जम्मू-कश्मीर डायरी: मजबूत हैं घाटी में लोकतंत्र की जड़ें
विडंबना यह रही कि आठ साल तक राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव करवाने के लिए किसी भी सरकार ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई।
[अभिमन्यु शर्मा]। तेरह साल बाद राज्य में हुए स्थानीय निकाय चुनावों का दो प्रमुख राजनीतिक दलों नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) द्वारा बहिष्कार किए जाने के बावजूद लोगों ने जिस तरह इनमें बढ़ चढ़कर भाग लिया, यह दर्शाता है कि जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं। चार चरणों में हुए इन चुनावों में मतदान शांतिपूर्ण संपन्न हुए। हालांकि कुछ क्षेत्रों में लोगों ने आतंकवादियों की धमकियों के कारण मतदान में भाग नहीं लिया। राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव पिछली बार साल 2005 में हुए थे जिसका कार्यकाल साल 2010 में खत्म हुआ था।
विडंबना यह रही कि आठ साल तक राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव करवाने के लिए किसी भी सरकार ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। दो महीने पूर्व राज्य प्रशासन ने जब स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव की घोषणा की तो उस समय भी इसमें अडं़गा डालने के लिए नेकां और पीडीपी ने अनुच्छेद 35-ए की आड़ में चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा की। अलगाववादियों और आतंकवादियों ने भी कश्मीर में चुनावों के बहिष्कार के लिए स्थानीय नेताओं और लोगों को धमकियां देनी शुरू कर दीं। नेशनल कांफ्रेंस के दो कार्यकर्ताओं की हत्या भी लोगों को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए हुई, परंतु प्रशासन झुका नहीं और चुनावी प्रक्रिया जारी रही।
नतीजतन कश्मीर में छिट-पुट घटनाओं को छोड़ चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न हुए। जम्मू और लेह-लद्दाख में मतदाताओं में चुनावों को लेकर भारी उत्साह नजर आया। करगिल, राजौरी, पुंछ के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी बड़ी संख्या में लोगों ने चुनावों में भाग लिया। कश्मीर के बांडीपोरा, कुपवाड़ा और उड़ी में तो लोगों ने आतंकियों की धमकियों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया। इससे चुनावों का बहिष्कार करने वाली नेकां, पीड़ीपी के अलावा अलगाववादियों को भी करारा झटका लगा है। इन दलों को लोगों ने यह संदेश दिया है कि अनुच्छेद-35-ए के नाम पर वे राजनीति नहीं होने देंगे। चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था है और इसी से वे अपनी समस्याओं का समाधान करवा सकते हैं। लोगों में व्याप्त उत्साह को देख अब अगले महीने से होने जा रहे पंचायत चुनावों में भी लोगों का जोशोखरोश इसी प्रकार रहने की संभावना है। सनद रहे कि राज्य में पिछली बार हुए पंचायत चुनाव में भी अस्सी प्रतिशत लोगों ने भाग लिया था।
दरबार मूव प्रक्रिया में हुआ बदलाव
दो राजधानियों वाले जम्मू-कश्मीर राज्य में डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह द्वारा साल 1872 में शुरू की गई दरबार मूव की प्रक्रिया में इस बार नई व्यवस्था लागू होने जा रही है। हर साल भारी भरकम खर्च कर सामान व सरकारी रिकॉर्ड को ट्रकों में भर श्रीनगर से जम्मू लाने के बजाय डिजिटल रिकॉर्ड को पेन ड्राइव और एक्सटर्नल हार्ड ड्राइव में जम्मू में लाया जाएगा। हालांकि अन्य रिकॉर्ड पहले की तरह ही ट्रकों में लाया जाएगा, परंतु इस नई व्यवस्था को हर साल दरबार मूव में होने वाले खर्च को कम करने की दिशा में उठाए गए पहले कदम के तौर पर देखा जा रहा है। राज्य में बेहतर शासन के लिए की गई इस व्यवस्था के तहत दरबार गर्मियों में कश्मीर व सर्दियों में जम्मू में रहता है। सरकार का दरबार अप्रैल माह में श्रीनगर के लिए रवाना हो जाता है व वापसी अक्टूबर महीने में होती है। कश्मीर की दूरी को देखते हुए बेहतर शासन की इस व्यवस्था को आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी रखा गया।
पिछले काफी समय से इस व्यवस्था को बंद करने की आवाज बुलंद हो रही थी, लेकिन सरकार इसे मानने को तैयार नहीं। दरबार मूव से हर साल सालाना 300 करोड़ रुपयों से अधिक खर्च आता है। सुरक्षा खर्च मिलाकर यह और बढ़ जाता है। सचिवालय के कर्मचारियों, सुरक्षा अमले के सदस्यों को मिलाकर लगभग दस हजार सरकारी कर्मचारी, पुलिसकर्मी व पुलिस अधिकारी दरबार के साथ मूव करते हैं। सरकारी आवासों के साथ दर्जनों होटल किराए पर लेकर कर्मचारियों को उनमें ठहराया जाता है।
राज्यपाल प्रशासन ने अब तय किया है कि जम्मू सचिवालय में अलग से सूचना प्रौद्योगिकी का ढांचा तैयार किया जाए। इसके लिए लैपटॉप, डेस्कटॉप, प्रिंटर, यूपीएस अलग से खरीदे जा रहे हैं और जम्मू में पांच नवंबर को दरबार खुलने से पहले नया ढांचा तैयार कर दिया जाएगा। इससे दोनों ही राजधानियों में डिजिटल रिकॉर्ड सुरक्षित रहेगा। राज्यपाल प्रशासन के इस कदम को दरबार मूव को बंद करने की दिशा में उठाए गए एक अहम कदम के रूप में देखा जा रहा है। 146 साल बाद दरबार मूव प्रक्रिया में कोई बदलाव हुआ है।
[संपादक,
जम्मू-कश्मीर]