संजय गुप्त। अंग्रेजों ने 152 साल पहले राजद्रोह का जो कानून बनाया था उसका मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता के आकांक्षी भारतीयों का दमन करना और ऐसा माहौल बनाना था कि कोई भी उनकी हुकूमत को चुनौती न देने पाए। स्वतंत्रता आंदोलन के समय बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी इस कानून का शिकार बने। इनमें बाल गंगाधर तिलक और गांधी जैसे नेता भी शामिल थे। आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ऐसा संविधान तैयार किया जो पूरी दुनिया के लिए मिसाल बना, लेकिन जिस तरह इस संविधान के कुछ विधान वही रहे, जो अंग्रेजी सत्ता के दौरान थे उसी तरह भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के कई नियम-कानून वही बने रहे, जो अंग्रेजों ने बनाए थे। इनमें राजद्रोह कानून भी है।

चूंकि इसे एक दमनकारी कानून माना गया इसलिए इसे लेकर रह-रहकर सवाल भी उठते रहे- कभी राजनीतिक दलों की ओर से, कभी मानवाधिकारवादी संगठनों की ओर से और कभी न्यायपालिका की ओर से भी। यह माना जाता है कि आजादी के बाद भी इस कानून को बनाए रखने की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई ताकि राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए चुनौती बने तत्वों का सामना किया जा सके। 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की पीठ ने केदार नाथ सिंह के मामले में राजद्रोह कानून की उपयोगिता और सीमाओं को लेकर एक अहम निर्णय दिया था, फिर भी ऐसे शिकायती स्वर शांत नहीं हुए कि इस कानून का मनमाना इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे शिकायती स्वरों का मूल कारण यह है कि सरकारों के स्तर पर राजद्रोह कानून के ‘दुरुपयोग’ का सिलसिला कायम रहा। अनेक मामलों में यह देखने में आता है कि सरकारें अपने कटु आलोचकों अथवा राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने के लिए इस कानून का बेजा इस्तेमाल करती हैं।

राजद्रोह कानून के मनमाने इस्तेमाल के सिलसिले के बीच बीते दिनों इस कानून को रद करने की मांग वाली एक याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जब केंद्र सरकार से राय जाननी चाही तो पहले तो उसने इस कानून को बनाए रखने की पैरवी की, लेकिन फिर प्रधानमंत्री की अप्रासंगिक कानूनों को खत्म करने की पहल का हवाला देते हुए उस पर पुनर्विचार का भरोसा दिया और इसके लिए तीन माह का समय मांगा। इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल इस कानून के इस्तेमाल पर रोक लगा दी, बल्कि इसकी समीक्षा होने तक ऐसे मामलों में कोई कदम न उठाने का आदेश भी दे दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में जिस तरह यह कहा कि किसी के भी खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज नहीं होगा, उससे उन तत्वों को बल नहीं मिलना चाहिए, जिनका आचरण वास्तव में राजद्रोह के दायरे में आता है। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय कुछ भी हो, किंतु ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि राजद्रोह का प्रत्येक मामला सरकार की मनमानी का परिचायक ही होता है। कोई भी ऐसा दावा नहीं कर सकता कि देश में वैसी कोई गतिविधियां नहीं हो रही हैं जो राजद्रोह के दायरे में न आती हों। नक्सलवादी संगठन तो खुलेआम संविधान और लोकतंत्र को चुनौती देने में लगे हुए हैं। शहरों में रह कर इन नक्सलियों को अपना सक्रिय वैचारिक समर्थन देने वाले, जिन्हें अब अर्बन नक्सल कहा जाने लगा है, अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रता का दुरुपयोग ही करते हैं। नक्सलियों की तरह पंजाब या कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित राष्ट्रविरोधी गतिविधियां भी किसी से छिपी नहीं हैं। पंजाब की कुछ ताजा घटनाएं नए सिरे से चिंता को बढ़ाने वाली हैं। हाल के समय में पूर्वोत्तर भारत के कई हिस्सों में युद्ध जैसी विद्रोही सक्रियता कुछ कम अवश्य हुई है, किंतु शून्य नहीं। वास्तव में देश में कई ऐसी ताकतें हैं जो भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनी हुई हैं। इनमें से अनेक ताकतें अपने विचारों और विशेषत: अतिवादी विचारों के जरिये ही सक्रिय हैं। ये वे ताकतें हैं जो यह चाहती हैं कि उनके अतिवादी विचारों को भी वैचारिक स्वतंत्रता का हिस्सा माना जाए। यह न तो उचित है और न ही इसकी अनुमति दी जा सकती है, क्योंकि इससे तो अराजकता और अव्यवस्था ही बढ़ेगी।

यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश की एकता, अखंडता और संविधान के साथ-साथ नियम-कानूनों को धता बताने वाले अतिवादी विचारों को सहन किया जाता रहा तो लोकतंत्र को सहेज कर रख पाना कठिन ही होगा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जो अनेक देश राजद्रोह कानून के मामले में भारत को नसीहत देते रहते हैं, उन्होंने भी अपने यहां अलगाववादी शक्तियों से निपटने के लिए कुछ कठोर कानून बना रखे हैं। यह समझा जाना चाहिए कि अंतत: कोई विचार ही अपने अतिवादी रूप में चिंगारी बन जाता है और विद्रोह या विध्वंस का कारण बनता है। इतिहास हमें यही सबक देता है कि विचार ही क्रांति का जरिया बनते हैं और वही कभी-कभी विध्वंस और हिंसा का कारण भी बन जाते हैं। सकारात्मक क्रांतिकारी विचारों और अतिवादी विचारों में जो अंतर है, उसे हर किसी को भलीभांति समझना होगा। अतिवादी विचारों के जरिये समाज और देश में वैमनस्य एवं विद्रोह फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई का कोई कारगर उपाय सरकार के पास होना ही चाहिए। भले ही इसे राजद्रोह के बजाय किसी अन्य संज्ञा से परिभाषित किया जाए, क्योंकि कई बार राजद्रोह शब्द का उल्लेख मात्र अतिरंजित और अनावश्यक प्रतीत होने लगता है।

निश्चित रूप से सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन हर स्वतंत्रता की तरह अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर अतिवादी विचारों के साथ देश के संविधान, उसकी एकता और अखंडता को चुनौती दी जाएगी तो फिर सरकार के पास ऐसे तत्वों से निपटने के लिए पर्याप्त कानून होने ही चाहिए। सवाल यह है कि विचारों की स्वतंत्रता, विविधता अथवा क्षेत्रवाद की आड़ में जो लोग संविधान और देश की एकता-अखंडता को चुनौती देने के साथ ही उसे छिन्न-भिन्न करने का इरादा रखते हैं, उन्हें राजद्रोह के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं?