नई दिल्ली [गिरीश्वर मिश्र]। उच्च शिक्षा में शामिल छात्रों की विशाल संख्या को देखने पर भारत की उच्च शिक्षा विश्व में अन्यतम लगती है, लेकिन विस्तार में जाने पर उसकी स्थिति एक अंधी सुरंग जैसी लगती है, जिसमें कई मोड़ एवं रुकावटें हैं और गंतव्य अस्पष्ट है। इस अंधी सुरंग से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं दिख रहा है। शिक्षक और शिक्षार्थी इस सुरंग में जगह-जगह ठहरे हुए हैं। उन्हें रोशनी की प्रतीक्षा है। इस सुरंग का निर्माण अंग्रेजों के समय शुरू हुआ था जब उन्होंने 19वीं सदी में भारत में आधुनिक विश्वविद्यालयों की नींव डाली थी। औपनिवेशिक शासन की जरूरतों के मुताबिक सहायक तैयार करने के लिए उन्होंने शुरू में कॉलेज खोले। इन कॉलेजों के लिए उपाधि देने, पाठ्यक्रम बनाने और उन पर निगरानी रखने की जिम्मेदारी संभालने के लिए विश्वविद्यालय बनाए गए। मद्रास में मेडिकल कॉलेज 1835 में, रुड़की में थाम्पसन इंजीनियरिंग कॉलेज 1847 में और आगरा में सेंट जोंस कॉलेज 1850 में खुले। विश्वविद्यालयों को शिक्षण केंद्र बनाना बहुत बाद की घटना है।

कलकत्ता में विश्वविद्यालय तो 1857 में स्थापित हुआ, पर वहां पर शिक्षण कार्य 1904 में शुरू हुआ। इसके पहले यह विश्वविद्यालय केवल परीक्षा करवाता था। यही स्थिति मुंबई और मद्रास विश्वविद्यालयों की भी थी जो 1857 में स्थापित हुए थे। तब शिक्षा कॉलेजों द्वारा ही दी जाती थी जो स्वयं स्वतंत्र इकाई की तरह कार्य करते थे। उच्च शिक्षा की आरंभिक व्यवस्था में विश्वविद्यालय सिर्फ प्रशासनिक कार्य करते रहे और शिक्षण और ज्ञान-सृजन की दृष्टि से उनकी भूमिका नगण्य ही बनी रही। यही मॉडल भारतीय उच्च शिक्षा का मूल आधार बना। औपनिवेशिक युग में ही आगे चल कर प्रांतीय सरकारों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र शुरू किए और कॉलेजों को संबद्धता देने वाले विश्वविद्यालय भी स्थापित किए। इससे उच्च शिक्षा का प्रसार और विस्तार हुआ। वर्तमान में उच्च शिक्षा के स्तर पर 85 प्रतिशत छात्र कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और 15 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में। आज अधिकतर विश्वविद्यालय ज्ञान का सृजन करने वाले केंद्र कम और प्रमाणपत्र जारी करने वाली फैक्ट्री अधिक हैं। स्वतंत्र भारत में केंद्र सरकार को उच्च शिक्षा के नियमन और विस्तार का अधिक अवसर और दायित्व दिया गया।

संविधान में शिक्षा को राज्य का विषय स्वीकार किया गया, पर उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की दृष्टि से केंद्र को विशेष भूमिका दी गई। स्कूली शिक्षा मूलत: राज्य का विषय है, पर 14 वर्ष की आयु तक प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराना राज्य और केंद्र, दोनों का दायित्व है। कुल मिलाकर केंद्र शिक्षा के मामले में अधिक सक्षम है। संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा शिक्षा को पूर्ण रूप से समवर्ती सूची में रखकर केंद्र को राज्यों का स्थायी सहयोगी बना दिया गया।

देश में 1857 से 1947 केबीच कुल 20 विश्वविद्यालय स्थापित हुए। 1947 में कॉलेजों की संख्या 500 से भी कम थी। 2014-15 के आंकड़ों के हिसाब से देश में 757 विश्वविद्यालय और 40,760 कॉलेज हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के अन्य केंद्रीय संस्थान 162 हैं। मानित यानी डीम्ड विश्वविद्यालय 160, निजी विश्वविद्यालय 267 और 168 राज्य शासन के विश्वविद्यालय हैं। छात्र संख्या बढ़ी जरूर है, लेकिन अभी भी 18 से 23 वर्ष के आयु वर्ग में केवल 24 प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा में अध्ययनरत हैं। केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा को नियमित करने के लिए अनेक नियामक संस्थाओं जैसे यूजीसी, नैक, एमसीए. एनसीटीई इत्यादि का गठन किया जो मान्यता देने, कार्य-दशाओं, वेतन मान तय करने आदि का कार्य करती हैं।

