[बलबीर पुंज]। पिछले डेढ़ महीनों के दौरान जम्मू-कश्मीर में जिस प्रकार का राजनीतिक एवं सामाजिक घटनाक्रम देखने को मिला उससे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उभरे हैं। पहला-राजनीतिक अधिष्ठानों ने 2014 से पहले कश्मीर समस्या के हल हेतु जिन हिमालयी गलतियों का अनुसरण किया उसे फिर दोहराने का प्रयास हुआ। दूसरा- घाटी में असंतोष का कारण क्षेत्रीय असमानता, गरीबी, बेरोजगारी नहीं है। तीसरा-कश्मीर का एक वर्ग शहीद भारतीय सैनिक औरंगजेब के बजाय बुरहान वानी जैसे आतंकियों को अपना आदर्श मानता है। और चौथा- यहां संघर्ष केवल कट्टर इस्लामी मानसिकता, उसके मूर्त रूप आतंकियों-जिहादियों और उनके मानवाधिकारों के रक्षकों से है।

कश्मीर संकट के विरुद्ध उपयुक्त नीतियां अपनाने पर देश का एक वर्ग सदैव सवाल उठाता रहा है और इसी का परिणाम है कि पिछले सात दशकों में यह समस्या अब भयावह रूप ले चुकी है। जब रमजान में केंद्र सरकार ने सशर्त सैन्य संघर्ष विराम की घोषणा की तो उसके परिणाम ने क्रूर वास्तविकता को रेखांकित करते हुए स्थापित कर दिया कि ऐसी नीतियों से बदलाव संभव नहीं है। रमजान से एक माह पहले घाटी में 20 आतंकी घटनाएं हुईं तो रमजान में 73। पहले 14 आतंकी मारे गए तो रमजान में 22। पहले 5 जवान शहीद हुए तो रमजान में 9। इस दौरान सुरक्षा बलों पर 107 बार पथराव हुआ तो पत्रकार शुजात बुखारी की निर्मम हत्या कर दी गई?

लगभग तीन दशक पहले जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब भी देश के कुछ बुद्धिजीवी कहा करते थे कि यदि चंडीगढ़ पंजाब को सौंप दिया जाए या उसे अधिक स्वायत्तता दे दी जाए, बेरोजगारों को नौकरी दे दी जाए तो वहां शांति बहाल हो जाएगी। बहरहाल पंजाब के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल की कार्रवाइयों से कट्टरपंथियों की रीढ़ टूट गई और पंजाब की एक समस्या समाप्त हो गई। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ बीते तीन वर्षों से चल रही बेमेल गठबंधन सरकार से जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तब विरोधी दलों ने कश्मीर संकट के लिए एक स्वर में मोदी सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्विटर पर लिखा, ‘भाजपा-पीडीपी गठबंधन ने जम्मू-कश्मीर को आग में झोंक दिया, जिसमें निर्दोष लोग और हमारे बहादुर जवानों की जान चली गई। भारत को सामरिक रूप से नुकसान हुआ।’ क्या मई 2014 से पहले कश्मीर शांत था?

कश्मीर में ऐतिहासिक भूलों को घाटी में आए दिन होने वाले आतंकी हमलों और पथराव से अलग करके नहीं देखा जा सकता। क्या यह सत्य नहीं कि घाटी की वर्तमान स्थिति की नींव पंडित नेहरू की शेख अब्दुल्ला से मित्रता और दोनों की जम्मू-कश्मीर के अंतिम महाराजा हरिसिंह से बैरभाव ने नहीं रखी थी? क्या जेहादी तत्वों और अलगाववादियों से कांग्रेस की समझौता करने की प्रवृत्ति ने कश्मीर संकट को और नहीं बढ़ाया? क्या इसकी अनदेखी की जा सकती है कि आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने कांग्रेसी नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद के उस वक्तव्य का समर्थन किया जिसमें उन्होंने कहा था, ‘सैन्य ऑपरेशन में आतंकियों से अधिक आम नागरिक मारे जाते हैं?’ क्या यह घटनाक्रम कांग्रेस की विभाजनकारी मानसिकता का परिचायक नहीं? गुलाम नबी आजाद जिन ‘आम नागरिकों’ की बात कर रहे हैं उनमें से अधिकांश वे लोग होते हैं जो मुठभेड़ के समय आतंकियों का बचाव कर सुरक्षाबलों पर पथराव करते हैं।

कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज कश्मीर की ‘आजादी’ का समर्थन कर रहे हैं। वास्तव में, कथित ‘आजादी’ और ‘असंतोष’ की जड़ें ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा में निहित हैं। इस मानसिकता ने विकराल रूप तब धारण किया जब भारतीय उपमहाद्वीप में 19वीं शताब्दी के अंत में सैयद अहमद ने ‘द्विराष्ट्र’ सिद्धांत का वैचारिक सूत्रपात किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने मुस्लिम लीग और वामपंथियों की सहायता से पाकिस्तान के जन्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब 1931 में इसी शैक्षणिक अधिष्ठान से शिक्षित होकर शेख अब्दुल्ला कश्मीर लौटे तब उन्होंने रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह के कथित सामंतवाद के खिलाफ मोर्चा खोलकर सांप्रदायिकता का बीजारोपण कर दिया, जिसका विषाक्त फल कालांतर में कश्मीरी पंडित विहीन घाटी और उग्र भारत विरोध के रूप में मिला। जब तक पंडित नेहरू को अपने मित्र शेख अब्दुल्ला की असलियत का पता चला, तब तक वह कश्मीर संकट की नींव तैयार कर चुके थे।

बढ़ती सेना को बिना पूरे कश्मीर को मुक्त कराए युद्धविराम की घोषणा, शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपना, महाराजा हरि सिंह को निष्कासित करना, धारा 370 को पारित करना, मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाना और जनमत संग्रह की स्वीकृति देने जैसे फैसलों के कारण ही आज कश्मीर की यह दुर्गति हुई है। पाकिस्तान द्वारा ‘जिहादियों’ की घुसपैठ से कश्मीर का संकट और अधिक गहरा गया। अतीत के युद्ध परिणामों से पाकिस्तान समझ गया कि वह सीधे युद्ध के द्वारा कश्मीर पर कब्जा नहीं कर सकता। इसलिए उसने भारत की प्रारंभिक ‘राजनीतिक गलतियों’ का लाभ उठाकर जिहाद को सुलगाना शुरू कर दिया ताकि घाटी में मजहबी उन्माद और कट्टरवाद को जीवित रखा जा सके। हाल में फिर स्पष्ट हुआ कि पाकिस्तान कैसे अलगाववादियों के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर को मुद्दा बनाने की जुगत में है।

14 जून को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन संबंधी एक पक्षपाती रिपोर्ट जारी की जिसे छह अन्य देशों ने खारिज भी कर दिया। दिलचस्प यह है कि रिपोर्ट में लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के लिए 35 से अधिक बार ‘आम्र्ड ग्रुप’ यानी ‘हथियारों से लैस संगठन’ शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि संयुक्त राष्ट्र दोनों को आतंकी संगठन मानता है। यही नहीं, परिषद के मुखिया जैद राद-अल-हुसैन ने आइएसआइ के एजेंटों और हुर्रियत कांफ्रेंस नेताओं से भेंट भी की थी। यदि हम कश्मीर समस्या का निदान चाहते है तो हमें निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर ढूंढने होंगे। पहला- घाटी में 98 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और यदि इसी अनुपात में हिंदू-सिख-बौद्ध होते तो क्या तब भी संकट होता?

यदि इसका उत्तर नहीं है तो फिर यह अंतर क्यों? दूसरा- यदि 1930-40 के दशक में शेख अब्दुल्ला का विरोध सामंतवाद, शोषण और भेदभाव के खिलाफ था तो महाराजा हरि सिंह के घाटी छोड़ने के 70 वर्ष बाद भी वहां खूनी संघर्ष क्यों जारी है? तीसरा- यदि घाटी में मसला ‘मानवाधिकार’ और ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था’ का है तो पाकिस्तान-आइएस का झंडा लहराकर ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ की मांग क्यों की जा रही है? चौथा- जब भारत सरकार केंद्रीय अनुदान का बड़ा हिस्सा जम्मू-कश्मीर को दे रही है तो घाटी की मस्जिदों से भारत की मौत की दुआ क्यों मांगी जा रही है? और पांचवां- आखिर क्यों शहीद सैनिक औरंगजेब की शवयात्रा में उतनी भीड़ नहीं जुटी जितनी अक्सर घाटी में आतंकियों के जनाजे में जुटती है? इन प्रश्नों के ईमानदारी से दिए उत्तरों में ही कश्मीर संकट के हल की संभावनाएं निहित हैं।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)