[गिरीश्वर मिश्र]। संविधान को अंगीकार कर देश ने शासन के लिए ‘जनतंत्र’ को स्वीकार किया जिसने औपनिवेशिक इतिहास को पार कर राजनीतिक रूप से एक स्वतंत्र परिवेश में समाज को जीने का अवसर दिया। यह एक नए युग का सूत्रपात था जिसमें देश और काल दोनों ही बदले और हमें स्वयं को पुन: परिभाषित करने की चुनौती प्राप्त हुई। एक बड़े देश के रूप में जिस समाज को स्वतंत्रता की देहरी पर हमने खड़ा पाया था वह अपने स्वरूप में अद्भुत था। इस बिंदु पर भावनाओं के स्तर पर सभी छोटे-बड़े समुदाय एक किस्म की एकता के सूत्र में बंधे थे। समाज में सामाजिक-आर्थिक विषमताएं तो पहले से मौजूद थीं, परंतु अंग्रेजी राज की गुलामी की पीड़ा से भारतवासी आर्थिक, मानसिक और शारीरिक स्तरों पर त्रस्त थे। यह सबके लिए एक समान सा आधार था और इससे छुटकारा पाने के लिए सभी इच्छुक थे। वहीं भौतिक जीवन के स्तर पर सभी समुदायों की विशिष्ट पृष्ठभूमि थी। भिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों में आकार पाने वाले विभिन्न समुदायों की समानता और भिन्नता के अपने-अपने दायरे थे जो आपस में जुड़ते और टकराते भी थे।

देश के सांस्कृतिक मानचित्र में प्राचीन काल से ही धर्म और सामाजिक जीवन के कुछ आंतरिक सूत्र ऐसे भी विद्यमान हैं जो सबको आपस में जोड़ते रहे हैं। प्राचीन काल में ज्ञान की धारा भी देश के एक छोर से दूसरी छोर तक बहती थी। भिन्न-भिन्न स्थानों पर जन्म लेने पर भी रामानुजाचार्य, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, ज्ञानेश्वर, कबीरदास, गुरु नानक, महर्षि रमण आदि गुरुओं का प्रभाव क्षेत्र एक स्थान पर स्थिर नहीं रहा। वे सभी भारत नामक एक भाव-प्रवाह के अटूट हिस्से थे और उससे जुड़ना सबके लिए प्रीतिकर अनुभव होता था। गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु और कावेरी जैसी नदियां भारत के हर कोने में पवित्र और पूज्य बन गईं। हिमालय, विंध्य, शिवालिक, मलय आदि पर्वत श्रेणियां और वनराजियों का आकर्षण सबको प्रिय है। कृष्ण और राम की नानाविध उपस्थिति भी अखिल भारतीय स्तर पर दिखती है। ये सभी सांस्कृतिक एकता को ठोस आधार प्रदान करते हैं।

विभिन्न भाषाओं के साहित्य में व्यक्त भावों और सरोकारों में भारतीयता के स्पंदन प्राप्त होते हैं। ऊपरी भिन्नता के कारण अपरिभाषित- सी दिखने पर भी यह भाव हमारे व्यवहार रूपों में कई तरह से व्यक्त होता है। सारी विविधताओं के बावजूद भावनात्मक एकता सबको निकट ले आती है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत की धरती विभिन्न सांस्कृतिक प्रवाहों की साक्षी रही और परत-दर-परत उनके प्रभाव पड़ते रहे। भारत में शक, हूण, ग्रीक, कुषाण, मुगल, पुर्तगाली, पारसी, अंग्रेज जाने कितनी तरह की विदेशी प्रजातियां आती रहीं और आर्यों के साथ उनके रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। विदेशी प्रभाव अनेक प्रकार के थे। सामाजिक मेल-मिलाप के साथ इनके बीच ज्ञान, कला और कौशल का आदान-प्रदान भी होता रहा। भिन्न परंपराओं, रूढ़ियों और मतों के साथ भारत में अनेक तरह की सामाजिक व्यस्तताएं पनपती रहीं। अधिकांश विदेशी आक्रमणकारी भारत का दोहन और शोषण करते रहे। व्यापार से शासन सूत्र तक पहुंच बनाने वाले अंग्रेज इस कार्य में सबसे चतुर साबित हुए।

