डॉ. वेदप्रकाश। जीव सृष्टि की निर्मिती से पूर्व परमात्मा ने उसके जीवन की सुचारुता व सुविधा हेतु अग्नि, जल, वायु तथा प्रकृति आदि से समन्वित एक सुंदर पर्यावरण की रचना की। विज्ञान के अति आच्छादन के कारण मनुष्य ने स्वयं को निर्माता मान लिया, जबकि सत्य यह है कि इस चराचर ब्रम्हांड का आधार मनुष्य या विज्ञान नहीं है, अपितु परमात्मा है। वेदों में जीव-जगत और पर्यावरण के विविध विषय अनेक रूपों में वíणत हुए हैं। ऋग्वेद के नौवें मंडल के चौथे सूक्त में कहा गया, अवावशंत धीतयो वृषभस्याधि रेतसि.. अर्थात गौ अपने बच्चे को दूध पिलाकर जिस प्रकार परिपुष्ट करती है, उसी प्रकार प्रकृति अपने इस कार्य रूप ब्रम्हांड की पुष्टि करती है।

सामान्यत: पर्यावरण एक ऐसी संकल्पना है जो किसी जीवधारी को उसकी आवश्यकता के अनुरूप आवरण वातावरण प्रदान कर उसके सुखद जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। अपने विकासक्रम में मनुष्य ने प्रकृति में विकृति का प्रयास आरंभ किया। अधिकाधिक दोहन, उत्पादन और लालसा पर्यावरणीय असंतुलन का कारण बनती चली गई। वनों की अंधाधुंध कटाई, नदी क्षेत्रों में अतिक्रमण, पहाड़ों की कटाई, महानगरों का विस्तार तथा औद्योगिक प्रतिस्पर्धा में हानिकारक गैसों का उत्सर्जन आदि से पर्यावरण की समस्या विकराल होती जा रही है। भारत में लगभग दो लाख गांव वनों में या उसके आस-पास बसते हैं।

देश की जीडीपी में वनों का 0.9 फीसद योगदान है। ईंधन व टिंबर के रूप में प्रतिवर्ष करोड़ों टन लकड़ी वनों से ही प्राप्त होती है। नीम, तुलसी, पीपल, महुआ, चंदन आदि विभिन्न औषधीय पौधे भी प्राप्त होते हैं। चिंता का विषय यह है कि पर्यावरणीय असंतुलन से कड़ाके की ठंड, बर्फबारी, अति वर्षा, सूखा, बाढ़, अत्यधिक गर्मी, ग्लेशियरों का पिघलना, भयंकर तूफान तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसे संकट पैदा हो रहे हैं, जो जीव सृष्टि के लिए घातक हैं। अनेक वनस्पतियां तथा जीव प्रजातियां समाप्ति के कगार पर हैं। प्लास्टिक का बढ़ता प्रयोग स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए घातक हो रहा है।

भारत सहित समूचे विश्व में विकास के नाम पर ग्लोबल वार्मिंग तेजी से हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, जल स्नोत अतिक्रमण का शिकार हो चुके हैं, वृक्षों और पहाड़ों की कटाई, वायु प्रदूषण, अवैध खनन, अवैध निर्माण जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है। वनों के कटने से इकोसिस्टम में असंतुलन पैदा हो रहा है। सांस, फेफड़े और भिन्न भिन्न प्रकार के संक्रामक रोग निरंतर बढ़ रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण निरंतर पर्यावरण और प्रकृति प्रदूषण के लिए नीतियों और दंड का प्रावधान कर रहे हैं। फिर भी अनेक रूपों में प्रदूषण जारी है।

भारतीय संस्कृति पर्यावरण और प्रकृति की पूजक रही है। रामायण में श्रीराम एवं सीता के द्वारा गंगा, यमुना आदि नदियों का पूजन और वट वृक्ष की पूजा वíणत है। आज भी अनेक पर्व उत्सव जैसे बैसाखी, सरहुल, कर्मा, मकर संक्रांति, बसंत पंचमी, लोहड़ी, गोवर्धन पूजा आदि सीधे प्रकृति से जुड़े हैं। छठ पर्व पर सूर्य पूजन, करवा चौथ पर चंद्रमा पूजन, अहोई अष्टमी पर तारों का पूजन, वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष पूजन, पीपल पूजन, तुलसी विवाह और पूजन, आंवला नवमी पूजन, गाय पूजन, नाग पंचमी आदि अनेक रूपों में प्रकृति और पर्यावरण के आवश्यक उपादानों के पूजन और वंदन की परंपरा है। किंतु यह भी बड़ा सत्य है कि आज मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण से दूर हुआ है। पूजन के नाम पर पर्यावरण को दूषित कर रहा है। प्रकृति को जीतकर जीने की चाह और उपभोग की लालसा बलवती हुई है। प्रकृति के प्रति दायित्व भाव के स्थान पर अधिकार भाव प्रबल हुआ है। त्यागपूर्ण भोग के चिंतन को छोड़कर निहित स्वार्थो के लिए प्रकृति और पर्यावरण का दोहन जारी है। परिणामत: प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं।

सकारात्मक यह है कि विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं प्रकृति और पर्यावरण चिंतन को लेकर गंभीर प्रयास कर रही हैं। जल स्नोतों के संरक्षणके बड़े समाचार आ रहे हैं। पौधरोपण के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। हानिकारक औद्योगिक इकाइयों पर प्रतिबंध लग रहे हैं। पर्यावरण की दृष्टि से विचार करते हुए भावी भारत आगे बढ़ रहा है।

इसी क्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पर्यावरण संरक्षण गतिविधि विभाग तथा हिंदू आध्यात्मिक एवं सेवा फाउंडेशन के द्वारा प्रकृति वंदन कार्यक्रम के माध्यम से जन जागरूकता का अभियान शुरू हुआ है। कल यानी रविवार को देश के करोड़ों परिवार मिलकर प्रकृति वंदन की ओर बढ़े हैं। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन राव भागवत ने अपने उद्बोधन में कहा, यदि स्वार्थवश प्रकृति के दोहन का सिलसिला जारी रहा, तो यह संभव है कि हम ही न रहें या प्रकृति ही न रहे। इसलिए प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन के गंभीर प्रयास होने चाहिए। भारतवर्ष की प्रकृति के साथ जीने की सनातन परंपरा जिसे हमारे पूर्वजों ने संभाला वह पुनर्जीवित होनी चाहिए, मजबूत होनी चाहिए। पर्यावरण वंदन के माध्यम से अपनी परंपराओं को स्मरण करने का यह दिन है, नई पीढ़ी भी इसके भाव को समङों और इसके महत्व को जाने। आज यह भी जानना जरूरी है कि हम सभी प्रकृति के घटक हैं। हमें प्रकृति से पोषण पाना है, उसे जीतना नहीं है। यही संदेश है इसका।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]