केंद्र ही नेट, नीट, मैट, कैट, जेईई आदि प्रवेश परीक्षाएं कराता है। प्राय: यह माना जाता है कि उच्च शिक्षा के हर पक्ष पर केंद्र का नियंत्रण है। अध्यापकों की सेवा शर्तें, वेतनमान, अर्हता, कार्य के घंटे, प्रोन्नति आदि यूजीसी ही तय करता है। राज्य सरकारें इन्हें लागू करने में न केवल हीला-हवाली करती हैं, बल्कि प्राय: ग्रांट न देने के कारण या फिर भविष्य में अपने बल पर वेतन आदि देने के बदले केंद्र की अनेक योजनाओं का लाभ ही नहीं उठाती हैं। इससे राज्य शासित अनेक विश्वविद्यालयों में स्वीकृत पद लैप्स हो जाते हैं। राज्यों को लगता है कि उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। वे विकल्प ढूंढ़ते हैं। उन्होंने नेट की जगह स्लेट चलाया।

केंद्र सरकार ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, भारतीय प्रबंधन संस्थानों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं आदि की स्थापना की। उन्हें पर्याप्त साधन मुहैया कराए और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया। दूसरी और राज्य सरकारों ने आंख मूंदकर उच्च शिक्षा के विस्तार का काम किया। पिछले कुछ दशकों में केंद्र ने गुणवत्ता के साथ उच्च शिक्षा की सुविधाओं के विस्तार को अंजाम दिया और अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालय और संस्थान खोले। दूसरी ओर राज्य सरकारों ने राजनीतिक दबाव और लोकप्रियता अर्जित करने के लिए गुणवत्ता का ध्यान रखे बगैर उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया। इससे शिक्षा की गुणवत्ता गिरी। फिर निजी क्षेत्र भी इसमें शामिल हो गया और स्ववित्तपोषित कॉलेजों की भरमार हो गई। आज ज्ञान या कौशल से रहित शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उच्च शिक्षा की व्यवस्था में स्वायत्तता कम है और सरकारी नियंत्रण अधिक, जो अनपेक्षित दखल के रूप में बढ़ता जा रहा है। भरोसे और विश्वास की कमी के कारण शैक्षिक परिवेश में क्षोभ का वातावरण पनप रहा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण ने एक और आयाम जोड़ा।

पहले तो सरकारें इससे बचती रहीं, लेकिन नौवें दशक में शुरू उदारीकरण के दौर में निजीकरण तेजी से बढ़ा। समवर्ती सूची का लाभ लेते हुए अनेक राज्यों ने अपने एक्ट बनाए। इसी के साथ निजी विश्वविद्यालयों की धूम मच गई। यूजीसी ने मात्र यह कहा कि ये विश्वविद्यालय संबद्धता नहीं देंगे और उनका कार्य क्षेत्र प्रदेश तक ही सीमित रहेगा। 2016 तक 239 निजी विश्वविद्यालय स्थापित हो गए। निजी कॉलेजों की संख्या में भी अनियंत्रित वृद्धि हुई और उन्होंने उच्च शिक्षा की रंगत बदल दी। सरकारी विश्वविद्यालयों से संबद्ध ये कॉलेज संख्याबल के कारण समूची व्यवस्था पर हावी हुए जा रहे हैं।

आपसी जोड़तोड़ के चलते निहित स्वार्थसाधन के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर अतिरिक्त दबाव बनता है। इसके दुष्परिणाम राज्य शासित विश्वविद्यालयों में अनेक रूपों में दिखते हैं। शिक्षा का सुचारु रूप से संचालन केंद्र और राज्य का साझा दायित्व है। साझा दायित्व में आपसी समझदारी और सहयोग की जरूरत होती है, लेकिन आज राज्यों और केंद्र के बीच राजनीतिक उठापटक चलती ही रहती है। अब तो सरकार बदलने के साथ उच्च शिक्षा की संस्थाएं बलि का बकरा बन जाती हैं और उन पर येन केन प्रकारेण राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने की होड़ मच जाती है। चूंकि शैक्षिक गुणवत्ता ही विश्वविद्यालयों की पूंजी है इसलिए उसकी रक्षा और संवद्र्धन की दृष्टि से विश्वविद्यालयों के ढांचे पर ध्यान देना होगा और उन्हें स्वायत्त केंद्रों के रूप

में विकसित करना होगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)