उन्होंने भारत को आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक हर तरह से योजनाबद्ध ढंग से कमजोर किया। आर्थिक दोहन के साथ उन्होंने मानसिक अभ्यास और सभ्यता का ऐसा युगारंभ किया जिसकी गिरफ्त में आकर हमारे सोचने-विचारने का पूरा नजरिया ही उलट- पुलट गया। इसकी काट खोजना आज भी मुश्किल है और हम अभी भी खोया विश्वास वापस नहीं ला सके हैं। यहां की स्थापित और जांची-परखी शिक्षा पद्धति को निरस्त कर शिक्षित और सभ्य होने की जो प्रणाली अंग्रेजों ने स्थापित की वह आज भी काबिज है।

आधुनिक भारत के निर्माण की दृष्टि से इस जटिल पृष्ठभूमि की अनदेखी नहीं की जा सकती, क्योंकि स्वतंत्रता मिलते समय समाज के रूप में जो कच्चा माल मिला वह विविधवर्णी था। यह सामाजिक विविधता भारत की नियति बनी जिसमें एक समावेशी दृष्टिकोण को स्वीकार कर और उसे साथ लेकर ही आगे चलना संभव था। इसी विचार से पंथनिरपेक्ष नीतियों पर चलने का निश्चय किया गया। सामाजिक सह अस्तित्व को स्वीकार करने वाला यही विकल्प सहज और स्वाभाविक भी था। विविधताऔर एकता के बीच सामंजस्य को साधना आसान नहीं होता, खास तौर पर तब जब विविधता को एकता से ज्यादा मूल्यवान बना दिया जाए।

अब अति-विश्लेषण के दौर में समाज में भी समग्र या सकल को समझने की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा पा रहा है। सत्ता की दौड़ में हर अंश एक-दूसरे के साथ द्वंद्व करने के लिए तत्पर हो रहा है। जनतंत्र को प्राय: हम एक ऐसी व्यवस्था के रूप में ग्रहण करते हैं मानो कि उसे प्राप्त करने के बाद हम उसके सारे लाभों के हकदार हो गए। सत्तानशीं राजनेता जनतंत्र के दावेदार होकर उसकी व्यवस्था को अपने हित साधन का उपकरण बनाने लगते हैं। दूसरी ओर जब नागरिकों के मूल अधिकारों और मानव अधिकारों की बात होती है तो हम सब लोग अपने लिए कुछ न कुछ सुरक्षित करने के लिए और पाने के लिए आतुर रहते हैं, पर हम यह भूल जाते हैं कि जनतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था नहीं है। वह एक जिम्मेदार किस्म की जीवनशैली भी है। जनतंत्र की शक्ति इस जीवन की शैली से ही आती है। आजकल अक्सर शक्ति तो याद रहती है, पर जीवनशैली भूल जाती है।

पारस्परिक भागीदारी, भरोसा, भिन्न दृष्टियों को भी सुनना तथा सहना और देश तथा उसके जन की चिंता को सबसे ऊपर रखना इस शैली के प्रमुख अंश हैं। उसके अभाव में अधिकारों की बात सिर्फ अनधिकार चेष्टा ही बनी रहेगी। निवेश और परिणाम का सीधा रिश्ता होता है। हमारा शरीर चलता रहे और सक्रिय होकर हम विभिन्न लक्ष्यों को पा सकें इसके लिए ऊर्जा की जरूरत होती है। जब अपेक्षित ऊर्जा नहीं मिलती है (या उसका दुरुपयोग होता है) तो शरीर अस्वस्थ होने लगता है। इसी प्रकार जनतंत्र की ऊर्जा की सुरक्षा भी उसके मूल्यों की रक्षा करते हुए ही हो सकती है। चुनावी आहट के साथ सारे जनतांत्रिक मूल्यों को छोड़ नेतागण ‘सीट बंटवारे’ और ‘दल बदलने’ के गणित को बैठाते नजर आ रहे हैं। इससे फुर्सत मिलते ही थोड़े दिनों बाद इस कर्मकांड की पुष्टि में तर्क और देश को बचाने की ललकार का दौर शुरू होगा। निजी, बेनामी और देश-स्तर के मुद्दे खोजे और बनाए जाएंगे जिनको लेकर तीर चलेंगे, पर सत्य यह है कि ‘देश’ को बचाने के लिए बचपना छोड़ जनतंत्र की जीवनशैली अपनानी होगी, क्योंकि जनतंत्र ‘संज्ञा’ नहीं ‘क्रिया’ है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के

कुलपति हैं)