद कई दल मिलकर भाजपा के विजय का रथ रोक सकें। सत्ता के लिए विपक्षी एकता का ऐसा प्रयास भारतीय राजनीति में पहली बार नहीं हो रहा है। सर्वप्रथम 1967 के लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के विरुद्ध अनेक राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं। फिर 1977 में केंद्र में तमाम पार्टियों का विलय कर जनता पार्टी की सरकार बनी। फिर 1989 में भाजपा और वाम दलों दोनों के सहयोग से वीपी सिंह की सरकार बनी और फिर 1996 और 1997 में भाजपा को रोकने के नाम पर देवगौड़ा और गुजराल सरकारें बनीं। और बीच में अनेकानेक बार ऐसे कई प्रयास हुए जो चुनाव की दहलीज तक अथवा जनता की नजर तक नही पहुंच सके। प्रश्न यह उठता है कि क्यों इनमें से एक बार भी कोई प्रयोग दो साल भी नहीं टिक पाया। ज्यादातर सरकारें तो कैलेंडर का साल बदलने से पहले ही सत्ता से बेदखल हो गईं।

इंजीनियरिंग का विद्यार्थी होने के नाते मैं यह कह सकता हूं कि कोई भी निकाय, व्यवस्था या युग्म यानी गठजोड़ तभी काम कर सकता है जब उसमें एक गुरुत्व केंद्र हो जो सभी विरोधाभासी बलों में संतुलन बिठा सके। राजनीतिक दृष्टि से कहें तो एक राष्ट्रव्यापी संगठन जो सत्तालोलुपता से दूर समर्पण के साथ काम कर सके। पूर्व में यह काम करने में भारतीय जनसंघ सक्षम था। आज भी कांग्रेस के कई नेता व्यक्तिगत चर्चा में यह स्वीकार करते हैं कि आपातकाल के समय जेपी आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रव्यापी नेटवर्क और अनुशासित एवं समर्पित कैडर की शक्ति का बहुत बड़ा हाथ था। आज राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी ऐसा दल नही है जो दूर-दूर तक भी इन गुणों से ओतप्रोत हो और सभी क्षेत्रीय दलों के मध्य संतुलन बनाने का काम कर सके। एक समय राष्ट्रव्यापी संगठन रखने वाली, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का राजनीतिक और नैतिक आधार सिमटता जा रहा है। एक दौर में कांग्रेस यह नारा देती थी, ‘सारे भारत से नाता है, सरकार चलाना आता है।’ आज कर्नाटक की अवश्यंभावी पराजय के बाद वही कांग्रेस प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए पीपीपी मॉडल में सिमटने पर आमादा है। आज यदि कांग्रेस के लिए यह कहा जाए ‘केवल परिवार से नाता है, आधार सिकुड़ता जाता है’ तो गलत न होगा। दूसरी समस्या यह है कि यह तथाकथित गठबंधन नेताओं के अहंकार के नाजुक संतुलन पर टिका होगा। कांग्रेस यदि नेतृत्व देने का विचार करे तो उसका नेतृत्व ऐसे नेता राहुल गांधी के हाथ में है जो वरिष्ठता और परिपक्वता दोनों पैमानों पर तमाम विपक्षी नेताओं से पीछे हैं।

कांग्रेस नेतृत्व कई बार देश की जनता की नजर में नायक दिखा तो कभी खलनायक दिखा, लेकिन कभी भी अपरिपक्व या सहज जन संवाद में उपहास का पात्र नहीं बना। कांग्रेस नेतृत्व की वर्तमान स्थिति ऐसे संभावित गठबंधन में नेतृत्व की संभावनाएं अत्यंत क्षीण कर देती है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने का दावा खुद कर दिया। इसे किसी अपरिपक्व नेता का अति उत्साह कहा जाए अथवा किसी पार्टी अध्यक्ष का वह बयान जो विपक्षी एकता का सूत्रधार होने के राजनीतिक और नैतिक आधार खो देने की विवशता और भय से निकला है। आप कल्पना करिए कि कांग्रेस आज कितनी दयनीय स्थिति में है कि वह राज्य उत्तर प्रदेश जहां से नेहरू गांधी परिवार की छह पीढ़ियों ने राज किया वहां यदि सपा समर्थन न करे तो अमेठी और रायबरेली की सीट निकालना मुश्किल हो जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री पद का दावा हास्यास्पद लगता है।

