नई दिल्ली [शंभु सुमन]। मजदूरों की पीड़ा को लेकर मीडिया के एक बड़े वर्ग में उबाल है और इस पर निरंतर विमर्श जारी है कि उनकी पीड़ा को कम करने के लिए किस तरह के उपाय अमल में लाए जाने चाहिए। वित्त मंत्री का कहना है कि एक बड़ी राशि (एक हजार रुपये) हर जनधन खाते में दो किस्तों में भेजी जा चुकी है।

मुफ्त राशन के तौर पर उनके लिए पैसे खर्च किए जा रहे हैं। अनेक प्रकार से जरूरतमंदों की मदद भी सीधे खाते में रकम भेजकर की गई है, लेकिन अब जो मिलने वाला है वह कर्ज के रूप में होगा या फिर अप्रत्यक्ष रूप से कंपनियों में अनुबंधित श्रमिक को मजदूरी के तौर पर मिलेगा।

अधिकांश मजदूरों को देश में आजकल एक नया नाम प्रवासी मजदूर का मिल गया है। नतीजा वे कभी केंद्र सरकार को देखते हैं, तो कभी अपने-अपने राज्यों की सरकारों को। दोनों की नीतियों के आगे उनकी जिंदगी बेदम और बदहवास हो चुकी है। उनकी सड़कों पर होने वाली मौतें और बेचारगी के आगे सुप्रीम कोर्ट भी किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाया।

दूसरी तरफ रोजगार और काम-धंधे से दूर उनके बिगड़े हुए हालात कोरोना वायरस महामारी से जूझने से कहीं अधिक आजीविका के संघर्ष को लेकर बने हैं। देश की राजधानी दिल्ली से सटे राज्यों की सीमाओं और हाईवे पर शारीरिक दूरी के नियमों की धज्जियां उड़ीं। उससे कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका बन गई। 

दूसरी तरफ संक्रमितों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है जिससे भय का माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कई सवाल उभरने स्वाभाविक हैं। एक अहम सवाल मजदूरों की आत्मनिर्भरता के आधार को मजबूत बनाने का भी है। इस काम में चुने हुए जनप्रतिनिधियों की वैसी भूमिका नहीं दिख रही है, जैसी वे चुनाव या रैलियों

के दौरान दिखाते रहे हैं।बिगड़ चुकी आíथक स्थिति को सुधारने के लिए आत्मनिर्भरता का प्रोत्साहन पैकेज प्यासे को पानी पिलाने के इंतजाम के बजाय कुआं खोदने की योजना जैसा कहा जा सकता है। फिर भी पैकेज में चाहे जिस क्षेत्र के लिए प्रस्तावित योजनाओं की बात की गई हो, उनके जमीन पर आने में वक्त लगेगा। इस लिहाज से वे अर्थव्यवस्था के मजबूत स्तंभ श्रम शक्ति की सुरक्षा के लिए कोई फौरी कदम नहीं कहे जा सकते हैं। 

मजदूरों की कुशलता एवं श्रमसाध्य क्षमता को संभालने-सहेजने के प्रति कोई ठोस योजना नहीं दिखती है।अर्थशास्त्रियों को जहां बंद कल-कारखानों को दोबारा शुरू कर आíथक सुधार की चिंता रहती है, वहीं समाजशास्त्रियों और राजनेताओं को मालिकों और कामगारों के बीच बेहतर सामंजस्य बैठाने को लेकर बहस होती है।

अक्सर उनके निष्कर्ष मालिकों को ही फायदा पहुंचाते हैं जो सीधे तौर पर सरकार से संबद्ध होते हैं और उन्हें टैक्स देते हैं। अब मजदूरों की बात करें तो वे संगठित और असंगठित क्षेत्रों में बंटे हुए हैं। वे खेतिहर मजदूर, कामगार से लेकर सामान्य शिक्षण-प्रशिक्षण के बावजूद बौद्धिकता के स्तर पर काफी टेक्नीकल भी हैं।

दूसरी तरफ सूक्ष्म, लघु और मध्यम स्तर से लेकर बड़े औद्योगिक घराने की पहली मंशा कम से कम श्रम शक्ति में अधिक उत्पादन क्षमता हासिल करने की होती है। नए पैकेज के अनुसार बनाई गई रणनीति से यह स्थिति और भी बिगड़ने वाली है। प्रवासी श्रमिकों के काम खत्म होने और ठेकेदारों द्वारा पूरी रकम नहीं मुहैया कराने के कारण ही आज अधिकांश श्रमिक मजूबरन अपने राज्य वापस जाने पर आमादा होते देखे गए हैं।

प्रवासी मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाओं के नाम पर न्यूनतम रकम खर्च करने के लिए ठेकेदार और मालिक रजिस्ट्रेशन की संख्या कम दिखाते हैं। कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि मजदूरों के लिए नए सिरे से दलदली जमीन तैयार की जा रही है, जिसमें उनकी आत्मनिर्भरता का धंसना तय है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)