[जयजित भट्टाचार्य]। बीते दिनों अमेरिकी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल द्वारा फेसबुक और देश में सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं के बीच कथित मिलीभगत को लेकर छपी एक रपट ने सियासी बवंडर खड़ा कर दिया। इससे विपक्षी दलों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया कि भाजपा नेताओं की गलतियों पर फेसबुक जानबूझकर पर्दा डालती है, ताकि उसका कारोबार सही- सलामत रहे। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के प्रमुख और वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर ने तो इस मामले में फेसबुक को तलब करने तक की मांग रखी। वक्त के साथ यह मामला सुर्खियों से गायब होता दिख रहा है, लेकिन इसी के साथ हमारे समक्ष कई अहम सवाल भी खड़े कर रहा है।

फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यम पर पहले भी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे आरोपों पर यह दिग्गज कंपनी अपनी तरफ से कदम उठाकर उनका निराकरण करने का दावा भी करती है, पर ऐसे दावों पर सवाल भी उठते रहे हैं। जहां तक फेसबुक-वॉल स्ट्रीट जर्नल प्रकरण का सवाल है तो यह कारोबारी बढ़त बनाने का मामला अधिक लगता है। दुनिया के दो सबसे बड़े बाजारों चीन और भारत में से जहां चीन में इन दोनों ही माध्यमों के लिए राह आसान नहीं, वहीं वे भारत में अपनी अधिक से अधिक पैठ बनाने में जुटे हैं।

सोशल मीडिया बाजार में फेसबुक निर्विवाद बादशाह 

इसमें कोई संदेह नहीं कि सोशल मीडिया बाजार में फेसबुक निर्विवाद बादशाह है, वहीं वॉल स्ट्रीट जर्नल भी भारतीय मीडिया बाजार में पैठ बनाने की रणनीति में जुटा है। बेशक फेसबुक जैसी कंपनियां किसी सरकारी समर्थन की मोहताज नहीं हैं, लेकिन किसी देश में सुगम परिचालन और अपेक्षित कारोबारी विस्तार के लिए वे सत्तारूढ़ दल या सरकार की खुशामद में पीछे भी नहीं रहतीं। यह बात केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि व्यापक रूप से वैश्विक स्तर पर लागू होती है। ऐसे में कुछ उन्नीस-बीस हो जाना स्वाभाविक है और यह कोई दबी-छिपी बात भी नहीं। लिहाजा यह उतना बड़ा मुद्दा नहीं जितना वॉल स्ट्रीट जर्नल ने इसे तूल देकर बना दिया। चूंकि वॉल स्ट्रीट जर्नल भारत में इतना जाना-पहचाना नाम नहीं और उसकी पहचान एक वर्ग विशेष तक ही सीमित है, इसलिए इस मामले पर बखेड़ा खड़ा करके उसकी मंशा भारत में उभार लेते मध्य वर्ग के बीच अपनी पहचान कायम कर अधिक से अधिक ग्राहक बनाने की ही प्रतीत होती है।

वॉल स्ट्रीट जर्नल के सवालों को नहीं लिया जा सकता है हल्के में

देश में तमाम मीडिया संस्थानों के साथ जुगलबंदी और डिजिटल प्लेटफॉम्र्स पर आक्रामक सब्सक्रिप्शन अभियान से यह जाहिर भी होता है। वैसे भी वॉल स्ट्रीट जर्नल के पारंपरिक बाजारों में चरम पर पहुंचने और चीन जैसे बड़े बाजारों में सीमित दरवाजे खुले होने से उसके लिए अपने प्रसार के विस्तार में भारत जैसे बाजार ही बचते हैं, जहां अंग्रेजी समझने वाला महत्वाकांक्षी मध्यम वर्ग विद्यमान है। जो भी हो, वॉल स्ट्रीट जर्नल के सवालों को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता।

फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों पर कसनी होगी नकेल 

हमें गूगल, फेसबुक समूह और ट्विटर जैसे माध्यमों की नकेल कसनी होगी कि ये हमारे आंतरिक मामलों में दखल देकर अपनी मनमानी न कर सकें। क्या यह संभव है? वास्तव में ये माध्यम आज किसी भी देश की सरकार से कहीं अधिक ताकतवर मालूम पड़ते हैं, जो दुनियाभर में लोगों का मानस बनाते हैं। अरब की जैस्मिन क्रांति से लेकर अमेरिकी चुनाव में दखल तक की न जाने कितनी ऐसी मिसालें हैं जो इन मंचों की महत्ता और अहमियत को रेखांकित करती हैं।

