[बलबीर पुंज]। पहले दिल्ली के प्रधान पादरी अनिल काउटो तो अब गोवा के आर्कबिशप फिलिप नेरी फेराओ द्वारा ईसाई समाज को लिखा पत्र चर्चा में है। इन चिट्ठियों के अनुसार देश में बहुलतावाद, लोकतंत्र और संविधान खतरे में है। दलितों- अल्पसंख्यकों पर अत्याचार निरंतर बढ़ रहे हैं। चर्च ने स्वयं को मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया है। आखिर गत चार वर्षों में ऐसा क्या हुआ है या क्या हो रहा है जिसने चर्च को बेचैन कर दिया है? क्या पर्दे के पीछे कुछ और ही खेल है या फिर अपने वास्तविक मंतव्य को लच्छेदार बातों के अनावरण में छिपाने का प्रयास हो रहा है? 2018 की शुरुआत में पुणे स्थित भीमा-कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा को लेकर जो हालिया खुलासा हुआ है वह भारत में देशविरोधी ताकतों की कुंठा और बौखलाहट को दर्शाता है। प्रारंभ में इर्स हिंसा के लिए सीधे तौर पर्र हिंदुत्व से जुड़े संगठनों को जिम्मेदार ठहराया गया, फिर भाजपा- संघ को कलंकित करने का प्रयास हुआ। अब जांच में पता चला है कि नक्सलियों ने ही पूर्वनियोजित योजना के तहत हिंसा भड़काई थी और वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश भी रच रहे थे।

किसी भी संप्रभु देश में सख्त कानून व्यवस्था होने के बाद भी आपराधिक मामले सामने आते हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। अपने देश में जब ऐसी कोई आपराधिक घटना सामने आती है जिसमें दलित, ईसाई और मुस्लिम पीड़ित होते है तब उस पर कानूनी कार्रवाई की जाती है। आखिर इसके बावजूद चर्च आगामी चुनावों से पहले एक व्यक्ति/पार्टी विशेष को ध्यान में रखकर राजनीतिक रूप से सक्रिय हो क्यों हो गया? उसे इसके लिए किसने प्रेरित किया? भारत में प्रधान-पादरियों की नियुक्ति पोप करते है और उनकी जवाबदेही केवल वेटिकन सिटी के प्रति होती है। इटली के रोम में स्थित वेटिकन स्वयं को संप्रभु और स्वतंत्र इकाई मानता है। कैथोलिक चर्च का घोषित एजेंडा, ‘जिस प्रकार पहली सहस्नाब्दी में यूरोप और दूसरी में अमेरिका अफ्रीका को ईसाई बनाना था उसी तरह तीसरी सहस्नाब्दी में एशिया का ईसाइकरण करना है।’ इस पृष्ठभूमि में एशिया में ईसाइयों की स्थिति देखें : औपनिवेशिक-काल से चर्च को भारत में जैसी सुविधा प्राप्त है क्या वैसी ही चीन, पाकिस्तान, ईरान, इराक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे एशियाई देशों में है, जहां ईसाई सहित अन्य अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक हैं? क्या वर्तमान विवाद तीसरी सहस्नाब्दी के निर्धारित लक्ष्यों को पाने से संबंधित तो नहीं? भारत की कालजयी सनातनी परंपरा सदियों से भय, लालच और छल की शिकार रही है। इस रूग्ण चिंतन का संज्ञान गांधीजी ने अपने जीवनकाल में अनेक बार लिया। स्वतंत्रता के बाद ईसाई मिशनरियों और चर्चों की अनैतिक गतिविधियों को लेकर अप्रैल 1955 में मध्य प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था जिसने मतांतरण पर कानूनी रूप से प्रतिबंध की अनुशंसा की थी।

अपनी चिट्ठियों में चर्च लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद की दुहाई देकर भारत के संविधान को खतरे में बता रहे हैं। क्या 1947 में स्वतंत्रता और आपातकाल के समय संविधान में 42वें संशोधन के अंतर्गत ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ने से पहले-भारत पंथनिरपेक्ष नहीं था? भारत आज पंथनिरपेक्ष और सहिष्णु है तो वह अपनी कालजयी सनातन संस्कृति और बहुलतावादी दर्शन के कारण है जिसने ‘एक सत विप्रा: बहुधा वदंति’ की प्रेरणा दी और सारे संसार को एक परिवार (वसुधैव कुटुंबकम) माना।

