[डॉ. एके वर्मा]। जैसे-जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव जोर पकड़ रहा है, उसके परिणामों को लेकर उत्सुकता बढ़ती जा रही है। राजस्थान में पिछले 20 वषों में कभी भी सत्तारूढ़ दल की वापसी नहीं हुई। क्या भाजपा 2018 में इस तिलिस्म को तोड़ पाएगी? मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी सीधी लड़ाई है, लेकिन यहां की सत्ता पर भी लंबे अर्से से भाजपा ही काबिज है। ऐसे में पार्टी इन दोनों राज्यों में भी सत्ता विरोधी रुझान से जूझ रही है।

तेलंगाना राज्य के गठन के बाद से वहां पहली बार विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। वहां मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस के खिलाफ कांग्रेस और तेदेपा का गठजोड़ बन गया है। वहां टीआरएस और भाजपा का भले ही औपचारिक गठबंधन नहीं है, लेकिन वे एक दूसरे के निकट जरूर नजर आ रहे हैं।

मिजोरम में कांग्रेस दोबारा सत्ता प्राप्ति में जुटी है, लेकिन जिस तरह विधानसभा अध्यक्ष हिफेयी हाल में पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा में आ गए उससे कांग्रेस की वापसी में संदेह है, क्योंकि अब तक वहां कांग्रेस के पांच विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं। विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों ने लगभग समान रुझान दिखाया है। राजस्थान में स्थिति भाजपा के विरुद्ध, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस में कांटे की टक्कर, तेलंगाना में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन को बढ़त तथा मिजोरम में अस्पष्ट बहुमत की स्थिति बताई गई। कांग्रेस और भाजपा दोनों सर्वेक्षणों को नकार रही हैं। कांग्रेस राजस्थान के साथ-साथ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जीतने का दावा कर रही है। वहीं भाजपा नया इतिहास लिखने तथा तेलंगाना और मिजोरम में अच्छे प्रदर्शन को लेकर आश्वस्त है।

क्या राजस्थान में भाजपा 20 वषों के सिलसिले को तोड़ पाएगी? वैसे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से राजस्थान का मतदाता खुश नहीं, लेकिन क्या उसकी नाखुशी का लाभ विरोधी पार्टी अर्थात कांग्रेस को मिलेगा? इसकी बानगी मार्च 2018 के उपचुनाव रहे, जिनमें भाजपा अलवर और अजमेर की दोनों लोकसभा सीटें तथा मंगलगढ़ विधानसभा सीट हार गई। विगत आठ महीनों में क्या पार्टी ने ‘डैमेज कंट्रोल’ की कोशिश की है?

राज्यों में चुनाव केवल विकास से नहीं जीते जाते, बल्कि जाति, अस्मिता और लोकलुभावनवाद भी महत्वपूर्ण हैं। वसुंधरा ने इन तीनों पर दांव चलाया है। उन्होंने राजपूत, गुर्जर, व्यापारी और दलितों पर 654 मुकदमों को वापिस लिया, 80 दिन सूरज गौरव यात्र द्वारा जनसंपर्क किया और करोड़ीमल मीणा की नेशनल पीपुल्स पार्टी का भाजपा में विलय कराया जिसे पिछले चुनावों में 3.5 प्रतिशत वोट मिले थे। मीणा का लगभग 20-25 विधानसभा क्षेत्रों में अच्छा-खासा प्रभाव है।

भाजपा के बागी हनुमान बेनीवाल अपनी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी से उन जाट मतों को काट सकते हैं जो कांग्रेस को जा सकते थे। वहां बसपा और माकपा भी कांग्रेस के ही वोट ही काटेंगे। इसलिए, अभी के सर्वेक्षणों से कांग्रेस को बहुत उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। उसे इन पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा। साथ ही मतदाताओं को घरों से निकालना और मतदान के लिए प्रेरित करना भी जरूरी है। इसमें भाजपा-संघ के कार्यकर्ता सिद्धहस्त हैं। देखना है कि कांग्रेस इसकी क्या काट निकालती है? चुनावों में पार्टी, प्रत्याशी, नेता, मुद्दे, प्रचार और प्रबंधन सभी का महत्व होता है। इनमें किसी की भी उपेक्षा से परिणाम बदल सकते हैं। कांग्रेस की एक कमजोरी यह भी है कि उसने अभी तक मुख्यमंत्री पद का दावेदार ही घोषित नहीं किया।

