[केसी त्यागी]। राममनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि लोग मेरी बात सुनेंगे, लेकिन शायद मेरे मरने के बाद। आज जब भारत-चीन संबंधों में तल्खी छाई हुई है तब यह साफ जाहिर होता है कि वह कितने सही थे। चीन के बारे में उनके विचार हमें आज भी सीख देने वाले हैं। दिल्ली के रामलीला मैदान में 1962 की लड़ाई में शहीद सैनिकों के बलिदान का स्मरण करने के लिए एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी उपस्थित थे। प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर ने, ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी’ जैसा जज्बाती गीत गाकर माहौल को काफी भावुक बना दिया था। इस गीत को सुनकर पंडित नेहरू की आंखों से भी आंसू छलक पड़े थे।

अगले दिन के समाचार पत्रों में छपी तस्वीर को देखकर डॉ. लोहिया आगबबूला हो गए कि प्रधानमंत्री की आंखों में आंसू कायरता का प्रतीक हैं। आंसू के बजाय प्रतिशोध में उनकी आंखें लाल होनी चाहिए थीं। वह इसलिए आक्रोशित थे, क्योंकि उन्होंने पंडित नेहरू और भारत सरकार को चीन के विस्तारवादी इरादों के प्रति लगातार आगाह किया था। उनका मानना था कि चीन के मामले में भारत सरकार शुरू से ही कमजोर नीति पर चलती रही है। डॉ. लोहिया ने इस पर जोर दिया था कि जब तक चीन हिंदुस्तान की 1947 वाली सीमा से पीछे नहीं हट जाता, तब तक सरकार को उससे कोई समझौता नहीं करना चाहिए। उस समझौते का मतलब था लद्दाख में 12000 वर्ग मील जमीन को छोड़ देना, जो अक्साई चिन सड़क बनते वक्त चीन ने ले ली थी। आज जब वर्तमान सरकार उस समय की घुटना टेक विदेश एवं रक्षा नीति के नतीजे भुगत रही है, तब डॉ. लोहिया का वह वक्तव्य स्मरण योग्य है।

स्वयं को कुजात गांधीवादी मानते थे लोहिया

डॉ. लोहिया का जन्मदिन 23 मार्च को पड़ता था। उन्होंने अपने समर्थकों से इस दिन पर कोई भी आयोजन नहीं करने का निर्देश दिया था, क्योंकि यही तिथि सरदार भगत सिंह के बलिदान की भी है, जिसे वह भारतीय राजनीति के घटनाक्रम का सबसे महत्वपूर्ण दिन मानते थे। डॉ. लोहिया गांधी जी के उस विचार के समर्थक थे कि 1947 के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए, क्योंकि उसकी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह हो चुका है। वह समाजवादियों के लिए अलग दल बनाने के समर्थक नहीं थे। वह स्वयं को गांधी के विचारों का उपयुक्त प्रतिनिधि मानते थे। उनके कथनानुसार तीन प्रकार के गांधीवादी कार्यरत हैं। सरकारी, मठाधीश और कुजात। पंडित नेहरू को उन्होंने सरकारी गांधीवादी की संज्ञा दी थी। विनोबा भावे को वह मठाधीशी गांधीवादी कहते थे और स्वयं को कुजात गांधीवादी मानते थे, जिन्हें गांधीवादियों के कुनबे से बाहर कर दिया गया।

भारतीय भाषाओं के प्रति लोहिया का था गहरा लगाव

स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही उनका कांग्रेस और पं. नेहरू से मोहभंग हो गया था। उनका मानना था कि नेहरू के तौर-तरीकों से न तो समाजवादी समाज ही बन सकता है और न ही गांधी जी का ग्राम स्वराज्य का सपना पूरा हो सकता है। लिहाजा वह अपने तमाम वरिष्ठ साथियों के साथ कांग्रेस से बाहर निकल गए और पंडित नेहरू की भाषा, आर्थिक, विदेश, कृषि, उद्योग सभी नीतियों की कटु आलोचना के केंद्र बिंदु बनकर उभरे। भारतीय भाषाओं के प्रति उनका गहरा लगाव था। वह अंग्रेजी की अनिवार्यता के विरोधी थे। उनके नेतृत्व में 1967 में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन पूरे देश में फैल गया था। ‘अंग्रेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा-उनका प्रसिद्ध नारा था। तब जगह- जगह अंग्रेजी में लिखे श्यामपट्ट रातों-रात हिंदी और प्रांतीय भाषा में लिखे जाने लगे थे। 

लोहिया द्वारा जाति विषमता की जड़ों पर कड़ा प्रहार 

आर्थिक असमानता के साथ-साथ डॉ. लोहिया ने सामाजिक विषमता के विरुद्ध भी बड़ा अभियान चलाया। इसी तरह नारी समता के लिए भी उन्होंने कई अभियान चलाए। 1962 के आम चुनाव में उन्होंने राजमाता विजयाराजे सिंधिया के मुकाबले एक वाल्मीकि महिला सुखोरानी को खड़ाकर जाति विषमता की जड़ों पर कड़ा प्रहार किया था। डॉ. लोहिया का मानना था कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा राजकाज में बिना हिस्सेदारी के है। शासन-प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी नगण्य हिस्सेदारी है।

लोहिया ने कहा था, छोटी जाति के लोगों को ऊंचे बैठाओ

उन्हीं के दौर में काका कालेलकर आयोग बना, जिसे पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी का मूल्यांकन करना था। तब 50 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास प्रथम श्रेणी की प्रशासनिक हिस्सेदारी न के बराबर थी। इसके लिए डॉ. लोहिया ने विशेष अवसर का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्होंने कहा था कि छोटी जाति वालों को ऊंची जगहों पर बैठाओ। पहले इन वर्गों को अवसर मिलेगा, तभी उनमें योग्यता विकसित होगी। पिछड़ी जाति के लोगों को ऊंचे स्थान पर बैठाने से ही विषमता मिटेगी। इसीलिए मन की लड़ाई और पेट की लड़ाई साथ-साथ चलनी चाहिए। डॉ. आंबेडकर के साथ मिलकर वह एक बड़ी पार्टी के गठन की संभावनाओं पर भी विचार कर रह थे। 24 अगस्त, 1956 को अपने एक पत्र में डॉ. आंबेडकर ने स्वयं लिखा था कि वह प्रस्ताव रखेंगे कि साथ मिलकर काम कैसे संभव हो सकता है, लेकिन डॉ. आंबेडकर की असमय मृत्यु ने इस अच्छे कार्य को संपन्न नहीं होने दिया।

डॉ. लोहिया जीवन के मात्र 57 वर्ष ही पूरे कर पाए कि 12 अक्टूबर 1967 को अचानक हुई उनकी मृत्यु ने परिवर्तन की समूची राजनीति को जैसे विराम लगा दिया। देश में जोर पकड़ रहा समूचा समाजवादी आंदोलन उनके असमय निधन से निष्प्रभावी हो गया। हालांकि सामाजिक विषमता के विरुद्ध कर्पूरी ठाकुर जरूर अपनी एक अमिट छाप छोड़ गए, जिन्होंने संभावित खतरों को भांपकर अत्यंत पिछड़ों के लिए अलग आरक्षण का प्रावधान उपलब्ध कराया। आज डॉ. लोहिया के अनुयायियों के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वे उनके विचारों को अमल में लाने के लिए सक्रिय हों।

(लेखक जनता दल-यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)  

[लेखक के निजी विचार हैं]