Article 370: कश्मीर के लोगों पर निर्भर है वहां की स्थिति, सच्चे संवाद की है जरूरत
कश्मीरी मुसलमानों को मिथ्या इतिहास और झूठे विश्वास की हकीकत से परिचित कराना समय की मांग है।
शंकर शरण। अनुच्छेद 370 हटाने के तुरंत बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल का शोपियां जाकर लोगों से बातचीत करना एक सांकेतिक, पर महत्वपूर्ण कदम है। सरकार ने अपना संवैधानिक कर्तव्य पूरा कर दिया है। इसके बाद जम्मू-कश्मीर के जनजीवन के भारतीय जनजीवन से सहज मेल में कोई बाधा नहीं रह गई है। अब आगे की स्थिति कश्मीर घाटी के लोगों पर निर्भर है। इसमें सच्चे संवाद की मुख्य भमिका होगी।
अनुच्छेद 370 हटने से ज्यादातर कश्मीरी हैं खुश
विशेषकर इसलिए, क्योंकि इस अनुच्छेद के हटने से पहले तक इसके बारे में अधिकांश झूठी या गोलमोल बातें होती रही हैं। फलत: जम्मू-कश्मीर ही नहीं, शेष भारत के लोग भी कई बिंदुओं पर भ्रामक मान्यताओं से ग्रस्त थे। अब यह स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर की दो तिहाई आबादी और लगभग तीन- चौथाई क्षेत्रफल के लोग 370 हट जाने से बेहद प्रसन्न हैं। अब कश्मीरियों को भी समझना, समझाना होगा कि किसी राज्य की संपूर्ण जनता की भावना को एक क्षेत्र विशेष और उसके भी कुछ ही गुटों की इच्छा के लिए उपेक्षित करने का कोई नैतिक आधार नहीं है।
अनुच्छेद 370 के कारण बहुत हुईं हानियां
अनुच्छेद 370 के बने रहने से हानियां तो बहुत हुईं पर लाभ कुछ न हुआ। केवल कुछ विदेशी ताकतों ने उसकी आड़ लेकर कश्मीरियों को बरगलाया। यह बात फैलाई जाती रही कि जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना संभव है। ऐसी ताकतें यह मानती थीं कि पाकिस्तान, जिहादी गिरोह और पश्चिमी एवं मुस्लिम देशों के छिपेखुले समर्थन के बल पर यह काम हो जाएगा।
पश्चिमी और मुस्लिम देशों ने नहीं दी विशेष प्रतिक्रिया
अनुच्छेद 370 के हट जाने से इस घातक मंसूबे का कागजी आधार खत्म हो गया। आज शक्ति संतुलन और कूटनीतिक संतुलन भारत के पक्ष में है। पश्चिमी और मुस्लिम देशों ने 370 हटाने पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं दी। चूंकि गत दो दशकों से पाकिस्तान की छवि जिहादी आतंकवाद के पोषक की बनी है इसलिए पाक को कश्मीर पर कुछ बेजा करने के लिए बाहरी सहयोग मिलने की आशा नगण्य है। कश्मीरी मुसलमानों के साथ इतिहास, वर्तमान, राजनीति, संस्कृति, अर्थव्यवस्था आदि से संबंधित सभी मुद्दों पर खुलकर वैचारिक आदान-प्रदान होना चाहिए।
1989-90 में कश्मीर के हिंदुओं की स्थिति
यद्यपि उन्हें अब भी बरगलाने की कोशिश होगी। उन्हें ‘पीड़ित’ और ‘अन्याय का शिकार’ कहा जाएगा, लेकिन वास्तविकता क्या है? जरा वर्ष 1989-90 में कश्मीर के हिंदुओं की स्थिति से तुलना ही कर लें। आज कोई जिहादी कश्मीरी मुसलमानों के दरवाजों पर जा-जाकर धमकियां नहीं दे रहा है। उन्हें लाउडस्पीकरों से घाटी छोड़ने का अलटीमेटम नहीं मिल रहा है। आतंकी गुटों द्वारा उनकी महिलाओं को उठा ले जाने की धमकी नहीं दी जा रही है। न ही सरकार ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। कश्मीरी हिंदुओं को यह सब झेलना पड़ा था।
छल-पूर्वक बनाया गया था अनुच्छेद 370
वस्तुत: सच्चा संवाद समानता के आधार पर ही चल सकता है। तभी वह प्रभावी भी होता है। इसे रेखांकित करना चाहिए कि दशकों की लफ्फाजी, संकोच, कपट या मिथ्याचार ने कोई अच्छा फल नहीं दिया। झूठे नेताओं की बातों का पर्दाफाश भी करना चाहिए, जैसे महबूबा मुफ्ती यह छिपा रही हैं कि जम्मू-कश्मीर का संपूर्ण विलय विशेष दर्जा वाले अनुच्छेद के संविधान का हिस्सा बनाने से बहुत पहले हो चुका था। सच तो यह है कि अनुच्छेद 370 छल-पूर्वक बनाया गया था और वह ‘अस्थाई’ ही था। उसमें उसे खत्म करने का उपाय भी लिखा हुआ था। सरकार ने केवल उसी को अपनाया।