अंगुलियों पर नचाती हैं ये कंपनियां

ये कंपनियां अपने तकनीकी एकाधिकारवाद से दुनिया को अपनी अंगुलियों पर नचाती हैं और सरकारें भी इनके खिलाफ कुछ ठोस कदम उठाने के मामले में लाचार सी दिखती हैं। इनकी संरचना, परिचालन और सर्वरों की स्थिति के चलते इन पर अंकुश लगाना खासा मुश्किल है। तब इसका क्या हल निकल सकता है? क्या इन मंचों पर प्रतिबंध लगाकर इनसे जुड़ी समस्या का समाधान संभव है? बिल्कुल भी नहीं। वास्तव में आज हम न केवल अभिव्यक्ति, सूचना और मनोरंजन, बल्कि आजीविका के लिए भी इन माध्यमों पर बहुत निर्भर हो गए हैं। अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसे माध्यमों के जरिये न जाने कितने स्टार्टअप्स को अपने उत्पादों के लिए एक माकूल मंच मिला है।


उद्यमियों और कारोबारियों के लिए जुड़ाव की कड़ी 

इनके माध्यम से चेन्नई में बना कोई उत्पाद श्रीनगर तक आसानी से पहुंच सकता है, वहीं फेसबुक जैसा मंच उद्यमियों- कारोबारियों के लिए जुड़ाव की कड़ी बनता है। उनके उत्पादों के विपणन में भूमिका बनाता है। इसी तरह गूगल मैप्स के जरिये मिलने वाली नैविगेशन जैसी सेवाएं ओलाउबर सरीखी ऑनलाइन टैक्सियों के लिए आधारभूत स्तंभ की भांति काम करती हैं, जिनसे लाखों-करोड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। कोरोना काल में लॉकडाउन एवं सोशल डिस्टेंसिंग को अमली जामा पहनाने में जूम और गूगल मीट्स जैसे एप भी अपनी उपयोगिता साबित कर चुके हैं। वहीं व्यक्तिगत स्तर पर बात करें तो ये सभी माध्यम लोगों को मनोरंजन, अभिव्यक्ति का मंच मुहैया कराने के साथ ही उनके लिए तमाम सहूलियतें लेकर आए हैं। ऐसे में इन पर यकायक प्रतिबंध लगा देने से न केवल कारोबारी मोर्चे पर भूकंप सरीखे हालात पैदा होंगे, बल्कि जिन लोगों को इनकी आदत लग चुकी है, उनके लिए यह किसी मानसिक आघात से कम नहीं होगा।

देश खुद का सोशल मीडिया मंच को कर सकता है विकसित 

सोशल मीडिया कंपनियों ने दुनिया को तकनीकी रूप से खुद पर निर्भर बनाकर अपना दास सा बना लिया है और वास्तव में तकनीकी संप्रभुता उनके पास है। इस डिजिटल उपनिवेशवाद से कैसे बाहर निकला जा सकता है, यह एक अलग विषय हो सकता है, फिर भी इस दिशा में उठाए गए कुछ हालिया कदम जरूर एक उम्मीद जगाते हैं। जैसे बीते दिनों चीनी एप्स पर प्रतिबंध लगाने के बाद उनके भारतीय संस्करण सामने आए हैं, जिन्हें पहले अपनी पहुंच बनाने का उतना बढ़िया अवसर नहीं मिल पा रहा था। साफ है कि अगर हम पहल करें तो सफल अवश्य हो सकते हैं। इसी तरह हम अपने सोशल मीडिया मंच भी विकसित कर सकते हैं। कम से कम इस मामले में तो चीन से कुछ सीख ली जा सकती है। तब विदेशी कंपनियां हमारे आंतरिक मामलों में दखलंदाजी नहीं कर सकेंगी, वहीं देसी कंपनियों द्वारा प्रक्रियाओं को प्रभावित करने पर उनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जा सकेगी। तब सही मायनों में हम तकनीकी रूप से संप्रभु हो सकेंगे।

 

(लेखक सेंटर फॉर डिजिटल इकोनॉमी पॉलिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट हैं)