नई दिल्ली [उमेश चतुर्वेदी]। हाल के दिनों में हमारे सामने जब भी कोई समस्या खड़ी हुई है, उसके समाधान के लिए हमने संविधान की ओर देखा है। लेकिन वर्तमान महामारी के दौर में नागरिकों के सबसे बड़े समूह कम आय वर्ग के लोगों की समस्या सामने आई तो हमने संविधान के पहले ही अनुच्छेद को भुला दिया। इस अनुच्छेद के पहले ही भाग में कहा गया है, इंडिया, जो भारत है, राज्यों का संघ होगा।

राज्यों को हमारे यहां सिर्फ स्थानीय सांस्कृतिक बोध और ऐतिहासिक विशेषताओं की वजह से प्रशासनिक व्यवस्था के तहत बनाया गया है। लेकिन कोरोना काल में जिस तरह मजदूरों को लेकर राज्यों के बीच खींचतान शुरू हुई, अपने प्रवासियों को लाने या छोड़ने की कवायद हुई, राज्यों के प्रशासनिक तंत्र आमने-सामने हुए, उससे साफ हुआ है कि भारत में संविधान के पहले ही अनुच्छेद का ही उल्लंघन हुआ। 

प्रवासन की जो मजबूरी गुलाम भारत में थी, वह आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से भारी संख्या में एग्रीमेंट के तहत फिजी, गुयाना, मॉरिशस जैसे देशों में जो प्रवासन हुआ, वह मजबूरी का था। कोरोना काल ने जाहिर किया है कि प्रवासन का यह दंश आज भी जारी है। आजाद भारत में तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्य अगर दूसरे राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा समृद्ध हैं तो इसके मूल में बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों का प्रवासन भी है।

इनमें से आखिरी दो को छोड़ दें तो पिछली सदी के नौवें दशक में अर्थशास्त्री आशीष बोस ने इन्हें ‘बीमारू’ नाम दिया था। बीमारू शब्द कोई प्रशंसा में नहीं दिया गया था, बल्कि इसमें इन राज्यों की गरीबी जनित मजबूरियों के उपहास का भी बोध था। इन राज्यों की बड़ी जनसंख्या आज भी पेट पालने की मजबूरी से मुक्त नहीं हो पाई है। बेशक बीमारू राज्यों की यह मजबूरी है, लेकिन समृद्ध राज्यों को सोचना चाहिए था कि यह मजबूरी उनकी समृद्धि की वजह भी है।

लेकिन दुर्भाग्यवश जब इन लोगों को समृद्ध राज्यों की मदद की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उन्हीं दिनों इन राज्यों ने प्रवासियों को उनके मूल घरों में पहुंचाने या भेजने की कवायद शुरू कर दी। पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों ने अपने ही प्रवासियों को लाने में रोड़े अगर अटकाए भी तो यह उनकी मजबूरी रही। उन्हें डर था कि प्रवासियों के लौटने से कोरोना का संक्रमण फैल सकता है और उनका बदहाल स्वस्थ चा इसे संभाल नहीं सकता। इन राज्यों की अर्थव्यवस्था भी ऐसी नहीं है कि एक साथ भारी संख्या में लौटे कामगारों को भोजन और रोजगार मुहैया करा सकें। 

भारत में उपराष्ट्रीयताएं तो हैं, लेकिन जिसे हम भारतीय राष्ट्रीयता कहते हैं, वह हिंदीभाषी राज्यों में ही प्रबल है।हिंदीभाषी राज्यों के निवासियों की सोच पर अपनी उपराष्ट्रीयताएं हावी नहीं हैं। दुर्भाग्य है कि जिन इलाकों में भारतीय राष्ट्रीयता बोध प्रबल है, वे ही आर्थिक रूप से ज्यादा कमजोर हैं। जबकि आए दिन दिखता रहा है कि अपने स्थानीय हितों के नाम पर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात आदि राज्यों के निवासियों का अपना उपराष्ट्रीयता बोध सामने आता रहा है।

हालांकि संविधान के किसी भी उपबंध में उपराष्ट्रीयता का कोई बोध या विचार नहीं है। संविधान की प्रस्तावना में भी हम भारत के लोग ही कहा गया है। उसमें राज्यों का जिक्र कहीं नहीं है। इस उपराष्ट्रीयता बोध को कुछ लोग क्षेत्रवाद भी कहते हैं। भारतीय लोकतंत्र के इस क्षेत्रवाद और उसके खतरे का आभास संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर को था। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में उन्होंने कहा था, हमें मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष नहीं करना चाहिए।

हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है। सोचिए, सामाजिक प्रजातंत्र का यह भाव अगर हमारे यहां लागू हो गया होता तो जिन राज्यों में प्रवासी कामगार थे, उन्हें वह अपना समझता, उन्हें अपनी समृद्धि की बुनियाद समझता।

अगर यह बोध होता तो फिर कामगारों को भूख की चिंता नहीं होती और फिर उन्हें पैदल ही हजारों किमी दूर चलने को मजबूर नहीं होना पड़ता। रास्ते में प्रशासनिक तंत्र की बाधाएं नहीं ङोलनी पड़तीं। यह सोच की ही कमी है कि महाबंदी के दौर में अपने मूल घरों से हजारों किमी दूर स्थित मजदूरों के खाने-पीने और दूसरी बुनियादी सुविधाओं को जुटाने और उन्हें मुहैया कराने के लिए जोर नहीं दिया गया। बल्कि इस भावना ने जोर पकड़ा कि उन्हें उनके घरों तक पहुंचाया जाए।

यह सोच की ही कमी है कि जब अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की तैयारियों के तहत कारोबार और उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है, ये मजदूर अपने घरों की ओर या तो लौट रहे हैं या लौटने के लिए लालायित हैं। हमने अपना संविधान तो बनाया, पूरे देश के लिए एक नागरिक व्यवस्था की वकालत भी की, इसके बावजूद स्थानीय स्तर पर हर नागरिक के लिए एक बोध नहीं भर सके। संविधान में राज्यों के नागरिक का जिक्र नहीं है। इसके बावजूद अगर राज्य अपने यहां के प्रवासियों को तुम्हारा या मेरा नागरिक मान रहे हैं तो इस सोच पर भी विमर्श होना चाहिए। (वरिष्ठ पत्रकार)