भारत में चर्च का क्या इतिहास रहा है? प्राचीनकाल में अपने उद्गम स्थान पर प्रताड़ना के शिकार हुए जो लोग भारतीय तटों पर पहुंचे उनमें यहूदियों के बाद सीरियाई ईसाई भी शामिल थे जो कैथोलिक चर्च की प्रताड़ना के साक्षी थे। भारतीय परंपरा के अनुरूप इन सभी का तत्कालीन स्थानीय हिंदू शासकों और जनता ने न केवल स्वागत किया, बल्कि सारी सुविधाएं देते हुए उन्हें उनकी रीति-रिवाजों के अंतर्गत पूजा और जीवन-यापन का अवसर भी दिया। कई शताब्दियों की सुख-शांति के बाद स्थिति तब बिगड़ी जब रोमन कैथोलिक चर्च का पुर्तगाली साम्राज्यवाद के साथ भारत में प्रवेश हुआ। 16वीं-17वीं शताब्दी में जब उत्तर भारत क्रूर मुगल शासक औरंगजेब के आतंक का शिकार हो रहा था तब उसी समय दक्षिण में फ्रांसिस जेवियर ‘गोवा इंक्विजीशन’ की भयावह पटकथा तैयार कर रहे थे। ईसाइयत के प्रचार के लिए 1541-42 में भारत पहुंचे जेवियर ने पाया कि गैर-ईसाइयों की भांति मतांतरित ईसाई अपनी मूल परंपराओं और पूजा-पद्धति का अनुसरण कर रहे थे और ईसाइयत (रोमन कैथोलिक स्वरूप) के प्रति गंभीर नहीं थे। उन्होंने पुर्तगाली शासक किंग जॉन-तृतीय को पत्र लिखकर गोवा में ‘इंक्वीजीशन’ प्रारंभ करने का अनुरोध किया जिसके स्वीकृत होने पर हजारों गैर-ईसाइयों को अमानवीय यातनाएं सहनी पड़ी जिसमें लोगों की जीभ काटना और चमड़ी उतारना तक शामिल था। हिंदुओं के सभी रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फ्रांसिस जेवियर को 1662 में तत्कालीन पोप ग्रेगरी-15 ने ईसाइयत के प्रचार- प्रसार हेतु ‘संत’ की उपाधि प्रदान की।

यदि आज भारत में चर्चों को असुरक्षा और खतरे का अनुभव हो रहा है तो उसका मुख्य कारण वह विदेशी चंदा है जो मई 2014 से पहले उन्हें और उनके समर्थित गैर- सरकारी संगठनों को आसानी से पहुंच रहा था, जिसका अधिकांश उपयोग वे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में करते थे। मोदी सरकार विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम का उल्लंघन करने वाले 18 हजार 868 स्वयंसेवी संगठनों का पंजीकरण रद कर चुकी है। इसके चलते वित्त वर्ष 2016- 17 में गैर-सरकारी संगठनों को विदेश से प्राप्त राशि 6,499 करोड़ रुपये रही, जबकि 2015-16 में 18 हजार करोड़ रुपये थी। ऐसे संगठनों का काला चेहरा समय-समय पर सामने आता रहा है। जब दुनिया दावोस के आर्थिक मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुन रही थी तब ब्रिटिश गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम ने घोषित एजेंडे के तहत देश में आर्थिक असमानता संबंधी एक रिपोर्ट सार्वजनिक की थी। लगभग उसी समय ऑक्सफैम के अधिकारियों द्वारा भूकंप प्रभावित हैती में आर्थिक सहायता के बदले महिलाओं से यौन-संबंध बनाने का खुलासा हुआ। यदि भारत की बहुलतावादी संस्कृति को किसी से खतरा है तो वह नक्सलवाद, इस्लामी कट्टरता, विदेशी हितों की पूर्ति करने वाले तथाकथित पर्यावरणविद् और वह रूग्ण विचारधारा है जिनका जन्म इस भूखंड से बाहर हुआ। चर्च का इन शक्तियों से कैसा संबंध है, यह जांच का विषय है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)