पहले भी जब गठबंधन हुए तो 1996 से पहले हर गठबंधन के साथ भाजपा का राष्ट्रव्यापी स्वरूप और प्रतिबद्ध कैडर जुड़ा हुआ था। समाजवादी आंदोलन की पार्टियां भी इस कदर क्षेत्रवाद, परिवार और जातिवाद में डूब कर पृथक इकाइयां नहीं थीं और सबसे बढ़कर उस समय कांग्रेस कुशासन के खिलाफ सुशासन की संभावनाओं की एक बंद मुट्ठी का प्रतीक संयुक्त विपक्ष बनने का प्रयास करता था, क्योंकि विपक्ष सत्ता में नहीं अथवा नगण्य रहा था। आज स्थिति इसके ठीक उलट है। कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल लंबे समय तक सत्ता भोग चुके हैं। तो सबकी मुट्ठी खुली हुई है। इन दलों ने जैसे मुट्ठी भर-भर कर जनता का धन लूटा है। जनता यह देख चुकी है कि ये खुली मुट्ठी खाक की नही है, बल्कि जनता से लूटे गए हजारों-लाखों करोड़ों रुपये की है। 60, 70 और 80 के दशक में कांग्रेस पर जो आरोप लगाकर विपक्षी दल राजनीति करते थे, वे आज उसमें आकंठ डूबे हुए है। ज्यादातर नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे हैं तो कई जेल की सजा काट रहे हैं। केवल अपनी जाति और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के सहारे अपने भ्रष्टाचार को छिपाने का असफल प्रयास करते रहे हैं।

भ्रष्टाचार, परिवार, जातिवाद, संप्रदायवाद के प्रतीक मिलकर कोई सकारात्मक विकल्प देंगे यह सोचना वैसा ही है जैसे पानी में कई चम्मच लाल मिर्च मिलाने के बाद कोई समझाए कि इसमें से शरबत निकलेगा। दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार भारत को इक्कीसवीं सदी में समृद्धि और स्वाभिमान के नए युग की तरफ ले जा रही है और पहली बार देश का निर्धन और वंचित वर्ग मुख्यधारा में आकर गतिमान हो रहा है, पर विपक्ष की इस कवायद से एक निष्कर्ष तो साफ है कि भारत की राजनीति में एक युगांतर स्थापित हो गया है। जैसे किसी जमाने में कांग्रेस बनाम शेष की राजनीति का युग था, आज भाजपा बनाम शेष की राजनीति का युग आ गया है। आज मोदी हटाओ का नारा वैसा ही है जैसे कभी कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं के विरुद्ध नारे होते थे।

भारत की राजनीति में 20वीं सदी में कांग्रेस केंद्र बिंदु थी तो अब 21वीं सदी में भाजपा भारतीय राजनीति के केंद्र में आ गई है। और मोदी समकालीन भारतीय राजनीति के महानायक बन चुके है। सरकार के कामकाज पर तमाम लोग अनेक प्रकार के विचार रखने को स्वतंत्र हैं। अंतिम निर्णय तो जनता ही करती है, परंतु जिन लोगों ने अपने-अपने शासनकाल में जनता-जनार्दन का ही काम तमाम कर दिया वे अच्छा काम करने का दावा करें तो यह हास्यास्पद लगता है। मेरा मानना है कि 2019 से पहले बेसुरे रागों की यह जुगलबंदी कोई सुर नहीं साध पाएगी, बल्कि अपने नेताओं के दागदार और बेनकाब चेहरों को साथ लेकर पूर्व के चुके हुए नुस्खे पर टिका हुआ तिलिस्म बनने से पहले ही टूट जाएगा।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)