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं। वह 13 वषों से सत्तासीन हैं। उनकी स्वीकार्यता भी व्यापक है। समस्याएं तो प्रत्येक राज्य में रही हैं और रहेंगी भी, लेकिन शिवराज के नेतृत्व में मध्य प्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहा। विकास कार्य हुए। कांग्रेस में वैचारिक भटकाव लगता है। वह भ्रमित है कि ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ के बिना चुनाव नहीं जीते जा सकते। उसने घोषणा पत्र में ‘राम-वन-गमन’ पथ का निर्माण, प्रत्येक पंचायत में ‘गौशाला-शेड’ बनवाने का वायदा किया है।

राहुल गांधी का कैलास मानसरोवर, महाकाल, ओंकारेश्वर और अन्य मंदिरों में जाकर स्वयं को शिव भक्त तथा चित्रकूट में राम भक्त के रूप में अपने पोस्टर लगवाना आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनसे लगता है कि एक सोची समझी रणनीति के तहत कांग्रेस ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की ओर कदम बढ़ा रही है। मप्र में कमलनाथ-ज्योतिरादित्य-दिग्विजय की तिकड़ी ने कांग्रेस के तीन फाड़ कर रखे हैं, पर राहुल के पास इसका कोई समाधान नहीं। कांग्रेस ने बसपा के छह प्रतिशत वोटों को भी भाव नहीं दिया। भाजपा से कांटे की टक्कर में बसपा से गठजोड़ कांग्रेस के लिए बहुत कारगर होता। वहीं शिवराज की स्वीकार्यता और पीएम मोदी की रैलियां मतदाताओं के लिए आकर्षण हैं जिनके दम पर भाजपा सत्ता में पुन: लौट सकती है।

छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह न केवल सत्ता विरोधी रुझान, बल्कि नक्सलवाद से भी जूझ रहे हैं। सर्वेक्षणों में कांग्रेस और भाजपा के मत प्रतिशत में कोई फर्क नहीं, लेकिन 2013 की तरह इस बार भी बसपा कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है। पिछले चुनाव में बसपा ने न केवल 4.27 फीसद वोट और एक सीट हासिल की, बल्कि लगभग एक दर्जन सीटों पर पांच से 25 प्रतिशत वोट प्राप्त कर कांग्रेस की पराजय सुनिश्चित की। बस्तर में मायावती का काफी प्रभाव है। उनकी रणनीति है कि यहां अपना जनाधार मजबूत किया जाए।

मायावती ने अजित जोगी से गठजोड़ किया है और वे दोनों मिलकर कांग्रेस के वोट खींच सकते हैं। इससे भाजपा की राह आसान होगी। तीनों राज्यों में सत्ता विरोधी रुझान भाजपा के लिए बड़ा सिरदर्द है, लेकिन उससे निपटने के लिए भी पार्टी ने नई रणनीति भी बनाई है। उसने सत्ता-विरोधी रुझान को प्रतिनिधि-विरोधी रुझान में बदलकर कई मौजूदा विधायकों और मंत्रियों के टिकट काट दिए हैं। मप्र में 46 विधायकों के टिकट कटे हैं। इससे उपजे विद्रोह को दबाने के लिए पार्टी ने ऐसे कई विधायकों के रिश्तेदारों को टिकट दिया है।

चुनावों में भाषा और संस्कारों की धज्जियां भी उड़ाई जा रही हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पीएम मोदी के लिए अक्सर अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इससे प्रधानमंत्री को भले ही फर्क न पड़े, जनता को जरूर पड़ता है जिसने मोदी को चुना है। क्या अब भारतीय राजनीति का विमर्श मुद्दों की जगह अपशब्दों का होगा? मोदी को आप पसंद-नापसंद करें, यह आपका अधिकार है, लेकिन सार्वजनिक स्तर पर भाषाई शालीनता और शिष्टाचार तो बनाए रखें।

इन चुनाव नतीजों का लोकसभा चुनावों के लिए विशेष महत्व है। इससे भाजपा के खिलाफ ‘महागठबंधन’ में न केवल तेजी आएगी, बल्कि भाजपा को लोकसभा चुनावों के लिए रणनीतियों को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। यह जरूर है कि नतीजे चाहे जो आएं, अभी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकजुटता ऐसी नहीं जो जनता को प्रभावित कर सके। जनता को ‘मोदी-हटाओ’ की नकारात्मक राजनीति पसंद नहीं आएगी। इंदिरा गांधी के वक्त से हम देख रहे हैं कि जनता ने ‘इंदिरा-हटाओ’ का नारा कभी पसंद नहीं किया। कांग्रेस आज वही गलती कर रही है जो सत्तर-अस्सी के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष किया करता था।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)