नई दिल्ली [नाइश हसन]। जब से औरत का वजूद है, तब से उसके सवाल हैं, और उन सवालों का जवाब तलाशे जाने की कोशिश और कशमकश भी जारी है। पितृसत्ता का ये अनकहा फरमान कि औरतें उसके मुतबिक ही सोचें-समझें, इसे वे लगातार चुनौती दे रही हैं, उन्हें तोड़ रही हैं और दुनिया के सामने बेहतर नजीर पेश कर रही हैं।

पिछले आठ साल में दुगनी हुई दुष्कर्म की घटनाएं

एक तरफ औरत कुछ पा रही हैं, दूसरी तरफ उसकी राह में चुनौतियां अभी भी कम नहीं हैं। पिछले 24 साल से महिलाएं संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण मांग रही हैं, बड़ी चालाकी से सरकारें इस सवाल से बचती आई हैं। महिला-पुरुष बराबरी की संविधान की अवधारणा पूरी नही हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक पिछले आठ साल में भारत में दुष्कर्म की घटनाएं दो गुनी हो गई है।

गांवों में बदतर महिलाओं के हालात

64 प्रतिशत महिलाएं बाजार पर काबिज महंगे सेनेटरी पैड खरीद पाने में असमर्थ हैं, लेकिन उन्हें सस्ते पैड उपलब्ध करा पाने में सरकार नाकाम है। जन-औषधि केंद्र पर आपूर्ति न के बराबर है। शहरों का हाल ऐसा है तो गांवों की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है।

हर साल लाखों महिलाओं की कैंसर से हो रही मौत

हर साल दस लाख से अधिक महिलाओं की मौत सर्वाइकल कैंसर से हो रही है। यह सारे सवाल उनकी सुरक्षा, शिक्षा और सेहत से जुड़े हैं जिन्हें सरकार और समाज को समझना और उनका हल तलाशना ही होगा तभी बेहतर समाज का सपना सच हो सकेगा।

लेखक भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की अध्यक्ष हैं।

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