सुभाषिनी अली सहगल। एक बड़ी खबर जो चुनावी कोलाहल में दब गई कि इसी 26 अप्रैल को आसाराम बापू के बेटे नारायण साई को सूरत की अदालत ने दुष्कर्म का दोषी पाया। 30 अप्रैल को उसे आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई गई। 2013 में दो बहनों ने बाप-बेटे, दोनों के खिलाफ लगातार दुष्कर्म और यौन-उत्पीड़न करने का मुकदमा दायर किया था। आसाराम बापू जोधपुर जेल में तब कैद किए गए थे जब एक नाबालिग बच्ची ने उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज किया था।

2018 में उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई गई। वह बच्ची और दोनों बहनें आसाराम के आश्रम और बोर्डिंग में रहती थीं। तीनों के परिवारजन आसाराम के भक्त थे। पीड़ितों ने आश्रम में काम करने वाली ‘सेविकाएं’ और आसाराम की पत्नी और बेटी पर आरोप लगाया था कि वे लड़कियों पर दबाव बनाती थीं, उन्हें धमकियां देती थीं और उन्हें आसाराम की कुटिया तक जाने के लिए मजबूर करती थीं। जोधपुर की अदालत ने दो सेविकाओं को भी 10-10 साल की सजा दी।

यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म की शिकार तमाम पीड़िताओं के लिए न्याय की लड़ाई बहुत कठिन होती है और जब आरोपी ‘धर्म-गुरु’ हो, जिसके पास अपार धन के अतिरिक्त बहुत ही प्रभावशाली भक्त हों जिनमें राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की गिनती हो तो यह लड़ाई असंभव सी हो जाती है। यही नहीं, इन ‘धर्म गुरुओं’ के बहुत सारे सहधर्मी उनके निर्दोष होने की बात को इस तरह से प्रचारित करते हैं जैसे उनके दोषी साबित हो जाने से वे खुद भी उस दोष में भागीदार हो जाएंगे। विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं जिन पर यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म के आरोप लगाए गए हैं, के मामलों में इस तरह का व्यवहार देखा जा सकता है। अक्सर पीड़ित महिला भी आरोपी धर्मगुरु के ही धर्म को मानने वाली होती है, लेकिन उसके साथ सहधर्मियों की हमदर्दी नहीं जुड़ती। उसकी पीड़ा में वे अपनी पीड़ा को संबद्ध नहीं करते।

स्पष्ट है कि ऐसे में न्याय की लड़ाई असहनीय कष्टपूर्ण हो जाती है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आसाराम बापू पर आरोप लगाने वाली 16 वर्षीय बच्ची से 37 दिन तक अदालत में लगातार पूछताछ के बाद ही मुकदमे की कार्यवाही शुरू की गई। देश के सबसे बड़े वकील आसाराम की ओर से खड़े हुए। उन्होंने लड़की को बदचलन, पागल, झूठी, लालची आदि साबित करने की भरसक कोशिश की। मुकदमे के दौरान नौ गवाहों पर जानलेवा हमले हुए जिनमें से तीन मर गए। पीड़ित बच्ची ने एक पत्रकार से कहा कि ऐसा लगता है कि आसाराम नहीं, वह कैद है। वह कहीं जा नहीं सकती, किसी से बात कर नहीं सकती, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और अपनी बात पर अटल रही। 12 बार जमानत की अर्जी लगाने के बाद आसाराम को आखिर सजा हो ही गई। अब उसके बेटे को भी सजा हो गई है।

ऐसा नहीं कि अदालत के फैसलों के बाद सभी लोग आसाराम को गुनाहगार मानने लगे हों। केवल उनके भक्त ही नहीं, बल्कि उनके तमाम सहधर्मी भी उन्हें साजिश का शिकार मानते हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि पिछले कई सालों में बच्ची के परिवार पर क्या गुजरी है। उन गवाहों के अनाथ बच्चों का क्या हाल है जो अब नहीं रहे। सोशल मीडिया पर आज भी आसाराम बापू को निर्दोष मानने और बताने वाले लोग मौजूद हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति राम-रहीम और रामपाल के मामले में भी देखने को मिलती है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि बड़े-बड़े लोग जो समाज की बुराइयों को दूर करने का दावा करते हैं वे भी आसाराम और उन अन्य तथाकथित संतों को निर्दोष होने की रट लगाए हुए हैं जिन्हें अदालत की ओर सजा सुनाई जा चुकी है। आजकल सुर्खियों में रहने वाली प्रज्ञा ठाकुर भी इनमें से एक हैं। उनका कहना है कि आसाराम देवता-तुल्य हैं, धर्म-गुरु हैं इसलिए ऐसा कर नहीं सकते जैसे कि उन पर आरोप है। क्या उनका ऐसा कहना वास्तव में आश्चर्यजनक है? दरअसल उनका ऐसा कहना स्वाभाविक है, क्योंकि जिस मानसिकता के तहत वह आसाराम को निर्दोष बता रही हैं उसी मानसिकता की वह स्वयं सबसे बड़ी लाभार्थी हैं।

जिस तरह से आसाराम को धर्मगुरु और भगवान मानने वालों के अलावा उनके सहधर्मी उनको निर्दोष नहीं मानते, बल्कि उनको दोषी ठहराने वालों पर आक्रामक हो जाते हैं उसी मानसिकता का सबसे अधिक लाभ प्रज्ञा ठाकुर को मिल रहा है। जब आसाराम के मुकदमे की खबरें छपती थीं तो उनके आंसू, उनका चेहरा, उनके बयान देखने-सुनने को मिलते थे। उनके खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ने वालों की पीड़ा, बेबसी नहीं दिखती थी। प्रज्ञा ठाकुर के भी आंसू, आरोप, श्राप दिख रहे हैं। उन पर हिंसक हमलों का आरोप लगाने वाले अवाक हैं। ऐसा होता रहेगा तो जुल्म और अन्याय तो बढे़गा ही, उसके विरुद्ध लड़ाई और भी मुश्किल-शायद नामुमकिन हो जाएगी।

 (लेखिका लोकसभा की पूर्व सदस्य हैं)

 

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