संजय गुप्त : इस पर बहस छिड़ना स्वाभाविक है कि चुनाव आयुक्‍तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर उच्‍चतम न्‍यायालय की संविधान पीठ के सदस्यों ने जैसी टिप्पणियां कीं और केंद्र सरकार से जैसे तीखे सवाल पूछे, क्या उनकी आवश्यकता थी? चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की एक परिपाटी है। इसी परिपाटी के तहत एक के बाद एक सरकारें उनकी नियुक्ति करती चली आ रही हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर समय-समय पर कुछ सवाल भले उठते रहे हों, लेकिन चुनावों की निष्पक्षता पर कोई उंगली नहीं उठी। चूंकि सत्तारूढ़ दल उन्हीं चुनाव आयुक्तों के रहते चुनाव हारे और जीते, जिन्हें उन्होंने नियुक्त किया था, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी नियुक्ति में कोई पक्षपात किया गया।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से केंद्र सरकार के प्रति आक्रामक रुख अपनाने का कारण कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार के मंत्री और विशेष रूप से कानून मंत्री समय-समय पर न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था पर टिप्पणी करते रहे हैं। ये टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न न्यायाधीशों की ओर से कोलेजियम व्यवस्था को सही बताए जाने के बाद भी की गईं। हाल में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा था कि कालेजियम प्रणाली की प्रक्रिया बहुत अपारदर्शी है और न्यायपालिका में आंतरिक राजनीति भी मौजूद है। ऐसा लगता है कि उच्‍चतम न्‍यायालय को ऐसी टिप्पणियां रास नहीं आ रही हैं और इसीलिए वह केंद्र सरकार के प्रति हमलावर है। सच जो भी हो, उच्‍चतम न्‍यायालय की टिप्पणियां उसके और केंद्र सरकार के बीच तनातनी को रेखांकित कर रही हैं।

उच्चतम न्यायालय कोलेजियम व्यवस्था को लेकर चाहे जो कहे और पूर्व एवं मौजूदा न्यायाधीश उसके बारे में चाहे जैसे दावे करें, सच यह है कि यह व्यवस्था अपारदर्शी और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। दुनिया के श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देशों में कहीं पर भी जज जजों की नियुक्ति नहीं करते, लेकिन भारत में ऐसा ही होता है। पहले ऐसा नहीं था, लेकिन नरसिंह राव सरकार के समय सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अब वह इस अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

समस्या यह है कि जजों की ओर से जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है। इस प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए 2014 में संविधान संशोधन के जरिये जो न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया गया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया। तब उसने कोलेजियम व्यवस्था को दोषपूर्ण माना था, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसने उसमें सुधार की पहल क्यों नहीं की?

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पर अटार्नी जनरल ने कहा है कि यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का मामला है और न्यायपालिका को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, लेकिन उच्‍चतम न्‍यायालय इस प्रक्रिया में दखल देने को तत्पर दिख रहा है। उसने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की मांग वाली याचिकाओं पर विचार करते हुए हाल में नियुक्त चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के चयन प्रक्रिया की फाइल भी तलब कर ली। इसी दौरान उसने केंद्र सरकार पर ऐसी टिप्पणियां कीं जिनकी आवश्यकता इसलिए नहीं थी, क्योंकि ये टिप्पणियां अरुण गोयल की नियुक्ति संबंधी फाइल देखने के पहले ही कर दी गईं।

उच्चतम न्यायालय को इससे आपत्ति है कि अरुण गोयल की नियुक्ति एक दिन में कर दी गई, जबकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ। उच्‍चतम न्‍यायालय में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की मांग वाली जो याचिकाएं दायर की गई हैं, उनमें एक याचिका वकील प्रशांत भूषण की है, जो मोदी सरकार के कामकाज में मीन-मेख निकालने के लिए जाने जाते हैं। इसके पहले वह ऐसी ही कई याचिकाएं दाखिल कर चुके हैं।

यह सही है कि समय-समय पर चुनाव आय़ुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की मांग होती रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जो सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार के लिए तैयार न हो रहा हो, वह अन्य पदों पर नियुक्तियों में सुधार के लिए सक्रियता दिखाए। क्या यह विचित्र नहीं कि जिस सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयुक्तों के छोटे कार्यकाल से परेशानी है, वह स्वयं पिछले 24 साल में 22 मुख्य न्यायाधीश देख चुका है? इनमें से एक का कार्यकाल तो केवल 30 दिन का था।

यदि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार आवश्यक है तो ऐसी ही आवश्यकता सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी है। अगर उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायधीश खुद को लोकतंत्र के रखवाले के तौर पर दिखाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति में लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का पालन करना चाहिए।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की मांग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ भी हो, यह एक तथ्य है कि चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार संपन्न बनाए जाने की आवश्यकता है। इस पर उच्चतम न्यायालय के साथ संसद को भी गौर करना चाहिए, क्योंकि न तो राजनीति का अपराधीकरण थम रहा है, न टिकटों की खरीद फरोख्‍त और न ही छल-बल से चुनाव जीतने के तौर-तरीके। अब तो यह भी देखने में आ रहा है कि छद्म प्रत्याशी खड़े किए जाने लगे हैं, जो केवल वोट काटने का काम करते हैं।

कहने को तो भारत आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर अभी भी प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया ठीक नहीं। प्रत्याशियों की भीड़ के चलते कई बार जीते हुए प्रत्‍याशी को महज 25 प्रतिशत वोट ही हासिल होते हैं। ऐसा फर्स्‍ट पास द पोस्ट सिस्टम यानी सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की जीत वाली व्यवस्था के कारण होता है। इस प्रक्रिया पर विचार होना चाहिए। इसी के साथ चुनाव आयोग को और सशक्त बनाया जाना चाहिए, ताकि वह निर्वाचन संबंधी खामियों को दूर कर सके। ये खामियां हमारे लोकतंत्र को कमजोर कर रही हैं। अगर उच्‍चतम न्‍यायालय सच में देश में लोकतंत्र को मजबूत करना चाहता है तो उसे चुनाव आयोग को और अधिक अधिकारों से लैस करने पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। केवल चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार से बात बनने वाली नहीं है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]