स्वार्थ का शालीन नाम ‘मोह’ है। हम सभी परस्पर स्वार्थ से जुड़ते हैं। इसी कारण उनके प्रति मोह रहता है। भोगों के परिप्रेक्ष्य में भी मोह रहता है, किंतु तब उसे आसक्ति कहा जाता है। अपेक्षा रखना स्वार्थ है। स्वार्थ ममत्व को जन्म देता है। ममत्व ही मोह है। लोक में व्यक्ति का (आत्मा का) तन, परिजन, मित्र, संबंधी और धन आदि से सीधा जुड़ाव होता है। सभी से कुछ न कुछ स्वार्थ सिद्ध होता है। इसलिए इनके प्रति स्वाभाविक मोह होता है।

लौकिक-संबंध अथवा वस्तु हमारे लिए जितना उपयोगी होते हैं, उतने ही वे काम्य हैं। उनके प्रति उतनी ही आसक्ति दृढ़ होती है। हमें जिन लोगों के प्रति जितना मोह या राग- भाव होता है, उनके खोने (वियोग) का भय भी उतना ही प्रबल होता है। अब यदि इस मोह (राग-भाव) से छुटकारा पा लिया जाए तो सांसारिक दुखों से आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है। मोह से छूटने का एकमात्र उपाय है ‘वैराग्य’। वैराग्य वह शक्ति है जो मनुष्य को अभय प्रदान करती है। वैराग्य आत्मसाक्षात्कार कराने का प्रवेश द्वार है।

वैराग्य-प्राप्ति की प्रक्रिया मन के रागात्मक होने वाले कारणों के सर्वथा विपरीत है। लौकिक संबंधों से अपेक्षाओं का पूर्णतया त्याग और उनके प्रति ममत्व त्याग कर निर्विकार होना वैराग्य-प्राप्ति का उपाय है, किंतु यह इतना सरल नहीं है, क्योंकि इसके लिए ‘समत्व-बुद्धि’ का अनुभव करने के लिए दृढ़तापूर्वक अभ्यास करना पड़ेगा। समत्व-बुद्धि निर्मल-मन का विषय है। लौकिक अपेक्षा, कामना, आसक्ति और मोह आदि विकार संकीर्ण और अशुद्ध-मन के कार्य-व्यापार हैं। इसके विपरीत अलौकिक और सर्वव्यापक सत्ता को एकमात्र स्वीकार करना, उसी के साक्षात्कार की अपेक्षा रखना स्थिर-प्रज्ञ या समत्व-बुद्धि प्राप्त करने के प्रारंभिक चरण हैं।

अलौकिक (परमात्म) सत्ता को सर्वोपरि मानने से लौकिक-प्रपंच स्वत: शांत होने लगते हैं। उस परम सत्ता को सर्वव्यापी जान लेने के बाद जीव-जीव में ईश्वर का वास होने से सभी में प्रेम होता है और सबके प्रति समत्व-बुद्धि विकसित होती है। यह मन की रागात्मक-मनोभूमि से ऊपर उठकर विरागी-स्थिति में प्रवेश करने की प्रक्रिया है। तब न किसी से शत्रुता होती है और न मित्रता। यदि कुछ होता है तो रागरहित मन में एक अलौकिक और स्थाई आनंद वास करता है। 

डॉ. रमेश मंगल वाजपेयी