1947 का भारत विभाजन
भारत प्राचीन सभ्यता वाला देश है। वह कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है जिसे यह या वह नेता जैसे-तैसे तय करता रहे। संपूर्ण इतिहास में किसी विदेशी ने भी कश्मीर को कभी भारत से अलग अस्तित्व के रूप में नहीं देखा। राजेरजवाड़े, शासक जरूर बदलते रहे, मगर कश्मीर भारतीय हिंदू सभ्यता का अटूट एवं महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। 1947 का भारत विभाजन या बाद में हुई जिहादी हिंसा, कश्मीरी हिंदुओं को मार भगाना, आदि भी कोई अंतिम या निर्णायक घटना नहीं है। यह शक्ति संतुलन के हेर-फेर हैं। इससे भारतीय सभ्यता के महत्व पर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।
अल्पसंख्यकों को गैर-अल्पसंख्यकों की तुलना
अकबर से लेकर डलहौजी तक का शासन आया और गया। तब अब्दुल्ला या मुफ्ती कहां के खुदाई मुख्तार हैं? अब भारतीय समाज जग रहा है, अपना सभ्यतागत कर्तव्य पुन: अपने हाथ में लेने के लिए सचेत हो रहा है। दुनिया के दूसरे देश अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति जो अधिकार रखते हैं उसकी तुलना में भारतीय समाज कुछ विनम्र ही रहा है। भारत के सिवा किस देश में अल्पसंख्यकों को गैर-अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं?
‘एकमात्र मुस्लिम बहुसंख्या वाले राज्य'
दुर्भाग्यवश ये सब बातें हम अपनी ही जनता के बीच रखने में विफल रहे हैं। इसीलिए यहां मुसलमानों को अंदर-बाहर के स्वार्थी लोगों द्वारा बरगलाना चलता रहा है। इसे भी खत्म करना होगा। अभी महबूबा ने ‘एकमात्र मुस्लिम बहुसंख्या वाले राज्य’ में जनसांखियकी बदले जाने की आशंका जताई है ताकि ‘मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया जाए।’ यह दर्शाता है कि उन्होंने राज्य के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों को कभी गिनती में नहीं लिया।
जब गृह मंत्री थे मुफ्ती मुहम्मद सईद
चार दशको में कश्मीर की जनसांख्यिकी क्रूरतापूर्वक बदली गई। हिंदुओं और सिखों के दर्जनों सामूहिक संहार हुए। क्या कभी महबूबा या उनकी पार्टी ने इसके खिलाफ कुछ किया? उलटे महबूबा के पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद जब गृह मंत्री थे तब कश्मीरी पंडितों के सर्वाधिक सामूहिक संहार हुए और उन्हें अपने पुरखों की भूमि छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा।
विदेशी मीडिया की टिप्पणियों पर हो खुलकर संवाद
जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन, पाकिस्तानी बयानों और देसी अतिवादियों या विदेशी मीडिया की टिप्पणियों पर भी खुलकर संवाद चलाना चाहिए, क्योंकि कश्मीरी मुसलमानों को झूठे इतिहास, झूठे विश्वास और झूठे शक्ति समीकरणों का भुलावा दिया जाता रहा है। अनेक दलों और मतवादी बौद्धिकों ने अपने-अपने स्वार्थवश उन्हें भ्रमित रखा है।
सांप्रदायिक-तुष्टीकरण की घातक राजनीति
चूंकि जमीनी राजनीति शक्ति के साथ- साथ मनोबल से भी चलती है अत: सरकार और समाज को पूरे विश्वास के साथ उन मिथ्याचारों को बेपर्दा करना चाहिए, जिनके सहारे सांप्रदायिक-तुष्टीकरण की घातक राजनीति चलती रही है। सच्चाई और सद्भाव के साथ ऐसा करने पर कश्मीरी मुसलमान वास्तविकता समझकर देश की गति के साथ सहज शामिल हो सकेंगे।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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